विशेषज्ञों की समिति सुप्रीम कोर्ट तय करे और ये समिति मोदी सरकार तथा किसानों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाये- किसान संगठनों ने ऐसी पहल को ठुकरा दिया. ठुकरा दिया तो समझिए बड़ी बुद्धिमानी का परिचय दिया, बिछाये गये फंदे में फंसने से बच गये किसान संगठन. लेकिन किसान संगठनों के इस ठुकराने में एक और बात भी पढ़ी जा सकती है. दरअसल किसान संगठनों ने ऐसा करके एक बुनियादी सिद्धांत की अहमियत को रेखांकित किया है कि लोकतंत्र में एक शय जवाबदेही भी हुआ करती है और उत्तरदायित्वपूर्ण शासन भी लोकतंत्र ही का हिस्सा है!
बात को गोल-मटोल कहने-सुनने से अच्छा है कि उसे एक सिरे से समझ लिया जाये ताकि भ्रम की गुंजाइश ना रहे. दरअसल सवाल ये करें कि सुप्रीम कोर्ट की बनायी विशेषज्ञ समिति काम क्या करेगी? समिति कृषि उपज के विपणन या फिर विवादास्पद कृषि कानूनों के निहितार्थ जैसे तकनीकी मुद्दों पर राय देने के लिए नहीं बनायी गई. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से साफ जाहिर है कि समिति क्या काम करेगी. समिति को दरअसल सरकार और किसान-संगठनों के बीच मध्यस्थता करनी है. अदालत के फैसले में कहा गया है कि : ‘सरकार और किसान संगठनों के बीच बातचीत अभी तक बेनतीजा रही. इसलिए हमारा खयाल है कि कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञों की एक समिति बने जो किसान संगठनों और सरकार के बीच मध्यस्थता करे जिससे बहुत मुमकिन है कि एक सौहार्दपूर्ण माहौल बनेगा और किसानों में भरोसा तथा विश्वास का जज्बा कायम होगा…’
अदालत ने ये बात साफ तौर पर कही है कि समिति कृषि कानूनों के बाबत किसानों की शिकायत तथा सरकार के विचार सुनने तथा सिफारिश करने के लिए बनायी गई है. तो फिर ये मानकर चलें कि समिति कोई बीच का रास्ता तलाशने की कोशिश करेगी और सरकार को सलाह देगी कि कृषि कानूनों में ऐसी क्या फेरबदल की जाये कि वह सरकार को भी ठीक लगे और कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों को भी संतोष हो जाये.
लेकिन यही तो वो असल वजह है कि किसानों ने शुरुआत से ही ऐसी कोई समिति बनाने के विचार का विरोध किया है. किसानों को आपत्ति है कि उन्हें किसी की मध्यस्थता मानने के लिए क्यों मजबूर होना पड़े, मसले पर समिति बनाने का तुक ही क्या है और ऐसी कोई समिति बनती है तो उसमें जिस तर्ज पर विशेषज्ञ रखे जायेंगे वह भी अपने रंग-ओ-आब में संदेह से परे कहां है. और, इन तीनों ही कसौटियों पर किसानों को जो आपत्ति और आशंका थी वो एकदम ठीक निकली है.
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अदालत के दायरे से बाहर की बात
इस सिलसिले में गौर करने की पहली बात तो यही है कि किसान किसी की मध्यस्थता में अपनी बात कहने को मजबूर क्यों हों. उन्होंने ना तो ऐसी मध्यस्थता की मांग की है और ना ही इसके लिए उन्होंने कोई रजामंदी जतायी है.
हां, जहां तक सरकार के साथ बातचीत का सवाल है, किसानों ने कभी नहीं कहा कि हमें मसले पर सरकार से बात नहीं करनी. ये बात ठीक है कि सरकार के साथ अब तक हुई बातचीत बड़ी निराशाजनक रही है. मोदी सरकार का रुख अड़ियल रहा लेकिन किसी का यह अड़ियल रुख ही तो है जिसे पार पाने के लिए लोकतंत्र हमें बातचीत का रास्ता सुझाता है. जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों का सबसे पहला और सबसे आखिरी दायित्व क्या है ? यही ना कि वे लोगों से उनके मुद्दे की बात कहें और सुनें. जनता के चुने हुए प्रतिनिधि लोगों और किसानों के प्रति जवाबदेह हैं. अदालतें तो सही और गलत का फैसला करने के लिए होती हैं, ये बताने के लिए होती हैं कि कानून के हिसाब से क्या ठीक है और क्या बेठीक. अदालत का काम किसी मसले पर लेन-देन करना नहीं होता जबकि मध्यस्थता और बातचीत में यह लेन-देन, किसी नुक्ते पर अपनी बात मनवा लेना और किसी नुक्ते पर सामने वाले की बात मान लेना, बड़ा अहम हिस्सा होता है. इसी कारण अदालतें संविधान के प्रति जवाबदेह होती हैं जनता के प्रति नहीं. यही लोकतांत्रिक रीति से चलाये जा रहे शासन का तर्क है. बातचीत की मेज को सरकार के पाले से खींचकर अदालत के आंगन में ले जाने का मतलब है, लोकतंत्र के बुनियादी तर्क को उलट देना.
सरकार ने अपनी सिरदर्दी का सामान सुप्रीम कोर्ट के माथे पर डाल दिया और सुप्रीम कोर्ट ने भी बड़ी खुशी-खुशी इस परेशानी को अपने हाथ में ले लिया. जाहिर है, किसान ये देख-समझ रहे थे सो उनका प्रतिरोध-भाव और बढ़ा है. गौर करें कि अदालत की ओर अपने कदमों का रुख किसने किया? तीन कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसान अपने मसले को लेकर गुहार लगाने अदालत नहीं पहुंचे. सरकार भी स्वयं अदालत के दरवाजे तक नहीं गई, जहां तक कागजी लिखत-पढ़त का सवाल है, ये बात कही जा सकती है कि सरकार मसले को लेकर अदलात का दरवाजा खटखटाने नहीं गई. तीन कृषि कानूनों की संवैधानिकता पर प्रश्न उठाते हुए अदालत में कुछ लोगों ने अर्जी जरूर लगायी, वे चाहते थे कि ये कानून निरस्त कर दिये जायें. लेकिन, गौर कीजिए कि अर्जी लगाने वाले ऐसे किसी व्यक्ति ने ये मांग नहीं रखी कि मसले पर अदालत दोनों पक्षों (सरकार और किसान-संगठन) के बीच मध्यस्थता करे. लेकिन, अदालत तो जैसे पहले ही दिन से इसी ताक में थी कि कब मौका मिले और कब वह दोनों के पक्षों के बीच मध्यस्थता की राह निकाले. प्रदर्शनकारी किसानों को जगह से हटाने की गुहार अदालत से लगायी गई थी. अदालत ने ऐसी गुहार को नकार में जवाब में दिया तो अच्छा किया. अदालत ने बिल्कुल ठीक याद दिलाया कि शांतिपूर्ण तरीके से विरोध-प्रदर्शन करना किसानों का अधिकार है. जहां तक तीन कृषि कानूनों की संवैधानिकता के प्रश्न पर विचार करने का सवाल है, अदालत ने उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया. तर्क दिया कि किसी सही वक्त पर तीन कानूनों की संवैधानिकता के मसले पर विचार किया जायेगा.
सुप्रीम कोर्ट चाहती तो तीन कानूनों की संवैधानिकता पर विचार करने की प्रक्रिया को गति दे सकती थी, वह एक कालक्रम सुझा सकती थी, कह सकती थी कि इतने या उतने वक्त के भीतर तीन कानूनों की संवैधानिकता पर विचार कर लिया जायेगा. ऐसा करना ही सबसे ज्यादा ठीक होता. लेकिन अदालत ने ऐसा करना उचित नहीं समझा. इसकी जगह अदालत ने एक अलग ही रास्ता चुना, एक ऐसा रास्ता जिसके लिए ना तो किसी ने अदालत से गुहार लगायी थी और जो ना खुद अदालत के वैधानिक अधिकार के दायरे में आता है. किसान-संगठन चौकस थे, उन्होंने अदालत की ऐसी किसी पहल को लेकर शुरुआत से ही ना करने का मन बना लिया था.
टेक्नोक्रेट मध्यस्थता नहीं कर सकते
किसान-संगठनों की दूसरी आपत्ति इस बात को लेकर थी कि विशेषज्ञों की जो समिति बनायी जा रही है उसमें रखा किन लोगों को जा रहा है और किस तर्ज पर रखा जा रहा है. दिसंबर माह की एक तारीख को जो बातचीज हुई थी उसमें मोदी सरकार ने विशेषज्ञों की मध्यस्थता में मसले को सुलझाने का विचार रखा था लेकिन किसान-संगठनों ने सरकार के इस विचार को वहीं के वहीं ठुकरा दिया. बेशक ऐसी समिति की एक उपयोगिता है, वह कानून के किसी नुक्ते का मतलब समझा जा सकती है, ये बता सकती है कि तीन कृषि कानूनों को नीतिगत रूप कैसे दिया जाये या फिर ये कि जो तीन कृषि कानून लाये गये हैं उनके वित्तीय निहितार्थ क्या हैं. ऐसी समिति बीच-बचाव की राह कैसे और किन बातों को लेकर तैयार हो, इसका भी फार्मूला सुझा सकती है बशर्ते ऐसे किसी फार्मूले की बुनियादी रूपरेखा पर दोनों पक्षों की रजामंदी हो लेकिन विषय के विशेशज्ञों की समिति स्वयं ऐसे किसी फार्मूले की बुनियादी रूपरेखा तय नहीं कर सकती. मध्यस्थता तकनीकशाहों (टेक्नोक्रेटस्) के मार्फत नहीं की जाती. मध्यस्थता नॉन-स्पेशलिस्ट यानि अपने फन के उस्ताद नहीं बल्कि ऐसे लोग करते हैं जिन्हें किसी मसले की आमतौर पर जानकारी हो और जिनकी न्याय-बुद्धि पर दोनों पक्षों का भरपूर भरोसा हो. किसी तीसरे व्यक्ति पर मसले को लेकर आमने-सामने खड़े दोनों पक्षों का भरोसा होना मध्यस्थता की अनिवार्य शर्त है. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने विशेषज्ञों की समिति बनाते वक्त मध्यस्थता के इस पहलू का ध्यान नहीं रखा.
तीन कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों के जमावड़े में 400 से ज्यादा किसान-संगठन शामिल हैं. दुष्यंत दवे और अन्य तीन वकील तो इस जमावड़े में शामिल सिर्फ आठ किसान-संगठनों की तरफ से अदालत में पैरवी कर रहे थे. लेकिन, दुष्यंत दवे और साथी वकीलों ने बड़ी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया और अदालत ने मसले के समाधान के लिए जो रास्ता सुझाया उससे अपने को दूर रखा.
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समिति का पक्षपात
इस सिलसिले की आखिर की बात ये कि किसी समिति का अच्छा होना इस बात पर निर्भर करता है कि उस समिति के सदस्य कितने अच्छे हैं. ये बात किसी से छिपी नहीं कि किसानों के मन में सुप्रीम कोर्ट के हाथो बनायी गई समिति को लेकर आशंकाएं थीं. अदालत का आदेश आया तो किसान की आशंका जैसे सच साबित हो गई. अदालत ने समिति के सदस्य के रूप में जिस रीति से चार लोगों का नाम लिया, वह पर्याप्त नहीं. नामों के चयन से पहले बहुत कुछ किया जाना चाहिए था. याद कीजिए, ये वही अदालत है जो सरकार को ये कहकर फटकार लगाती है कि तीन कृषि कानूनों को बनाते वक्त उसने कोई सलाह-मशविरा नहीं किया और फिर वही अदालत समिति के सदस्य के रूप में चार लोगों का चयन बड़े अपारदर्शी तरीके से कर लेती है. सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायधीशों तथा पी. साईनाथ सरीखे लोगों के नाम अदालत की फिजां में तैर रहे थे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे किसी नाम से गुपचुप किनाराकशी कर ली. कोई नहीं जानता कि समिति के सदस्य के रूप में जिन चार व्यक्तियों का चयन हुआ उनके नाम किसने सुझाये. ऐसे में अगर सदस्य के रूप में चयनित नामों से किसानों में निराशा है और वे इस पहलकदमी का उपहास उड़ा रहे हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं. कारण ये नहीं कि जिन चार लोगों का चयन हुआ है उनके सम्मानित होने पर कोई शुब्हा है बल्कि वजह ये है कि समिति के सदस्य के रूप में चयनित ये चार व्यक्ति तीन कृषि कानूनों को लेकर सरकारी पक्ष के सबसे बेहतरीन पैरोकारों में शामिल हैं. अदालत ने किसानों और सरकार के बीच मध्यस्थता के लिए ऐसी पक्षपाती समिति का चयन किया, ये खुद ही में आपत्तिजनक बात है.
कोई कह सकता है : थोड़ी देर के लिए तकनीकी नुक्तों को भूल जाइए, आप बस ये बताइए कि अगर सुप्रीम कोर्ट गतिरोध को खत्म करने के लिए कोई पहलकदमी करती है तो इसमें गलत क्या है? ठीक बात, गतिरोध खत्म करने के लिहाज से अदालत की पहलकदमी में कुछ भी गलत नहीं है बशर्ते अदालत संविधान और कानून की व्याख्या के लिहाज से जिस तरह शीर्ष पर है कुछ उसी तरह वह नैतिकता के भी ऊंचे सिंहासन पर विराजमान हो. नैतिकता का ऐसा ऊंचा आसन अपने कर्मों से अर्जित किया जाता है, कमाया जाता है, उसे हुक्मनामा सुनाकर हासिल नहीं किया जा सकता.
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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)
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