scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतअगर मोदी सरकार भारत में कृषि सुधार करना चाहती है तो ये मूलभूत होने चाहिए, ना कि सतही

अगर मोदी सरकार भारत में कृषि सुधार करना चाहती है तो ये मूलभूत होने चाहिए, ना कि सतही

भारत के मेहनतकश मगर निरंतर संकटग्रस्त किसान के लिए न्यूनतम आय का विचार लागू करना संभव लगता है, लेकिन तभी जब तमाम सबसीडियां और मूल्य समर्थन कार्यक्रम खत्म कर दिए जाएं.

Text Size:

भारतीय किसानों को उनकी फसल के मूल्य समर्थन के रूप में और खाद, बिजली, पानी आदि पर छूट के रूप में जो सब्सिडियां मिलती हैं उन्हें और पिछले साल से प्रति किसान जो 6000 रुपये दिए जा रहे हैं, उन सबको जोड़ा जाए तो कुल खर्च आराम से 4 खरब रूपया से ज्यादा यानी जीडीपी के 2 प्रतिशत के बराबर हो जाएगा. इसमें सब्सिडी व्यवस्था के उन तत्वों को नहीं शामिल किया गया है, जो किसानों को बैंक कर्ज की कम ब्याज दर के रूप में और उन कर्जों को लगभग नियमित रूप से माफ करने के खर्च के रूप में होता है.

चूंकि ये सारी सब्सिडियां और मूल्य समर्थन कार्यक्रम कृषि फसल के लिए हैं, फसल वाली 14 करोड़ हेक्टेयर जमीन पर सरकार का खर्च 30,000 प्रति हेक्टेयर निकलता है. इस तरह, दो हेक्टेयर जमीन वाले एक छोटे किसान को सालाना करीब 60,000 रुपये का लाभ दिया जा रहा है. यह बात आप किसी किसान से कहेंगे तो वह आपके ऊपर हंस देगा.

अब चूंकि मामला इस रकम का है, भारत के मेहनतकश मगर निरंतर संकटग्रस्त किसान के लिए न्यूनतम आय का विचार लागू करना संभव लगता है, लेकिन तभी जब तमाम सब्सिडियां और मूल्य समर्थन कार्यक्रम खत्म कर दिए जाएं. इस तरह के विचार का जिक्र मात्र करना तुरंत यह एहसास भी कराने लगता है कि यह इतना क्रांतिकारी है कि केंद्र में हो या राज्यों में, सत्ता में बैठा कोई भी इसे लागू करने की हिम्मत नहीं करेगा. इसलिए, इस महीने कृषि सुधारों के रूप में जो पेश किया गया वह केवल तीखी धारों आदि की ठोक-पीट भर जैसी दिखती है.


यह भी पढ़ें :नौकरियां अब लाखों लोगों की यादों में बसी कहानियां बनकर ही न रह जाएं, यदि प्रवासी नहीं लौटते तो उत्पादकता भी स्मृति होगी


वास्तविक सुधारों का मतलब तो यह है कि भूजल के अति उपयोग को रोका जाता, जिसे आज इसलिए प्रोत्साहन मिल रहा है कि पंपसेटों को चलाने वाली बिजली लगभग मुफ्त में या भारी रियायत के साथ उपलब्ध है. बिजली से संबंधित कानून में प्रस्तावित संशोधन के जरिए इस तरह की दोहरी सब्सिडी को खत्म किए जाने की उम्मीद है, क्योंकि लागत की भरपाई के लिए मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र से ज्यादा वसूल किया जा रहा है. लेकिन इसके चलते राजनीतिक विवाद उभर रहा है. इसलिए यह कानून अटका हुआ है. भूजल के अति उपयोग पर रोक लगाने से पंजाब के कम पानी वाले क्षेत्रों में धान की खेती, और महाराष्ट्र के सूखे इलाकों में गन्ने की खेती बंद हो जाएगी. इसके बाद चावल और चीनी के निर्यात को बनावटी बढ़ावा देना भी बंद हो जाएगा. इस तरह का निर्यात दरअसल पानी का निर्यात ही है, क्योंकि धान और गन्ना देश में सबसे ज्यादा पानी की खपत करने वाली फसलें हैं. यानी हम देश में बढ़ते जल संकट को दूर कर सकते हैं, क्योंकि पानी का 80 प्रतिशत उपयोग कृषि में ही होता है.

मूलभूत सुधार अनाज के बेहिसाब भंडारण को भी खत्म करेगा और खाद्य सब्सिडी के मुगालते में जो पैसा बर्बाद हो रहा है वह भी बचेगा. यह गन्ने को सबसे मुनाफे वाली फसल बनाने के लिए जिम्मेदार खरीद मूल्य की बनावटी वृद्धि को खत्म करेगा. इस बनावटी वृद्धि के कारण भारत में चीनी उत्पादन की लागत दुनिया में सबसे ऊंची है, और भारतीय चीनी की कीमत विश्व बाज़ार में 50 फीसदी ज्यादा है. इसका बोझ भारतीय उपभोक्ताओं को तो उठाना ही पड़ता है, सरकार को भी चीनी निर्यात को संभव करने के लिए प्रति किलो 10 रुपये खर्च करने पड़ते हैं.

आप कह सकते हैं कि आज जब अधिकतर किसान गरीबी के कगार पर जी रहे हैं तब कृषि की सभी मौजूदा नीतियों को कूड़ेदान में डाल देने की बात करना आसान है और वैसा ही विनाशकारी सोच है जिसने 2016 में नोटबंदी को जन्म दिया था. ऐसा हो भी सकता है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि अगर अंतिम लक्ष्य स्पष्ट हो तो परिवर्तन का कम उथलपुथल वाला, अच्छी तरह से सोचा-विचारा और सावधानी से लागू किया जाने वाला कार्यक्रम संभव नहीं है. किसानों के नाम पर जो पैसा खर्च हो रहा है वह उनके सही कल्याण पर खर्च होना चाहिए. उदाहरण के लिए, सब्सिडी और मूल्य समर्थन की एक तर्कसंगत व्यवस्था आज की लागत से कम पर लागू की जा सकती है. और बाकी बचे पैसे को सभी किसानों की आय बढ़ाने पर उदारता से खर्च किया जा सकता है.


यह भी पढ़ें : उम्मीदों को लगाम दीजिए, अर्थजगत में सुनामी का खतरा मंडरा रहा है


सरकार यह मान बैठी है कि भारत संकट के दौर में ही मूलभूत सुधारों को अपनाता है, इसलिए कोरोनावायरस के इस संकट को बेकार नहीं जाने देना चाहिए. इसमें शक नहीं कि एक महामारी के संकट और विदेशी मुद्रा के संकट में फर्क होता है. विदेशी मुद्रा का संकट आर्थिक नीतियों में आमूल परिवर्तन की गुंजाइश बनाता है. फिर भी, विचार अगर सुधारों का हो, तो यह वास्तविक सुधार होना चाहिए जिसके सकारात्मक नतीजे निकलें.

(इस आलेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments