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Sunday, 28 April, 2024
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सरकार ने आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के खाली पदों को भरा जरूर, मगर सदस्यों की उपयोगिता नहीं आंकी

न्यायपालिका और कार्यपालिका/विधायिका के बीच चल रही व्यापक तनातनी के ही एक हिस्से, इस विधेयक को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. इसके मूल में है उन विभिन्न ट्रिबुनलों पर संस्थागत नियंत्रण का मसला, जिन्हें हाइकोर्टों के ऊपर बड़ी संख्या में मुकदमों के बोझ से निजात दिलाने के लिए स्थापित किया गया है.

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नरेंद्र मोदी की सरकार ने आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल (एएफटी) में 11 न्यायिक और 12 प्रशासनिक सदस्यों की नियुक्ति की मंजूरी 15 नवंबर को दे दी. नियुक्ति का अधिकार ट्रिब्युनल रिफॉर्म्स बिल, 2021 में दर्ज अधिकारों और प्रक्रियाओं के तहत हासिल है. इस विधेयक को संसद के दोनों सदनों ने अगस्त 2021 में पास किया था.

न्यायपालिका और कार्यपालिका/विधायिका के बीच चल रही व्यापक तनातनी के ही एक हिस्से, इस विधेयक को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. इसके मूल में है उन विभिन्न ट्रिब्युनलों पर संस्थागत नियंत्रण का मसला, जिन्हें हाइकोर्टों के ऊपर बड़ी संख्या में मुकदमों के बोझ से निजात दिलाने के लिए स्थापित किया गया है. वैसे, इस मामले में व्यापक तनातनी के संदर्भ में ज़ोर एएफटी पर है.

फरवरी 2021 में एएफटी की 11 शाखाएं 18,829 मामलों को निबटाने में जुटी थीं, जिनमें दिल्ली के सबसे ज्यादा 5,553 मामले थे, चंडीगढ़ के 4,512 और जयपुर के 3,154 मामले थे. न्यायिक तथा प्रशासनिक सदस्यों की नियुक्ति में देरी ही मामले के निबटारे में देरी की मुख्य वजह है. हाल में 23 सदस्यों की नियुक्ति यही बताती है कि ट्रिब्युनल मंजूरशुदा कुल 34 सदस्यों की जगह केवल 11 सदस्यों से काम चला रहा था. यह स्थिति 2017 से थी, और इसकी वजह यह बताई जा रही थी कि ट्रिब्युनलों से संबंधित कानूनी मामले सुप्रीम कोर्ट में चल रहे थे.

ट्रिब्युनलों की मौजूदा कानूनी स्थिति का स्रोत 1 जून 2017 को जारी गज़ट अधिसूचना है, जब वित्त मंत्रालय ने वित्त अधिनियम, 2017 की धारा 184 के तहत प्राप्त अधिकारों का उपयोग करके ट्रिब्युनल, अपीली ट्रिब्युनल एवं अन्य प्राधिकरणों (के सदस्यों की योग्यता, अनुभव, और अन्य शर्तों) के नियमों, 2020 को अधिसूचित किया जो सभी ट्रिब्युनलों के अध्यक्षों तथा सदस्यों पर लागू होते हैं.

इसी के साथ एएफटी अधिनियम 2007 को संशोधित किया गया, और ट्रिब्युनल के अध्यक्ष और दूसरे सदस्यों की योग्यता, नियुक्ति, सेवा शर्तें, वेतन-भत्ते, बरखास्तगी के नियम वित्त अधिनियम, 2017 की धारा 184 के प्रावधानों के तहत संचालित किया जाने लगा. इन प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई.

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कोर्ट ने नवंबर 2019 में अन्तरिम आदेश पास किया की ट्रिब्युनलों में नियुक्तियां मौजूदा क़ानूनों के तहत की जाएंगी, न की वित्त अधिनियम, 2017 के तहत निश्चित नियमों के आधार पर. कोर्ट ने कहा कि ये नियम न्यायिक स्वतंत्रता की जरूरतों को पूरा नहीं करते, जिन्हें ट्रिब्युनलों के गठन, सदस्यों के कार्यकाल की सुरक्षा और खोज व चयन समिति के स्वरूप के बारे में पूर्व के न्यायिक फैसलों में निर्धारित किया गया था, क्योंकि इसके कारण न्यायपालिका के वर्चस्व में कमी आती है और यह अधिकारों के विभाजन के सिद्धांत का उल्लंघन है.


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नये नियम

नये नियम फरवरी 2020 में अधिसूचित किए गए. उन्हें फिर से इस कानूनी आधार पर चुनौती दी गई कि वे सुप्रीम कोर्ट के पिछले सुझावों से मेल नहीं खाते. उसने कुछ संशोधन सुझाए थे, मसलन कार्यकाल पांच का करने का सुझाव. फरवरी 2021 में, जब मामला अभी भी विचाराधीन था तब ट्रिब्युनल्स सुधार (तार्किकीकरण एवं सेवा शर्तें) विधेयक, 2021 को संसद में पेश किया गया, और जबकि यह संसद के सत्र की समाप्ति के समय भी लंबित था, अप्रैल 2021 में एक अध्यादेश जारी किया गया और उसे जून 2021 में अधिसूचित कर दिया गया.

लेकिन कानूनी चुनौती दिए जाने के बाद कोर्ट ने इस अध्यादेश के कई पहलुओं को रद्द कर दिया, खासकर कार्यकाल, खोज व चयन समिति के स्वरूप, चयन प्रक्रिया, सदस्यों की न्यूनतम आयु आदि वाले पहलुओं को. उल्लेखनीय यह है कि उसने उस कमिटी द्वारा हर एक पद के लिए दो नाम की सिफ़ारिश करने के, और खासकर तीन महीने के अंदर चयन का फैसला करने को लेकर ज़िम्मेदारी न लेने के प्रावधानों को हटा दिया.

अगस्त 2021 में ट्रिब्युनल सुधार विधेयक पास किया गया और इसने अध्यादेश का स्थान ले लिया. इसमें कुछ वे प्रावधान शामिल किए गए जो अध्यादेश में भी थे लेकिन जिन्हें पहले रद्द कर दिया गया था. उसके बाद विधेयक को चुनौती दी गई है, और आश्चर्य नहीं कि सुप्रीम कोर्ट अध्यादेश वाले उन प्रावधानों को रद्द कर दे जिन्हें विधेयक में शामिल किया गया है.

जहां तक एएफटी की बात है, उल्लेखनीय मसला इसके सदस्यों की पात्रता बदलने का है. 1 जून 2017 की बजट अधिसूचना से लागू हुआ बदलाव प्रशासनिक सदस्यों की पात्रता में नयी शर्तें जोड़ने से संबंधित है, जबकि पहले केवल फौजी सदस्य चुने जाते थे.

अब किए गए बदलाव के तहत उन्हें भी चुना जा सकता है ‘जो सक्षम, ईमानदार और रसूख वाला है और अर्थशास्त्र, व्यापार, वाणिज्या, कानून, वित्त, एकाउंटेंसी, मैनेजमेंट, उद्योग, सार्वजनिक मामलों, प्रशासन, आदि का कम-से-कम 20 साल का अनुभव रखता हो, और उन्हें भी केंद्र सरकार की राय में किसी दूसरे मामले में भी एएफटी के लिए उपयोगी हो.’


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उभरते मुद्दे

पात्रता का व्यापक दायरा खास तौर से सिविल सेवाओं के काडर के लिए दरवाजा खोलता है, इसलिए आश्चर्य नहीं कि इंडियन डिफेंस एकाउंट्स सर्विस (आइडीएएस) के अधिकारी नयी सूची में शामिल किया गया है, जबकि उसका अनुभव केवल वित्तीय नियमन तक सीमित है. लेकिन इससे कुछ दूसरे मुद्दे भी उभरते हैं. पहला यह कि पहले जो तय किया गया था कि प्रशासनिक सदस्य सेना वालों को ही बनाया जाएगा उसका आधार यह था कि ट्रिब्युनल सेना के मामलों के लिए है. इसलिए सेना वालों के विशेष अनुभव और ज्ञान ट्रिब्युनल का काम चलाने में काफी उपयोगी होंगे.

यह विश्वास करना मुश्किल है कि इस तरह के काम ऐसे व्यक्ति आकर हैं जिन्हें ऐसे अनुभव नहीं हैं, चाहे वे दूसरे किसी क्षेत्र में कितने भी निपुण क्यों न रहे हों. एएफटी विशिष्ट प्रकार का ट्रिब्युनल है. पुरानी कहावत है कि ‘जिसकी बंदरिया, वही नचावे…’ इसे उलटकर पूछें कि क्या सेना के अनुभवी और ज्ञानी अधिकारियों को दूसरे विभागों के ट्रिब्युनलों में सदस्य बनाया जाएगा?

दूसरे, अपनाई गई चयन प्रक्रिया में खोज तथा चयन समिति एक पद के लिए दो नाम सुझाती है तब सिविल सेवा के किसी अफसर के लिए किसी सेना अधिकारी को पीछे छोड़ना मुश्किल होगा अगर मुख्य कसौटी ट्रिब्युनल को उपयोगी बनाना ही है. यह चयन प्रक्रिया पर और रक्षा मंत्रालय द्वारा अपने प्रभाव के उपयोग पर सवाल खड़े करेगा.

तीसरे, चयन समिति का सदस्य-सचिव रक्षा सचिव के पास अब कोई वोट नहीं होगा. यह सकारात्मक कदम है लेकिन यह अभी साबित नहीं हुआ है, खासकर आइडीएएस अधिकारी के चयन के मद्देनजर. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि एएफटी के सभी खाली पदों पर नियुक्ति लंबित मामलों को कम करने में कुछ हद तक मददगार होगी. लेकिन यह निश्चित ही न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच व्यापक तनाव के साये में होगा. यह साया चयन प्रक्रिया के अगले चरण को रोक सकता है, बशर्ते न्यायपालिका और कार्यपालिका संतुलन नहीं कायम कर लेतीं. प्रतिकूल संकेतों के बीच समाधान के लिए आशावादी होना जरूरी है.

(अनुवाद: अशोक कुमार)
(संपादनः आशा शाह)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं)


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