scorecardresearch
Tuesday, 12 November, 2024
होममत-विमतइंदिरा की तरह हैं मोदी- कांग्रेस को इतिहास से सबक लेना चाहिए, सोनिया और प्रशांत किशोर ला सकते हैं बदलाव

इंदिरा की तरह हैं मोदी- कांग्रेस को इतिहास से सबक लेना चाहिए, सोनिया और प्रशांत किशोर ला सकते हैं बदलाव

यह कहानी इंदिरा गांधी और उनके विरोधियों की है मगर इसमें पात्रों की भूमिकाएं उलट गई हैं, कॉंग्रेस पुरानी गलतियां कर रही है लेकिन अब उसमें बदलाव के कुछ संकेत दिख रहे हैं

Text Size:

अगर आपकी उम्र इतनी है कि इंदिरा गांधी की आपको याद हो, तो आपको उनका यह मशहूर ऐलान भी याद होगा— ‘मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, वो कहते हैं इंदिरा हटाओ.’

यह वाक्य उस समय के विपक्ष की हालत का सटीक सार प्रस्तुत करता है. 1969 में इंदिरा ने कांग्रेस को तोड़कर अपना वर्चस्व कायम किया, जो 1984 में उनकी हत्या तक कायम रहा. उस पूरे दौर में भारतीय राजनीति उनके इर्द-गिर्द ही घूमती रही. उस बीच वे केवल एक 1977 का आम चुनाव हारीं, जो इमरजेंसी खत्म होने के बाद हुआ था. लेकिन तब भी उनका दक्षिणी किला उनके कब्जे में रहा. कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने दक्षिण (और महाराष्ट्र) में 127 सीटें जीती. और आप यह भी कह सकते हैं कि 1984 के आम चुनाव में कांग्रेस को जो भारी जीत मिली वह एक तरह से इनकी ही जीत थी.

उस दौरान विपक्ष कोई मजबूत कहानी नहीं बना पाया, बल्कि इंदिरा गांधी पर ही निशाना साधता रहा, कि वे कितनी बड़ी तानाशाह हैं, कि वे देश को किस रसातल में ले जा रही हैं, कि उन्हें हराना कितना जरूरी है. दूसरी ओर, कांग्रेस ने अपनी नीति को कभी इस बात पर केंद्रित करने की गलती नहीं की कि एक व्यक्ति को हराना कितना जरूरी है. यहां तक कि 2004 में जब सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए गठबंधन ने भाजपा को हराया तब भी अटल बिहारी वाजपेयी पर व्यक्तिगत हमला नहीं किया. 2009 में भी जब यूपीए जीता तब कांग्रेस ने वाजपेयी से भाजपा की कमान अपने हाथ में लेने वाले लालकृष्ण आडवाणी पर हमला करने में कोई देर नहीं की.


यह भी पढ़ेंः हिंदू दक्षिणपंथ का रुख अमेरिका विरोधी हो गया, मगर भारत को नारों के बदले हकीकत पर गौर करने की दरकार


नरेंद्र मोदी नए इंदिरा गांधी

पिछले कुछ वर्षों में इतना कुछ बदल चुका है कि मोदी को इंदिरा गांधी वाली भूमिका में और कांग्रेस को इंदिरा दौर के विपक्ष वाली भूमिका में देखना बहुत आसान है. उदाहरण के लिए, पिछले आम चुनाव में राहुल गांधी का मुख्य नारा था— ‘चौकीदार चोर है’. प्रधानमंत्री मोदी की ईमानदारी पर निरंतर हमले किए गए. आज भी, कांग्रेस का मूल स्वर यही है कि ‘नरेंद्र मोदी खराब हैं, उनसे छुटकारा पाना बहुत जरूरी है’.

कभी-कभी हम यह भूल जाते हैं कि कांग्रेस अपने रास्ते से किस कदर भटक गई है, जिसने किसी एक व्यक्ति को अपने पूरे इतिहास में कभी अपना निशाना नहीं बनाया. राजनीति के स्मार्ट खिलाड़ी जानते हैं कि अगर आपका पूरा आग्रह एक व्यक्ति को हटाने पर केंद्रित है तो आपको उस व्यक्ति का विकल्प पेश करना ही होगा. विपक्ष के पास कभी इंदिरा गांधी के कद का नेता नहीं रहा इसलिए वह उनके ऊपर जितना हमला करता, उनका कद उतना ही ऊंचा हो जाता.
ऐसा ही कुछ कांग्रेस और प्रधानमंत्री मोदी के मामले में हुआ है. जब भी उन पर व्यक्तिगत हमला किया जाता है, मतदाताओं का सवाल होता है कि चलिए, हम मान लेते हैं कि उनसे छुटकारा पा लेना चाहिए मगर आप ही बताइए कि उनकी जगह किसको लाएं? हर बार कांग्रेस इस सवाल के जवाब में जब राहुल गांधी का नाम लेती है तो मतदाता अपना सिर झटक कर मोदी को ही वोट दे देते हैं.

अपने मौजूदा अवतार में कांग्रेस को अगर ‘हम मोदी से नफरत करते हैं’ की अपनी रणनीति की खामी और उसके उलटे नतीजे नहीं नज़र आते तो इसकी वजह यह है कि राहुल और उनके पार्टी सलाहकार मोदी के बारे में और मोदी देश के साथ जो कुछ कर रहे हैं उसके बारे में बहुत दृढ़ मत रखते हैं. वे पूरी ईमानदारी और गहराई से महसूस करते हैं कि समस्या मूलतः मोदी ही हैं. इसी विश्वास से बनी हैं उनकी नीतियां.

लेकिन चुनाव गहरी भावनाओं के बूते ही नहीं जीते जाते. चुनाव तभी जीते जाते हैं जब आप अपनी भावनाएं मतदाताओं में भी उतनी ही गहराई से पैदा कर पाते हैं, और उन्हें विकल्प प्रस्तुत करते हैं. राहुल की कांग्रेस मोदी के खिलाफ कोई जोरदार कहानी नहीं प्रस्तुत कर पाई है और न उनका कोई विकल्प प्रस्तुत कर पाई है. इसलिए, चुनाव-दर-चुनाव उसे शर्मनाक हार मिलती रही है. और मोदी निरंतर मजबूत होते गए हैं.

कांग्रेस में बदलाव

एक बार फिर कहानी इंदिरा गांधी और उनके विरोधियों वाली है, जिसमें भूमिकाएं उलट गई हैं. कांग्रेस भी वही गलतियां कर रही है जो अतीत का विपक्ष कर चुका है. लेकिन पिछले एक महीने से और पिछले चुनाव में मात खाने के बाद ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि कांग्रेस ने फैसला कर लिया है कि अब काफी पिटाई हो चुकी, अब कुछ अलग करना ही पड़ेगा.
नये संकल्प का पहला संकेत यह है कि सोनिया गांधी केंद्रीय मंच पर लौट आई हैं. वे पिछले कुछ वर्षों के मुक़ाबले अब ज्यादा सक्रिय दिख रही हैं— संसद में बोल रही हैं, बयान जारी कर रही हैं, लेख लिख रही हैं, और अपनी पार्टी तथा दूसरी पार्टी के नेताओं के साथ बैठकें कर रही हैं.

यह सब भाजपा के लिए अच्छी खबर नहीं है. अब तक तो भाजपा की सोशल मीडिया टीम राहुल को ‘पप्पू’ साबित करने में जुटी थी, जो एक अधिकृत वंशज तो हैं मगर बहुत सक्षम नहीं है, जो विदेश में छुट्टियां मनाने के बीच देश में आकर राजनीतिक का खेल खेलते रहते हैं. यह छवि पेश करना सरासर अनुचित है. लेकिन राजनीति तो धारणाएं बनाने का ही खेल है! यह भी एक वजह है कि मोदी और अमित शाह चाहते हैं कि राहुल ही कांग्रेस की कमान संभालें, क्योंकि उन्होंने उनकी एक छवि गढ़ डाली है.


यह भी पढ़ेंः वाजपेयी, आडवाणी से लेकर UPA तक, जिस त्रासदी के प्रति सबने बेरुखी दिखाई उसे ‘कश्मीर फाइल्स’ ने कबूल किया


सोनिया की सक्रियता

दूसरी ओर, सोनिया का मखौल उड़ाना काफी मुश्किल है. वे पार्टी को दो बार चुनाव में सत्ता दिला चुकी हैं और वे मोदी लहर का जवाब देती रही हैं. राय बरेली लोकसभा सीट उन्होंने तब जीती थी जब लगभग हर कोई हार गया था. उन पर तमाम तरह के नकारात्मक ठप्पे लगाए जा चुके हैं, कि वे विदेशी हैं, नौसिखुआ हैं, परिवारवादी हैं, आदि-आदि लेकिन कोई ठप्पा उन पर चिपक नहीं पाया. अगर सोनिया कांग्रेस का चेहरा बन जाती हैं और कई अनुभवी नेताओं को आगे लाती हैं तब ‘पप्पू’ और उनके साथियों के बारे में तमाम कटाक्ष फीके पड़ जाएंगे.

लेकिन क्या यह सब होगा?

मुझे पता है कि इस सवाल का जवाब सोनिया के पास है. और किसी के पास जवाब नहीं दिखता. लेकिन उनकी शुरुआती चालों से उनके रणनीति का संकेत मिल जाता है. उन्होंने विपक्ष में आम सहमति बनाने की कोशिश की है और सांप्रदायिक नफरत के माहौल पर ज़ोर दिया है. यह वह मुद्दा है जो सभी गैर-भाजपा दलों (‘आप’ को छोड़ कर क्योंकि उसने शामिल होने से मना कर दिया है) को एकजुट करता है. सोनिया गठबंधन की बात कर रही हैं, और प्रशांत किशोर से उन्होंने संपर्क किया है.

कांग्रेस के साथ किशोर का संबंध दिलचस्प है. वे पार्टी के साथ पहले भी काम कर चुके हैं और पांच साल पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा में पार्टी के अभियान के रणनीतिकार थे, लेकिन कांग्रेस के भीतर ही उन्हें निरंतर कमजोर किया गया था. वे पार्टी के साथ काम करने के लिए पिछले करीब 15 महीने से बात चला रहे थे मगर कोई ठोस नतीजा नहीं निकल रहा है.

अब सोनिया ने उनसे संपर्क किया है तो यह महत्वपूर्ण बात लगती है क्योंकि कांग्रेस के अंदर ही यह माना जाता था कि सोनिया उन्हें साथ लेने को बहुत राजी नहीं हैं. सोनिया का मानना रहा है कि कांग्रेस को वही लोग चलाएं जिन्होंने उसके लिए अपना जीवन दिया है, बाहर वाले नहीं चाहे वे कितने भी सक्षम क्यों न हों.

प्रशांत किशोर का विरोध

किशोर के विरोधी उन्हें भाजपा का भेदिया मानते हैं और मोदी के साथ उनके पुराने संबंधों का जिक्र करते हैं. यह तर्क जमता नहीं है. भाजपा का भेदिया भाजपा को पश्चिम बंगाल के चुनाव में हराना क्यों चाहेगा? अगर मोदी ने यह ख्याल नहीं रखा कि किशोर कांग्रेस के साथ पहले काम कर चुके हैं, फिर भी 2014 के चुनाव में उनकी सेवाएं लीं, तो कांग्रेस मोदी के साथ बीते उनके दिनों का क्यों ख्याल रखेगी?

कांग्रेस में किशोर के खिलाफ असली आपत्ति भय से उपजी है. पार्टी में सत्ता में बैठे कई लोगों को डर है कि वे पार्टी ढांचे को बदलेंगे और उनकी स्थिति कमजोर होगी. लेकिन सोनिया की हर्र झंडी मिलते ही यह आपत्ति दब जाएगी.
क्या किशोर के सुझावों से फर्क पड़ेगा? वे इंटरव्यू लेने वालों से जो कुछ कहते रहे हैं उससे तो उनके विचार ठोस और समझदारी भरे लगते हैं. कुछ तो बिलकुल सामान्य बुद्धि की बातें हैं. हां, कांग्रेस को अपनी कहानी लिखनी चाहिए. समस्या यह है कि अपने मौजूदा अवतार में कांग्रेस में ऐसा कोई नहीं है जो सामान्य बुद्धि वाली, जाहिर सी बातों को भी लागू करने को राजी हो. किशोर को शामिल करने से यह स्थिति बदल सकती है.

लेकिन अंततः, कांग्रेस को ही खुद से अस्तित्ववादी सवाल करना होगा कि वह जिस ढलान पर लुढ़क रही है उस पर बने रहकर स्थिति क्या बेहतर हो सकती है? पागलपन का एक लक्षण यह है कि आप एक ही काम को बार-बार करते रहें और हर बार अलग नतीजे की उम्मीद रखें.

इसलिए, कांग्रेस को अगर अपना वजूद बचाना है तो उसे बदलने के लिए तैयार रहना होगा. हालात इतने बुरे हो चुके हैं कि जो भी मौका मिले उसका इस्तेमाल करें. शायद किशोर के पास कुछ समाधान हों. या न भी हों. लेकिन पार्टी को मुड़कर अपने इतिहास को देखना होगा— इंदिरा वाले दौर के अनुभवों को. राजनीति जब केवल एक व्यक्ति को निशाना बनाना ही बन जाए तब वह उस व्यक्ति को और मजबूत बना देती है. और उसके विरोधियों को और कमजोर बना देती है.
अगर कांग्रेस किशोर की बातें सुनने को राजी नहीं है, तो वह राहुल की दादी से पार्टी को मिले सबक याद कर सकती है. आप उन्हें पसंद करें या उनसे नफरत करें, इंदिरा गांधी को राजनीति का ककहरा तो याद था ही.

(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः हिजाब, हलाल, नवरात्रि के बहाने मोदी का भारत मुसलमानों को नहीं बल्कि हिंदुओं दे रहा है संदेश


 

share & View comments