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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतRCEP में शामिल न होकर मोदी ने सही फैसला किया था क्योंकि इससे दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को ज्यादा फायदा नहीं होने वाला

RCEP में शामिल न होकर मोदी ने सही फैसला किया था क्योंकि इससे दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को ज्यादा फायदा नहीं होने वाला

अमेरिका विकल्प के रूप में नहीं उपलब्ध हो रहा इसलिए चीन के नेतृत्व वाली व्यापार व्यवस्था में शामिल होने का फैसला हताशा में आत्मघाती कदम उठा लेने जैसा ही होगा.

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भारत ने ‘आरसीईपी’ (क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी) वार्ताओं से पिछले साल बाहर निकलकर ठीक ही किया, और वह अभी भी इससे बाहर है तो यह भी अच्छी बात है. अंततः रविवार को 15 देशों ने इस संधि पर दस्तखत किए, जिसके चलते एशिया-प्रशांत क्षेत्र की अर्थव्यवस्थाएं चीन की अर्थव्यववस्था से अब और गहराई से जुड़ जाएंगी. यह मूर्खतापूर्ण है. चीन पर ज्यादा निर्भरता उन्हें एक ताकतवर तथा बदनीयत पड़ोसी के सामने और कमजोर ही बनाएगा.

समस्या यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार के फैसले की आलोचना करने वाले कई लोग ‘आरसीईपी’ को केवल आर्थिक नजरिए से देख रहे हैं. वास्तव में, पूर्व विदेश सचिव श्याम शरण का कहना है कि ‘आर्थिक आधार सुरक्षा के आधार से ज्यादा नहीं, तो उससे कम महत्वपूर्ण भी नहीं है.’ लेकिन उनका यह तर्क गलत है. सुरक्षा का पहलू हमेशा ज्यादा महत्वपूर्ण रहेगा और रहना भी चाहिए. आर्थिक पहलू को तरजीह दिया जाना चाहिए मगर तभी जब वह सुरक्षा के पहलू के विपरीत न हो. ‘आरसीईपी’ का जो स्वरूप तय किया गया है, अगर वह उसी के मुताबिक चलता है तो यह इस क्षेत्र के देशों को चीन के आर्थिक तथा राजनीतिक वर्चस्व के आगे और कमजोर बनाएगा.


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आर्थिक हित से ज्यादा अहम है सुरक्षा

यह बताने की शायद ही जरूरत है कि चीन अपनी आर्थिक और राजनीतिक मांगों को पूरा करने के लिए व्यापार का किस तरह इस्तेमाल करता रहा है. व्यापार के मामले में अपनी बढ़त का इस्तेमाल करते हुए वह दुनिया के तमाम देशों को अपनी दिशा में चलाता रहा है. पिछले कुछ महीनों से ऑस्ट्रेलिया उससे इस वजह से परेशान है क्योंकि चीन को किए जाने वाले अपने निर्यातों में वह चीन की दखलंदाज़ी झेल रहा है. इसी सप्ताह चीन ने एक असामान्य किस्म का पत्र ‘अनधिकृत’ रूप से जारी किया, जिसे धमकी ही माना जा सकता है. पत्र में कहा गया है कि ओस्ट्रेलिया चीन की मांगों को पूरा करने के लिए कुछ खास कदम उठाए और अगर उसने ये मांग पूरे नहीं किए तो उसे कुछ अतिरिक्त कदम उठाने पड़ेंगे.

वास्तव में, चीन व्यापार को जिस तरह राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करता रहा है और व्यापार के मामले में अनुचित तरीके अपनाता रहा है उसके चलते कुछ देशों ने ‘सप्लाइ चेन को मजबूत बनाने’ के बारे में विचार-विमर्श शुरू कर दिया है. यह समझ पाना मुश्किल है कि ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देश एक ओर तो चीन के व्यापार संबंधी तौर-तरीकों से बचाव के उपायों पर चर्चा भी कर रहे हैं, दूसरी तरफ उसके व्यापार के तरकश में और तीर भी क्यों डाल रहे हैं. इसके नतीजे क्या होंगे यह समझ पाना मुश्किल नहीं है. चीन दबाव और बढ़ाएगा और ‘आरसीईपी’ के नियम इन देशों को कोई सुरक्षा नहीं प्रदान करेंगे.

ऐसा लगता है कि ‘आरसीईपी’ दरअसल इस बात का प्रमाण है कि अमेरिका इस क्षेत्र को अपना नेतृत्व देने और अपनी भूमिका निभाने की ज़िम्मेदारी से कतरा रहा है. यह ठीक नहीं है, क्योंकि अमेरिका और चीन में से किसी को चुनने का विकल्प बराबरी का नहीं है. चीन इस क्षेत्र केअधिकतर देशों की सुरक्ष के लिए सीधा खतरा है, अमेरिका खतरा नहीं है. यह भी एक वजह है कि जापान और ऑस्ट्रेलिया अपनी सुरक्षा को मजबूत करने में क्यों लगे हैं, कि ‘क्वाड’ समूह क्यों मजबूत हुआ है, और भारत ने मालाबार में हो रहे नौसैनिक अभ्यासों में ऑस्ट्रेलिया का क्यों स्वागत किया है. अमेरिका फिलहाल चूंकि खुद को एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने को राजी नहीं है इसलिए चीन के नेतृत्व वाली व्यापार व्यवस्था में शामिल होना, खासकर तब जबकि नये राष्ट्रपति जो बाइडेन का कार्यकाल इस मामले में ज्यादा पहल कर सकता है, हताशा में आत्मघाती कदम उठा लेने जैसा ही होगा.

दुर्भाग्य से, ‘आरसीईपी’ का विरोध करने वालों ने इस मसले को आर्थिक तथा व्यापारिक नीति के नजरिए से भी देखा है. वास्तव में, विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भी घरेलू स्तर पर व्यापार के नकारात्मक आर्थिक प्रभावों की ओर इशारा करते हुए कहा है कि ‘खुलेपन के नाम पर हमने बाहर से सब्सिडी वाले उत्पादों को आने और उन्हें उत्पादन के अनुचित तरीकों का लाभ उठाने की छूट दे रखी है.’ असली बात यह है कि मुख्य समस्या ‘आरसीईपी’ से होने वाले आर्थिक परिणामों नहीं बल्कि उसके राजनीतिक परिणाम हैं.

भारत जिस धोखे में नहीं पड़ा

सुरक्षा की महत्ता को पहचानने से इनकार करना पुरानी समस्या है, जो तर्कों और अनुभवों के बावजूद दूर नहीं होती दिखती. सुरक्षा इसलिए अहम है क्योंकि इसके बिना कोई आर्थिक प्रगति या दूसरी बेहतरी नामुमकिन है. इसकी उपेक्षा महंगी पड़ती है. चीन से मिले हाल के अनुभव ही चेतावनी के लिए काफी होने चाहिए. पूरे अमेरिकी तथा पूर्व-एशियाई क्षेत्र की अर्थव्यवस्थाओं ने चीन की अर्थव्यवस्था के साथ गहरा रिश्ता यह सोचकर बनाया कि आर्थिक हक़ीक़तें और आपसी लाभ चीन को सहकारी भूमिका अपनाने और, जैसी कि अमेरिकी उप-विदेश मंत्री रॉबर्ट जोलिक ने चीन और सोवियत संघ के बीच फर्क का जिक्र करते हुए उम्मीद की, एक ‘जिम्मेदार भागीदार’ बनने के लिए मजबूर करेगा.

चीन उस उम्मीद पर खरा नहीं उतरा क्योंकि यह उम्मीद अंतररराष्ट्रीय राजनीति के बारे में मूलतः गलत नजरिए पर आधारित थी, जिसमें टकरावों को अंतररराष्ट्रीय जीवन की दुर्भाग्यपूर्ण गलतियों के तौर पर देखा जाता है, न कि उसके अनिवार्य हिस्से के तौर पर; इस नजरिए के तहत यह भी माना जाता है कि सबको यह एहसास होगा कि आपसी सहयोग से सबको लाभ होगा. चीन ने वही किया, जो अचानक अमीर और ताकतवर होने वाला देश कर सकता है, उसने तय कर लिया कि उसकी बात सबको माननी ही पड़ेगी. इसमें कुछ भी रहस्यपूर्ण नहीं है.

लेकिन आर्थिक संबंधों का राजनीतिक जरूरतों के लिए उपयोग करने वाला चीन कोई पहला देश नहीं है. याद कीजिए उस ‘कंटिनेंटल सिस्टम’ को, जब नेपोलियन ने ब्रिटेन का गला दबाने की कोशिश की थी. इस बात से सीख लेने की जरूरत नहीं है कि वह सफल नहीं हुई, क्योंकि चीन भी अपनी आर्थिक शक्ति को प्रभावी राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग करने के प्रयासों में अब तक सफल नहीं हो पाया है. महत्वपूर्ण यह समझना है कि व्यापार एक राजनीतिक हथियार बन सकता है, खासकर तब जब हम नये शीत युद्ध में उलझे होंगे. जैसा कि एडम टूज ने अपने ताज़ा लेख में कहा है, ‘चीन के विकास का स्तर और इसके साथ उसके राजनीतिक नेतृत्व के ठोस इरादों ने आर्थिक नीति और सुरक्षा नीति के बीच के आभासी फर्क को बिलकुल मिटा दिया है.’

इस तरह, नॉर्मन एंगेल की किताब ‘द ग्रेट इल्यूजन’ (जबरदस्त भ्रम) का सत्य करीब 100 साल बाद भी फिर हावी होता दिख रहा है, हालांकि समय ने इसकी स्थापनाओं को मजबूत करने के लिए शायद ही कुछ किया है. गनीमत है कि भारत इस भ्रम के धोखे में नहीं आया है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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