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Wednesday, 24 April, 2024
होममत-विमतमोदी सरकार को सशस्त्र बलों के कर्मियों में 10% की कटौती कर, 'घाटे' को भरने के लिए भर्ती नहीं करना चाहिए

मोदी सरकार को सशस्त्र बलों के कर्मियों में 10% की कटौती कर, ‘घाटे’ को भरने के लिए भर्ती नहीं करना चाहिए

सरकार और सेनाओं के लिए समय आ गया है कि वह सेना के आकार और उसके पेंशन बिल को कम करने के लिए समग्र सुधारों को लागू करने के अवसर का पूरा उपयोग करे.

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भारतीय सेना 10 दिसंबर 2021 को 1,02,955 सैनिकों की कमी महसूस कर रही थी. सेना से हर साल 60,000 सैनिक सेवानिवृत्त हो जाते हैं. अगर इस आंकड़े का भी हिसाब लिया जाए तो उपरोक्त आंकड़ों में अब तक 20,000 की संख्या और जुड़ गई होगी. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 22 मार्च 2022 को संसद को जानकारी दी कि पिछले दो वर्षों से कोविड महामारी के कारण सेना में भर्तियां स्थगित हैं.

आश्चर्य की बात यह है कि देश की उत्तरी सीमा पर मई 2020 से युद्ध जैसी स्थिति बनी होने के बावजूद सेना या रक्षा मंत्रालय ने सैनिकों की सेवानिवृत्ति पर रोक नहीं लगाई. प्रशिक्षण व्यवस्था की जो क्षमता है और प्रशिक्षण की जो वैधानिक अवधि तय की गई है उसे देखें तो सेवानिवृत्ति और भर्ती के बीच जब तक संतुलन बहाल किया जाएगा, 2022 के अंत तक 2 लाख सैनिकों की कमी पड़ जाएगी. हर साल भर्ती में 30 फीसदी की वृद्धि भी की गई तब भी कमी को पूरा करने में 6-7 साल लग जाएंगे.

बेरोजगारी का आज जो हाल है उसके मद्देनज़र युवाओं की ओर से मांग की जा रही है कि भर्तियां शुरू की जाएं और सबको समान अवसर देने के लिए भर्ती की ऊपरी उम्र सीमा दो साल बधाई जाए. हाल के विधानसभा चुनावों में यह एक चुनावी मुद्दा भी था.

सेनाएं और खासकर थलसेना लंबे समय से इस प्रयास में लगी है कि वेतन/पेंशन का बजट कम करने के लिए सेना का आकार किस तरह कम या संतुलित किया जाए. सेनाओं को 21वीं सदी के युद्ध के लिए एकीकृत/पुनर्गठित करने और आधुनिक बनाने के लिए जो सुधार किए जाने वाले हैं उनके तहत भी सैनिकों की संख्या कम करने की उम्मीद की जा रही है. पेंशन बजट में कमी के लिए जो दूसरे सुधार किए जाने वाले हैं उनमें अल्पकालिक भर्ती या ‘थ्री ईयर टूअर ऑफ ड्यूटी’ और सेंट्रल आर्म्ड फोर्सेज़ से अल्पकालिक भर्ती की भी व्यवस्था शामिल है.

सैनिकों की फिलहाल जो कमी हुई है वह सेनाओं को दीर्घकालिक सुधारों का अवसर भी उपलब्ध करा रही है.

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अवसर का लाभ उठाएं

21वीं सदी के युद्ध ऐसे होंगे जिनमें अत्याधुनिक सैन्य टेक्नोलॉजी से लैस चुस्त सेनाओं से फौरन जवाबी कार्रवाई करने की उम्मीद की जाएगी. यह खास तौर से इस उपमहादेश के लिए भी लागू है क्योंकि परमाणु हथियारों ने बड़े पैमाने पर पारंपरिक युद्ध को रोक दिया है. हमारे पास मझोले स्तर की सैन्य टेक्नोलॉजी है जो हमें गुणवत्ता से ज्यादा संख्या पर ज़ोर देने को मजबूर करती है. एक विकासशील अर्थव्यवस्था होने के नाते भारत अपने रक्षा बजट में भारी वृद्धि नहीं कर सकता. हम जबकि परिवर्तन की कोशिश कर रहे हैं, सैनिकों की कमी करने से बचा नहीं जा सकता.

इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विचार बिलकुल साफ है. 2014 में भाजपा जब सत्ता में आई थी उसके ठीक बाद 17 अक्टूबर 2014 को कम्बाइंड कमांडर्स कॉन्फ्रेंस में मोदी ने कहा था, ‘तात्कालिक से आगे, हम उस भविष्य का सामना कर रहे हैं जिसमें सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का कम ही अंदाजा लगाया जा सकेगा; नयी परिस्थितियां बनती रहेंगी और तेजी से बदलती रहेंगी; और तकनीकी परिवर्तनों की गति के अनुसार जवाब देना मुश्किल हो जाएगा… पूरे पैमाने पर युद्ध दुर्लभ हो जाएंगे… और युद्ध की अवधि भी छोटी होती जाएगी.’ मोदी ने कहा था कि अपनी सेनाओं में परिवर्तन लाना सबसे महत्वपूर्ण काम होगा.’

इसी कॉन्फ्रेंस को 15 दिसंबर 2015 को संबोधित करते हुए उन्होंने ज्यादा ज़ोर देकर कहा था कि ‘दुनिया बदल रही है, अर्थव्यवस्थाओं का चरित्र बदल रहा है और टेक्नोलॉजी का विकास हो रहा है, इसी के साथ युद्ध का स्वरूप और उसके लक्ष्य भी बदलेंगे… इसी के साथ, सेनाओं का आधुनिकीकरण और विस्तार एक कठिन और अनावश्यक लक्ष्य है. हमें ऐसी सेना चाहिए जो चुस्त, सक्रिय और टेक्नोलॉजी से संचालित हो, केवल मानवीय बहादुरी नहीं चाहिए. हमें तीव्र गति वाले युद्ध जीतने की क्षमता चाहिए, क्योंकि हमें लंबे समय तक चलने वाली लड़ाई लड़ने का मौका नहीं मिलेगा.’

केवड़िया में 6 मार्च 2021 को हुए पिछले कम्बाइंड कमांडर्स कॉन्फ्रेंस में मोदी ने राष्ट्रीय सुरक्षा की सैन्य और असैन्य, दोनों व्यवस्थाओं में कर्मचारियों की संख्या की संतुलित योजना पर फिर से ज़ोर दिया क्योंकि टेक्नोलॉजी का परिदृश्य बदल रहा है और भारतीय सेना को ‘भविष्य की सेना’ के रूप में विकसित करना जरूरी है.

राजनीतिक स्तर पर स्पष्टता होने के बावजूद रक्षा मंत्रालय और सेनाओं ने सेनाओं का आकार संतुलित/कम करने की दिशा में खास प्रगति नहीं की है. चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ और तीनों सेनाओं के अध्यक्षों ने कई अध्ययन करवाए हैं और कई प्रस्ताव सामने आए हैं, लेकिन सार्वजनिक तौर पर जो जानकारियां उपलब्ध हैं उनके अनुसार तो कुछ ठोस काम होने का अंदाजा नहीं लगता.

कारण स्पष्ट है. सरकार ने सुधारों को नहीं अपनाया है. रक्षा मंत्री के नेतृत्व में कोई संचालन समिति नहीं बनी है और न कोई संसदीय निगरानी रखी जा रही है. सुधारों को परंपरा से चिपके सेना के भरोसे छोड़ दिया गया है, जिससे यथास्थिति ही उजागर होती है. मानो इतना ही काफी नहीं था, तमाम प्रस्ताव आंतरिक या सेनाओं के बीच विवादों और सेना-नौकरशाही की पारंपरिक प्रतिद्वंद्विता में उलझ कर रह जाते हैं. एक संचालन समिति की देखरेख में सम्मिलित प्रयास किए जाएं तो इन सबसे बचा जा सकता है.

अटके हुए सुधारों की सूची लंबी है, जिनके तहत सेनाओं के आकार और उनके पेंशन बिल को कम किया जा सकता है. इनमें त्रि-सेवा एकीकरण शामिल है; ‘कम्बाइंड आर्म्स इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप्स’ के रूप में विशेष रूप से सेना का पुनर्गठन/पुनर्गठन; शॉर्ट सर्विस कमीशन के अधिकारियों के लिए सुधार और सेना में 50 फीसदी सैनिक अल्प अवधि के लिए बिना पेंशन की सुविधा के साथ भर्ती करना; ड्यूटी के शॉर्ट टर्म टूर के लिए ‘सीएपीएफ’ से अनुबंध के तहत भर्ती; गैरजरूरी कर्मियों की छंटनी करके सेनाओं के आकार को संतुलित/कम करना; सैनिकों की भर्ती के लिए शैक्षिक योग्यता का स्तर 10+2 का करना ताकि योग्य लोगों की भर्ती हो सके.

आगे का रास्ता

सरकार को तुरंत रणनीतिक समीक्षा करनी चाहिए ताकि परमाणु युद्ध की सीमा से नीचे टेक्नोलॉजी आधारित सीमित मगर तेज युद्ध लड़ने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति तैयार हो सके. यह निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया है, और इसके लिए सटीक डाटा उपलब्ध हैं. चीन के साथ पिछले दो साल से जारी तनाव और पाकिस्तान के साथ उसकी साठगांठ के अनुभवों और यूक्रेन में जारी युद्ध के सबक को भी ध्यान में रखना चाहिए.

राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के मुताबिक सेनाओं के स्तर और आकार का निर्धारण होगा. हमारे वर्तमान संगठन विकसित देशों की सेनाओं की तुलना में 25-30 फीसदी बड़े हैं. पहाड़ी इलाकों में हमारी सीमाओं पर विवाद की वजह से हमें ज्यादा सैनिकों वाली इन्फैन्ट्री यूनिटों की जरूरत है. फिर भी, 20-25 फीसदी कटौती को तार्किक लक्ष्य माना जा सकता है. सैनिकों की मौजूदा कमी के बावजूद सेनाओं ने ऑपरेशन संबंधी जरूरतों को पूरा किया, इससे यह बात सिद्ध होती है. ज्यादातर कटौती थल सेना में की जा सकती है.

2022 के अंत तक 2 लाख सैनिकों की जो कमी होगी वह सेना के मौजूदा आकार के करीब 15 प्रतिशत के बराबर होगी. इसके अलावा 10 फीसदी और कटौती का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है. भर्तियां शुरू करना राजनीतिक मजबूरी हो सकती है लेकिन वे सुधारों के तहत की जाने वाली कटौती के अनुरूप ही की जाएं.

सरकार और सेनाओं के लिए समय आ गया है कि वह चुनौती का सीधा मुक़ाबला करे, और भारतीय सेना के आकार और उसके पेंशन बिल को कम करने के लिए समग्र सुधारों को लागू करने के अवसर का पूरा उपयोग करे. प्रधानमंत्री मोदी के लिए यह अपनी विरासत छोड़ जाने के सवाल से जुड़ा मसला है. उन्होंने सेना के उच्चतम मंच पर खुद जो दिशा निर्देश दिए हैं उन्हें उनके तार्किक अंत तक पहुंचाने की भी जरूरत है.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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