क्या नरेंद्र मोदी को इस बात के लिए दोषी ठहराया जा सकता है कि लद्दाख में वास्तविक सीमा रेखा के इर्द-गिर्द चीन के साथ टक्कर में उन्होंने पहले हथियार डाल दिए और उसे जमीन पर कब्जे के मामले में अपना हाथ ऊपर रखने दिया? तात्कालिक संदर्भ के मद्देनजर तो उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि सीमा पर इंफ्रास्ट्रक्चर में तमाम सुधारों और सेना की क्षमताओं में वृद्धि के बावजूद भारत में वह ताकत नहीं है कि चीन को उन इलाकों से खदेड़ सके जिन पर वह पूरी फौजी ताकत के साथ काबिज है. सेना ने एक बार चीन को बढ़त लेने दे दी और उसे अग्रिम मोर्चों पर तैनात अपनी सेना को तोपखाने और बख्तरबंद गाड़ियों की ताकत से लैस करने दिया, तब उसका कब्जा कानूनन नब्बे प्रतिशत हो गया.
अब यह नुकसान खुफिया तंत्र की नाकामी के कारण हुआ या उस क्षेत्र में तैनात भारतीय सेना की चौकसी में चूक के कारण हुआ, प्रधानमंत्री गैर-बराबरी भरी लेन-देन पर राजी होने के सिवा अब शायद ही कुछ कर सकते थे. नेहरू की तरह ‘चीनियों को खदेड़ डालो!’ वाला आदेश जारी करने से ताकतवर दुश्मन की ओर से मुश्किल और बढ़ ही सकती थी. इसलिए, मोदी ने जमीनी हकीकत को ही तवज्जो दी और बहादुरी दिखाने की जगह विवेक का दामन थामा और साथ ही यह संकल्प लिया कि आगे कभी भारत जरूर बदला लेगा.
असली समस्या यह है कि ऐसा संकल्प मोदी और उनके पूर्ववर्तियों में नहीं दिखा. रक्षा बजट की चमड़ी उधेड़ी जाती रही है. मोदी के दो-दो वित्त मंत्री रक्षा मंत्री भी रहे. लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. सेना कह चुकी है कि उसके साजोसामान प्रायः पुराने पड़ चुके हैं. नौसेना ने पिछले दशक में अग्रिम मोर्चों पर तैनात की जा सकने वाले 20 से भी कम युद्धपोत और पनडुब्बियां कमीशन कर पाई है. यही हाल रहा तो वह अपनी योजना के मुताबिक कभी अपना आकार नहीं बना पाएगी. जहां तक वायुसेना की बात है, चीन इस मामले में हमसे बीस है, उसके पास ज्यादा दूरी तक मार करने वाली मिसाइलें, बेहतर रडार और रडार से बच निकलने में सक्षम विमान हैं.
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आपकी अर्थव्यवस्था जब चीन की अर्थव्यवस्था के केवल पांचवें हिस्से के बराबर है, तब इस सबकी भरपाई कर पाना मुश्किल ही है. लेकिन इस असंतुलन को कम तीखा किया जा सकता था और हथियारों को हासिल करने का ज्यादा यथार्थपरक कार्यक्रम बनाया जा सकता था. यह भी गौरतलब है कि जिस पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था भारतीय अर्थव्यवस्था के नौवें हिस्से के बराबर है उसके मुक़ाबले भी हमारी युद्ध क्षमता सीमित है, जो 2001 और 2008 में पाकिस्तानी उकसावे के दौरान जाहिर हो गई थी. पिछले साल पुलवामा में जैसे को तैसा करने के बावजूद भारत को ही अपना एक विमान गंवाना पड़ा, जबकि पाकिस्तानी वायुसेना का बजट हमारे बजट से काफी छोटा है.
जो भी हो, साधन के मामले में सीमाएं वास्तविक हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती. भारत को रक्षा पर ही नहीं, स्वास्थ्य और शिक्षा पर भी ज्यादा खर्च करने की जरूरत है. इसे परिवहन और संचार जैसे बुनियादी ढांचे में भी भारी सुधार करने की जरूरत है. लेकिन अपने पहले कार्यकाल में मोदी ने जिस तरह पेंशन में वृद्धि करके अनुपात को बिगाड़ा, उसकी जगह पैसे को ज्यादा समझदारी से खर्च किया जा सकता था.
प्रतिरक्षा की क्षमताएं रातोरात नहीं हासिल की जा सकतीं, इसमें दशकों नहीं तो कई साल लगते हैं. 1971 में जब जनरल सैम मानेकशॉ ने कथित रूप से यह कहा था कि ‘हम हमेशा तैयार हैं’, तब भी हकीकत यही थी कि भारत को पूर्वी यूरोप आदि देशों से हड़बड़ी में पुराने टैंक और दूसरे साजोसामान मंगवाकर युद्ध की तैयारी करने में नौ महीने लग गए थे. 1962 में नेहरू को हताश होकर अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी को पत्र लिखकर लड़ाकू विमानों का एक पूरा स्क्वाड्रन मांगना पड़ा था. आज, छह दशक बाद भी सरकार को हड़बड़ी में खरीद के ऑर्डर देने पड़ रहे हैं.
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प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले साल में मोदी ने वादा किया था कि प्रतिरक्षा साजोसामान की कुल आपूर्ति में देसी सप्लाइ का अनुपात 40 से बढ़ाकर 70 प्रतिशत किया जाएगा. यह तो हुआ नहीं मगर आज आत्मनिर्भरता की बातें की जा रही हैं. मनोहर पर्रिकर जब रक्षा मंत्री थे, उन्होंने कहा था कि हवाई बेड़े में सक्रिय सुखोई विमानों का प्रतिशत 50 से बढ़ाकर 75 किया जाएगा. खबर है कि इसमें कुछ सुधार तो हुआ है मगर वह वादा पूरा नहीं हुआ है. निजी शिपयार्डों और पोत निर्माताओं को मौका देने का वादा किया गया था मगर एक समय पर और तय बजट में काम करके देने वाला एक सक्षम शिपयार्ड ऑर्डर का इंतज़ार ही कर रहा है. जबकि फिजूलखर्च को ऑर्डर मिल रहे हैं. इस तरह, नौसेना इंतज़ार ही कर रही है. बड़े रक्षा बजट और बड़ी सेनाओं वाले देशों में भारत केवल सऊदी अरब के बराबर है, जो आयात पर निर्भर रहते हैं. अब बदला लेना है तो आयात पर रोक लगाने से आगे जाने और दीर्घकालिक गड़बड़ियों को दूर करने की जरूरत है.
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Ek baat bataiye , 1947 se 2000 tak congress sarkar ne kya kiya tha in sabme
Kya sirf modiji ka naam lena galat nahi hoga
Is jagah par hume pm ya bharat likhna behtar nahi hota
Aapka media china walo se kamjor h…
Sir aap kab is desh ke liye aacha bolenge sarm kro bakwas channel bakwas sampadak Sari history h tumhari kab the print bni kisliye bni
आपके लेख को पढ़कर लगता है कि आपको इस तरह के लेख के एवज में चीन से कोई पारितोषिक प्राप्त होता है। बुरा बुरा बोलते कब खुद आदमी बुरा बन जाता है उसे पता नही चलता। वही हाल आपका और आपके इस मीडिया के है।
Jis writer ne ese likha hai wo saala Cong. Party ka LG rha hai
Apna desh aaj ki date me chaina America jaise desh ke sath lad skta hai
kis chutiya KO aisa lag ta h Ki bharat kamjor h sale chin k tattoo ye Chinese app ka aur desh Drohi kA ejenda h Chinese to piche bhag gye aab tum log Ki Bari jai hind
बिल्कुल बकवास आप ग्लोबल टाइम्स चाइना कि भाषा बोल रहे है,क्या वही से कृपा आनी शुरू हो गई है ।।