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Saturday, 18 May, 2024
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उम्मीदों को लगाम दीजिए, अर्थजगत में सुनामी का खतरा मंडरा रहा है

भारत में कोरोनावायरस के संक्रमण के आंकड़ों की तरह आर्थिक वृद्धि के आंकड़ों को लेकर भी कुछ लोग जरूरत से ज्यादा आशावादी हो रहे हैं.

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विस्तृत ब्योरों को छोड़िए, सम्पूर्ण तस्वीर की बात कीजिए. कोविड-19 का संकट तमाम आशंकाओं से भी बड़ा साबित होने वाला है. कोरोनावायरस के 84,000 से ज्यादा मामलों तक पहुंच चुका है. भारत इस मामले में चीन को पीछे छोड़ चुका है, जिसकी संभावना एक समय काफी दूर लग रही थी. करीब आठ सप्ताह पहले जब भारत में पहला लॉकडाउन लगा था तब मात्र 500 मामले थे जबकि चीन में यह आंकड़ा 80,000 को पार कर चुका था.

सरकार मामलों के दोगुना होने की दर को देखकर कह रही है कि संकट घट रहा है. लेकिन इसे पर्याप्त धीमी दर नहीं कहा जा सकता. हम मामले को तीन बार दोगुना होते देख चुके हैं, यानी पिछले 32 दिनों में मामले आठ गुना बढ़ गए हैं. अगर मान लें कि दोगुना होने की दर अगले 50 दिनों में (जुलाई के शुरू के दिनों तक) और घटती है और मामले दो बार से ज्यादा दोगुने नहीं होते, तो उनकी कुल संख्या 3 लाख तक पहुंच जाएगी. तब भारत कोविड-19 से ग्रस्त देशों में अमेरिका, रूस, और ब्राज़ील के बाद चौथे नंबर पर पहुंच जाएगा. इनमें से किसी भी देश को इस महामारी से लड़ने के मामले में मॉडल नहीं माना जा सकता. इस नतीजे से बचना है तो जरूरत इस बात की है कि मामले दोगुने न हों और रोज के मामले बढ़ते न रहें, और तब उसके बाद गिरावट शुरू हो.


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अगर मामले दोगुने होते रहे, तो सेहत संबंधी चुनौतियों के लिहाज से ही नहीं, बल्कि अर्थव्यववस्था के लिहाज से बुरी खबर के लिए तैयार हो जाइए, और फिर हालात को सामान्य होने में कहीं लंबा समय लग सकता है. बेकाबू कोविड-19 महामारी क्या तांडव मचा सकती है, उसे लोग जिस तरह कम करके आंक रहे हैं. उसी तरह इसके कारण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर का अनुमान भी हल्के से लगाया जा रहा है. भविष्यवक्तागण इस वित्त वर्ष के लिए अभी भी धनात्मक वृद्धि के आंकड़ों से खेल रहे हैं और शेयर बाज़ार अल्पकालिक महत्व की खबरों पर ही ऊपर-नीचे हो रहा है. दोनों ही किसी आसन्न सुनामी की आशंका को खारिज कर रहे हैं. विशेषज्ञ लोग अगर यह कह रहे हैं कि हम आज जिस हालत से गुजर रहे हैं उसकी तुलना उसी से की जा सकती है जो हालत ‘ग्रेट’ मंदी में हुई थी, तो वक़्त आ गया है कि भविष्य को लेकर हमारी उम्मीदें यथार्थ से कम से कम दूर हों.


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इस बीच, इस सप्ताह वित्त मंत्री ने जिन कदमों का खुलासा किया उनमें कुछ गलत नहीं है, सिवाय उस तरीके के जिसके सहारे ‘पैकेज’ के आकार को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया और यहां तक कि टैक्स रिफ़ंड को भी पैकेज में शामिल कर लिया गया, मानो वह भी सरकार खैरात में दे रही हो. सारे उपाय लगभग वही हैं जिसकी सिफ़ारिश अधिकतर लोग कर रहे थे. लेकिन उन्हें चालाकी या होशियारी (आपका नज़रिया जैसा हो उसके मुताबिक) से इस तरह डिजाइन किया गया है कि वे केंद्र सरकार के खर्चों में न जुड़ें. इसके अलावा, राज्य सरकारों की खर्च करने की क्षमता बढ़ाने के लिए खास कुछ नहीं किया गया है. घोषणा और कार्यान्वयन के बीच की खाई का हिसाब न भी लिया जाए तो भी सरकार की क्षमताओं की सीमाएं स्पष्ट हैं.

वित्तमंत्री ने बृहस्पतिवार को जो सबसे स्पष्ट आंकड़ा प्रस्तुत किया वह यह था कि सरकारी और नागरिक संगठनों के आश्रयस्थलों में 8 करोड़ प्रवासी मजदूरों ने शरण ले रखी है. यह आंकड़ा स्तब्ध करता है. इतनी बड़ी तादाद में लोगों को अस्थायी शरण दिया जा सकता है, यह अपने आप में बड़ा काम है. उन्हें वादे के मुताबिक खाना भी दिया जाएगा यह और भी जबरदस्त काम है. फिर भी, निर्मला सीतारमण गरीबों तथा प्रवासियों को जो पेश कर रही हैं वह बेहद कम नज़र आ रहा है. इसलिए लाखों लोगों को अपने भरोसे ही छोड़ दिया गया है. ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अभाव और सरकार के रोजगार कार्यक्रमों की बदहाली के चलते लगता है कि वे लाखों लोग फिर से गरीबी रेखा के अंदर आ जाएंगे.

अंत में, निजी क्षेत्र में रोजगार देने वालों की बात. वे चाहते हैं कि सरकार उन कामगारों को वापस लाने के कदम उठाए, जो अपने घरों की ओर चले गए हैं. बेशक इन नियोक्ताओं को भी इस बात की ज़िम्मेदारी लेनी होगी कि उनके इतने सारे जो कामगार रोजगार की तलाश में अपना गांव-घर छोड़कर उनके पास आए थे. वे अनिश्चित भविष्य के बावजूद फिर सैकड़ों मील दूर अपने घरों की ओर क्यों लौट रहे हैं. यह जाहिर करता है कि इन मालिकों ने अपने लाखों कामगारों को किस तरह उपेक्षित कर दिया और उनसे भविष्य को साझा करने या साथ होने की भावना पैदा करने की अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभाईं. ऊपर से उन्होंने श्रम कानूनों को रद्द करने वाली राज्य सरकारों की तारीफ करके जले पर नमक छिड़कने का ही काम किया गया. एक जानकार ने ठीक ही कहा कि समस्या पैदा करने वाले कानूनों का जवाब अराजकता नहीं हो सकती. यही नहीं, जिन निवेशकों की बड़ी आवभगत की जाती है वे मनमाने ढंग से काम करने वाली सरकारों को संदेह से देख सकते हैं कि कल को कहीं उनको भी मनमानी का शिकार न बनना पड़ जाए, जिसका शिकार वे पहले भी हो चुके हैं.

(इस आलेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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