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Wednesday, 17 April, 2024
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चीन का मुकाबला करना भारत व अमेरिका दोनों की प्राथमिकता है, लेकिन केवल एक को ही दूसरे की ज़रूरत है

चीन का मुक़ाबला करने के लिए भारत को दो चीज़ों की ज़रूरत है और दोनों के लिए उसे अमेरिका पर निर्भर रहना होगा.

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अगले हफ्ते अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में कोई भी जीते भारत की रणनीतिक परिस्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा. चीन के पक्ष में शक्ति का भारी असंतुलन– जो बढ़ता जा रहा है और भारत को नियंत्रित करने की उसकी रणनीति एक ऐसी वास्तविकता है जो निकट भविष्य में बनी रहेगी. इसका मतलब है कि इन दोनों मोर्चों पर चीन से मुक़ाबले का भारत का प्राथमिक उद्देश्य भी बना रहेगा. इस काम के लिए अमेरिका बहुत आवश्यक है. सीधे से कहें तो नई दिल्ली को अगले अमेरिकी राष्ट्रपति के सा, अमेरिका-भारत के बीच रणनीतिक सहयोग को और मज़बूत करना होगा- अगले मंगलवार को चाहे डोनाल्ड ट्रंप विजेता बनें या जो बाइडेन.

उसी तरह, चीन का मुक़ाबला करना अमेरिका के लिए भी अनिवार्य होगा.

चुनाव के नतीजे कुछ भी रहें अमेरिका की आज जो स्थिति है, उसमें कोई बदलाव नहीं होगा. ये एक ऐसी स्थिति है जिसमें चीन की तुलना में अमेरिका की ताक़त अपेक्षाकृत कम हो रही है और अगर अमेरिका चीन का सामना करने के लिए क़दम नहीं उठाता, तो ये ताक़त और तेज़ी से कम होगी. हालांकि, चीन को लेकर अमेरिका के विकल्पों पर अमेरिकी विश्लेषकों के बीच और डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर एक गहन बहस चल रही है. लेकिन बीजिंग का बर्ताव ख़ुद इन विकल्पों को सीमित कर रहा है.

संक्षेप में कहें तो चीन का सामना करना भारत और अमेरिका दोनों के हित में है. सवाल सिर्फ एक ऐसी व्यवस्था की प्रक्रिया का है, जिसमें भारत और अमेरिका (और अन्य) इसे साथ मिलकर कर पाएं.

निश्चित रूप से, इस बात में अंतर है कि ट्रंप और बाइडेन अमेरिकी विदेश नीति को कैसे चलाएंगे. लेकिन अमेरिका को लेकर केवल दो मुद्दे हैं, जिनकी भारत को चिंता करने की ज़रूरत है. पहला ये कि क्या अमेरिका में इतनी ताक़त है कि चीन का सामना कर सके और दूसरा ये कि क्या उसमें ऐसा करने की इच्छा है.

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एलएसी पर भारत को US की ज़रूरत

चीन की ताक़त का मुक़ाबला करने के लिए भारत को दो चीज़ों की ज़रूरत है और दोनों के लिए अमेरिकी समर्थन की ज़रूरत है. पहली और सबसे महत्वपूर्ण है कि भारत की सीधे तौर पर चीन की सैन्य, आर्थिक और राजनयिक शक्ति से रक्षा. भारत की सैन्य शक्ति काफी मज़बूत है और आज उसकी तैयारी 1962 या शायद उससे एक दशक पहले के मुक़ाबले कहीं बेहतर है. ख़ासकर सीमा पर इंफ्रास्ट्रक्चर के मामले में. लेकिन सैन्य संतुलन एक गतिमान लक्ष्य होता है, और जितना कोई अपेक्षा कर सकता था ये उससे कहीं अधिक तेज़ी और प्रतिकूल रूप से गतिशील है. भारतीय सेना आज वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर अच्छा प्रदर्शन कर सकती है, लेकिन समय के साथ ये मुश्किल होता जाएगा. चीन अपनी सेना पर भारत के मुक़ाबले चार गुना ख़र्च करता है, बल्कि चीन का ये ख़र्च एशिया की प्रमुख ताक़तों के कुल ख़र्च से ज़्यादा है.


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अंत में इसका असर सीमा पर सैन्य संतुलन पर ज़रूर पड़ेगा. चूंकि चीनी सेनाएं उन्नत टेक्नोलॉजी में ज़्यादा निवेश करती हैं. भारत की विशाल सेना की वजह से, उसकी रक्षा को मज़बूत करने के लिए भले ही अमेरिका या किसी अन्य देश की सेनाओं की ज़रूरत न पड़े लेकिन तेज़ी से आधुनिक होती पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को एलएसी पर बढ़त हासिल न हो जाए ये सुनिश्चित करने के लिए नई दिल्ली को फिर भी अमेरिकी सहायता की ज़रूरत पड़ेगी. इसके अलावा, अमेरिकी ख़ुफिया सहायता भी भारत के प्रयासों को सहारा दे सकती है और बहुपक्षीय मंचों पर चीन को रोकने के लिए भी अमेरिकी राजनयिक मदद दरकार होगी. इसके लिए अमेरिका के साथ एक दीर्घकालिक साझेदारी की ज़रूरत है भले ही व्हाइट हाउस में कोई भी हो.

चीनी ‘आधिपत्य’ को रोकना होगा

भारत के लिए दूसरी ज़रूरत ये सुनिश्चित करना है कि चीन क्षेत्रीय शक्ति के अपने प्रभाव को आधिपत्य में तब्दील न कर ले. सीधे से कहें, तो चीनी आधिपत्य एक ऐसी स्थिति है जिसमें एशियाई देश चीनी प्राथमिकताओं के आगे झुकने लगते हैं, चूंकि उनके पास कोई समझदार विकल्प नहीं होते. भारत का प्राथमिक हित भले राष्ट्रीय सुरक्षा है ना कि अंतर्राष्ट्रीय या क्षेत्रीय व्यवस्था की आकृति, लेकिन इंडो-पैसिफिक के मामले में ये एक हो जाते हैं. चूंकि एशिया के ऊपर चीनी आधिपत्य, भारत के हितों के लिए बहुत नुक़सानदेह होगा. चीन कुछ समय के लिए एशिया में अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहेगा, और अमेरिका ही वो अकेली शक्ति है जो उसे रोक सकती है. एक बार फिर, इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि व्हाइट हाउस में कौन है.

चीन की शक्ति का प्रभाव और बड़ी समस्या इसलिए बन गया है, क्योंकि वो तक़रीबन हर रोज इस बात को दिखलाता है, कि अपने पड़ोस और उससे दूर भी दूसरों के हितों या भावनाओं की कोई परवाह किए बिना वो अपनी ताक़त का इस्तेमाल करने का इरादा रखता है. एक मामले में ये सौभाग्यपूर्ण है, कि चीन का अपनी शक्ति का खुला इस्तेमाल शक की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता कि क्या भारत चीन को समायोजित कर सकता है. भारत इस निष्कर्ष पर पहुंचने का इच्छुक नहीं रहा है, लेकिन ये स्पष्ट है कि चीन, भारत और हर किसी को इस दिशा में ढकेलता रहेगा. अगर चीन ज़्यादा संवेदनशीलता दिखाता और अपने ख़तरों पर परदा डाले रहता तो ये काम कहीं ज़्यादा मुश्किल हो जाता.

अमेरिका- एक दूसरा बड़ा सवाल

अमेरिकी ताक़त में सापेक्ष गिरावट के बावजूद इसमें कोई शक नहीं कि अभी भी अमेरिका अकेला देश है, जो चीन की सैन्य, आर्थिक, और राजनयिक ताक़त का मुक़ाबला करने में समर्थ है और यही कारण है कि अमेरिकी समर्थन के बिना, भारत के लिए चीन का सामना करना मुश्किल होगा. लेकिन असली सवाल ये है कि क्या अमेरिका में इसकी इच्छा है. यही वो कारण है जिससे अमेरिका में इतनी बहस चल रही है.


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हालांकि, ये एक ऐसा सवाल है जिसे अमरीकियों को ख़ुद तय करना है ये याद रखना चाहिए कि अमेरिकी लोगों का अपने देश की वैश्विक प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े करना कम से कम आंशिक रूप से इस समझ का नतीजा है कि अमेरिका के सहयोगी मुफ्त सवारी करने वाले शोषक हैं. ज़ाहिर है कि ये पूरी तरह सही नहीं है, क्योंकि नेतृत्व की अपनी हैसियत से अमेरिका बहुत फायदे उठाता है, जिनकी आसानी से गणना नहीं की जा सकती. फिर भी, परेशानी तब पैदा होती है जब अमेरिकी भागीदार, साझा सुरक्षा का अपने हिस्से का ख़र्च अदा करने में हिचकिचाते हैं या अमेरिकी हितों को कमज़ोर करते दिखाई पड़ते हैं. ये समस्या भारत की उतनी नहीं है. लेकिन फिर भी नई दिल्ली पर इसका असर ज़रूर पड़ता है.

उसी तरह, नई दिल्ली के लिए भी इस बात को समझना ज़रूरी है कि सभी साझेदारियों की एक सीमा होती है. अमेरिका के साथ गठबंधन की एक बुनियादी वजह है चीन से मुक़ाबला भले ही इसे ज़ोर से कहना सभ्य न हो. भारत और अमेरिका बहुत से मुद्दों पर असहमत हो सकते हैं और शायद होंगे भी जैसे कश्मीर, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और शायद भारत के घरेलू मामले. लेकिन किसी भी पक्ष को इन मतभेदों को चीन से निपटने के ज़्यादा महत्वपूर्ण सहयोग के बीच, आड़े नहीं आने देना चाहिए. ख़ासकर भारत के लिए ये ज़रूरी है. अमेरिका के पास दूसरे सहयोगी भी हैं, जिनपर वो निर्भर कर सकता है. लेकिन भारत के साथ ऐसा नहीं है. सबसे ख़राब स्थिति में अमेरिका उठाऊ पुल को उठाकर पीछे हट सकता है. अमेरिकी ताकत के लिए ये बहुत महंगा साबित होगा लेकिन भारत और इंडो-पैसिफिक के परिणामों के सामने, वो कुछ नहीं होगा.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू), नई दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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