scorecardresearch
Sunday, 28 April, 2024
होममत-विमतमोदी यह साबित नहीं कर सकते कि भारत 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. डेटा उनका साथ नहीं देगा

मोदी यह साबित नहीं कर सकते कि भारत 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. डेटा उनका साथ नहीं देगा

आर्थिक जनगणना नौ साल पुरानी है, रोज़गार सर्वेक्षण 12 साल पुराना है, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक भी 12 साल पुराना है.

Text Size:

अगली बार जब कोई, यहां तक ​​कि प्रधान मंत्री भी, यह दावा करे कि भारत सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है या यह दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, तो उनसे इसे साबित करने के लिए कहें. मोदी भी नहीं कर पाएंगे. सरकारी आंकड़ें जो आप पर फेंके जाएंगे, वह लगभग सभी गलत होंगे, और उन पर किया गया विश्लेषण सिर्फ एक अनुमान होगा. इसका कारण कोई जटिल सांख्यिकीय तर्क नहीं है. यह बहुत सरल है: डेटा पुराना है और काफी हद तक अर्थहीन है. हमारे पास भारतीय अर्थव्यवस्था का नया वास्तविक डेटा लगभग 12 साल पुराना है.

अमृत ​​काल लक्ष्य हो सकता है, लेकिन हमें अपनी शुरुआत करने का बिंदु भी नहीं पता है.


यह भी पढ़ें: बिल्डरों के ‘बकाया’ के बावजूद घर खरीदारों को लिए ‘तत्काल’ रजिस्ट्रेशन और कब्ज़ा दिया जाए: कमेटी


पुराना…

आइए, प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) जैसा अवधारणात्मक रूप से कुछ सरल लें- इसे मूल रूप से देश के कुल उत्पादन को जनसंख्या से विभाजित किया जाता है. यह एक औसत भारतीय की संपत्ति को दर्शाने के लिए एक व्यापक प्रॉक्सी के रूप में काम करता है. गणना करने में काफी आसानी होनी चाहिए, है ना? आइए न्यूमैरेटर से शुरू करें, जो जीडीपी का आंकड़ा है.

जब ऑवरऑल जीडीपी मापने की बात आती है तो संभवतः कृषि क्षेत्र के पास सबसे अप-टू-डेट डेटा होता है, और वह भी लगभग दो साल की देरी से आता है. कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय में अर्थशास्त्र और सांख्यिकी निदेशालय किसी भी वर्ष के लिए भारत के कृषि उत्पादन पर डेटा इकट्टा करते हैं, और संग्रह के लगभग दो साल बाद अंतिम आंकड़े आने से पहले, चार अग्रिम अनुमान जारी करता है.

अगर कृषि हमारे जीडीपी का बड़ा हिस्सा होता तो सिर्फ दो साल की इतनी ‘छोटी’ देरी ठीक हो सकती थी. लेकिन 20 प्रतिशत से कम हिस्सेदारी के साथ, कृषि डेटा की सटीकता अहम होते हुए भी पूरी जीडीपी संख्या की गुणवत्ता में सुधार नहीं करती है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

यहीं से, यह और भी जटिल हो जाता है.

मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को संगठित क्षेत्र और असंगठित क्षेत्र में विभाजित किया गया है. संगठित क्षेत्र का डेटा उद्योगों के वार्षिक सर्वे से आता था – लेकिन थोड़े अंतराल के साथ. अब यह कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय के जरिए संकलित किए गए अधिक अप-टू-डेट एमसीए-21 डेटाबेस से आता है. यहां वह समस्या नहीं है. असंगठित क्षेत्र है. 

परिभाषा के अनुसार, असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र को मापना मुश्किल है क्योंकि ऐसे कोई औपचारिक मेट्रिक्स नहीं है जिनके माध्यम से ऐसा ऑडिट हो सके. अगर आप इसे प्रभावी ढंग से माप सकें, तो यह ‘असंगठित’ या ‘अनौपचारिक’ नहीं होगा. बल्कि, यह ‘असंगठित’ इसीलिए ही है क्योंकि आप इसे माप नहीं सकते हैं.

नीति निर्माताओं ने समय-समय पर राष्ट्रव्यापी सर्वे करके इस समस्या से निजात पा ली है. अनौपचारिक क्षेत्र के सर्वे के निष्कर्षों का उपयोग करते हुए, सरकार में सांख्यिकीविद एक अनुपात पर पहुंचते हैं जिसे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के साइज के अनुमान पर पहुंचने के लिए औपचारिक क्षेत्र के साइज से गुणा किया जाता है.

तो, मान लीजिए कि औपचारिक क्षेत्र का साइज 100 रुपए है, और वे जिस अनुपात पर पहुंचे हैं वह 1.25 है. तब अनौपचारिक क्षेत्र का अनुमान 125 रुपए (100 x 1.25 रुपए) होगा, जो आपको मापे जा रहे क्षेत्रों का कुल आर्थिक उत्पादन देता है —225 रुपए (100 + 125 रुपए.)

आदर्श रूप से, यह अच्छा काम करेगा. हालांकि, ऐसे समय में जब अनौपचारिक क्षेत्र का नया सर्वे – अनिगमित उद्यम सर्वे – लगभग 13 साल पहले का है, नोटबंदी, जीएसटी और कोविड से काफी पहले, हम वास्तव में नहीं जानते कि अनौपचारिक क्षेत्र अभी किस साइज में है.

फिर हम सर्विसेज पर आते हैं. व्यापार, होटल, रेस्तरां, रियल एस्टेट, सभी का जीडीपी और बड़े पैमाने पर अनौपचारिक क्षेत्रों में अहम योगदान है, जो सभी 2011-12 या उसके आसपास किए गए सर्वे पर आधारित हैं.

ज़रा सोचिए कि 2011 के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था में कितना बड़ा बदलाव आया है – सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से. असमानता बढ़ी है, लेकिन बुनियादी ज़रूरतों तक पहुंच बनाने में सुधार हुआ है. नोटबंदी ने रातों-रात सिस्टम से 86 फीसदी नकदी खत्म कर दी. जीएसटी के साथ अप्रत्यक्ष कर प्रणाली (इनडायरेक्ट टैक्स सिस्टम) में आमूल-चूल परिवर्तन किया गया. एक महामारी ने अर्थव्यवस्था को इस तरह बाधित किया जैसा पहले कभी नहीं हुई थी.

और फिर अनगिनत छोटे-छोटे बदलाव होते हैं जो समय के साथ बड़े हो जाते हैं. मूवी थिएटर उद्योग बहुत नाटकीय रूप से बदल गया है. उद्यमियों की एक पूरी पीढ़ी दो मिनट के वीडियो बनाकर पैसा कमा रही हैं, किसी भी प्रकार की संपत्ति निर्माण की बात तो भूल ही जाइए. इनमें से कोई भी या पिछले दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था में हुए लाखों अन्य बदलावों को डेटा में कैद नहीं किया जा रहा है.

तो यह प्रति व्यक्ति जीडीपी फॉर्मूले का अंश है – इसका लगभग हर पहलू पुराना है. भाजक (डिनोमिनेटर) भारत की जनसंख्या है, जिसे भारत की जनगणना द्वारा मापा जाता है. नया कब किया गया? आपका अनुमान, 12 साल पहले का होगा!


यह भी पढ़ें: ‘मामा’ ने किया बलात्कार, दीं गर्भपात की गोलियां – दिल्ली के अधिकारी ने नाबालिग के साथ बार बार किया रेप


…और जो मापा नहीं गया

तो, अगर जीडीपी संख्या और जनसंख्या का साइज दोनों एक दशक से अधिक पुराने हैं, तो जब कोई अर्थव्यवस्था के साइज या प्रति व्यक्ति आय के बारे में बात करता है, तो वे किस बारे में बात कर रहे हैं? यह बिल्कुल वर्तमान नहीं होगा.

हमारे डेटा से जुड़े मुद्दे यहीं खत्म नहीं होते हैं. हर किसी के दिमाग में दूसरी बड़ी संख्या महंगाई है. जैसा कि इस विश्लेषण से पता चलता है, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स) – जिसका इस्तेमाल भारतीय रिज़र्व बैंक महंगाई को मापने के लिए करता है – लोगों पर बढ़ती कीमतों के प्रभाव को सही मायने में मापने में बहुत कम है. भोजन का महत्व बहुत अधिक है, जबकि ईंधन और स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन और संचार जैसी सेवाओं का महत्व बहुत कम है.

तो, आपके पास ऐसी स्थिति है जहां गेहूं की कीमत में बदलाव से समग्र मुद्रास्फीति दर प्रभावित होती है, भले ही 80 करोड़ भारतीयों को वर्तमान में यह मुफ्त मिलता है. या आपके सामने ऐसी स्थिति है जहां वैश्विक तेल की कीमतों के जवाब में ईंधन की कीमतें बढ़ जाती हैं, लेकिन समग्र मुद्रास्फीति दर मुश्किल से इसे दर्ज करती है. और, जब मिडिल क्लास तेजी से निजी अस्पतालों और निजी स्कूलों (ट्यूशन कक्षाओं को नहीं भूलना चाहिए) को प्राथमिकता दे रहा है, स्वास्थ्य और शिक्षा पर यह बढ़ा हुआ खर्च शामिल नहीं हो रहा है.

हकीकत में, नवीनतम उपयोग योग्य घरेलू उपभोग व्यय सर्वे केवल वर्ष 2011-12 के लिए उपलब्ध होने के कारण, हमारे पास वास्तव में सिर्फ एक अस्पष्ट विचार है कि लोग अपना पैसा कैसे खर्च कर रहे हैं और कितना कमा रहे हैं.

अमेरिका जैसे विकसित देशों के लिए अपने सीपीआई को लगभग 40 वर्षों तक अपडेट नहीं करना ठीक है – हालांकि वहां भी संशोधन का समय हो सकता है – क्योंकि इन बुनियादी आर्थिक संकेतकों में बदलाव की दर भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था की तुलना में बहुत कम है. यहां एक दशक बहुत लंबा समय है और इस दौरान बहुत कुछ बदल सकता है.

हालांकि, सिर्फ यही नहीं, कई कम-ज्ञात लेकिन प्रमुख सर्वे जो अर्थव्यवस्था के बारे में हमारे बुनियादी अनुमानों को रेखांकित करते हैं, उन्हें वर्षों से अपडेट नहीं किया गया है. आर्थिक जनगणना नौ साल पुरानी है, रोजगार सर्वे 12 साल पुराना है, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक का आधार वर्ष भी यही है. अर्थव्यवस्था में विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन और उपयोग के बीच संबंध को मापने के लिए महत्वपूर्ण इनपुट-आउटपुट टेबल्स 15 साल पुरानी हैं.

सरकार अमृत काल आने और 2047 तक भारत के एक विकसित राष्ट्र बनने के बारे में जो चाहे कह सकती है, लेकिन अगर वह गंभीरता से इस प्रक्षेप पथ को हासिल करना चाहती है, तो उसे सबसे पहले यह स्थापित करना होगा कि हम अभी कहां खड़े हैं.

विचार व्यक्तिगत हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: ‘राज्यों पर थोपी गई नीति’, कर्नाटक में केंद्र की NEP होगी खत्म, मसौदा तैयार करेगी सिद्धारमैया सरकार


 

share & View comments