भारत का मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य अभूतपूर्व है. लगता है अभी भी भाजपा समेत सारे राजनीतिक दल लोकसभा चुनाव के जनादेश से हतप्रभ हैं.
सचमुच 2019 का चुनाव अपनी तरह का इकलौता साबित हुआ है– इसकी तुलना के लिए न तो कोई अन्य चुनाव है, न ही कोई विशिष्ट पैटर्न. ये पहली बार नहीं है कि परिणामों ने पार्टियों और चुनाव विशेषज्ञों को हक्का-बक्का कर छोड़ा हो; चुनावों पर नज़र रखने वाले प्रेक्षक पिछले चार दशकों के राजनीतिक भूकंपों से परिचित होंगे. पर सामाजिक और राजनीतिक ताकतें इस बार जिस तरह आकार ले रही हैं वो वास्तव में नया है.
भाजपा का वर्चस्व अब पूरा हो चुका है. महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और दिल्ली के आगामी विधानसभा चुनाव शायद कुछ दिलचस्पी जगाएं, पर परिणाम दीवार पर लिखी इबारत की तरह स्पष्ट हैं. मीडिया शायद बनावटी रोमांच पैदा करने की कोशिश करे, और सोशल मीडिया पर इसे लेकर थोड़ा शोरगुल मचे, पर रहस्य जैसी कोई बात नहीं है.
पर इसका ये भी मतलब नहीं है कि तथाकथित प्रेक्षकों और विशेषज्ञों में सब कुछ समझने की काबिलियत आ गई है. अभी पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का खूब ‘मनोविश्लेषण’ किया गया है, पर इस बारे में शायद ही कोई चिंतन हुआ है कि अगले पांच वर्ष कैसे रहेंगे.
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क्या अतीत से भविष्य का पता चल सकता है?
मार्च 1971 में इंदिरा गांधी की शानदार जीत ने भारतीय राजनीति के चरित्र को बदल डाला था. ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ इंदिरा गांधी की भारी जीत के संदर्भ में पहली बार ‘लहर’ शब्द राजनीतिक शब्दावली का हिस्सा बना था. उसके आठ महीने बाद बांग्लादेश का मुक्ति युद्ध हुआ, जिसने इंदिरा गांधी के कद को और बड़ा कर दिया.
पर इसके मात्र दो वर्ष बाद, कच्चे तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में भारी वृद्धि से भारत आर्थिक संकट के चपेट में आ गया. स्थितियों की गंभीरता को बढ़ाने का काम किया ‘सदी के सबसे बड़े सूखे’ से पैदा व्यापक अकाल ने.
इसके बाद बड़े स्तर पर सामाजिक अशांति फैली, और इस कारण राष्ट्रीय पटल पर जयप्रकाश नारायण (जेपी) का पदार्पण हुआ. जेपी और इंदिरा के बीच राजनीतिक टकराव, और सरकार व उभरती ताकतों के बीच संरचनात्मक गतिरोध ने आपातकाल को जन्म दिया.
इंदिरा के अधिनायकवाद की तुलना अक्सर मोदी की स्वेच्छाचारी शैली से की जाती है. पर दोनों नेताओं, और दोनों के समय में भी, भारी अंतर है.
इंदिरा और संजय गांधी की रायबरेली और अमेठी में मार्च 1977 की पराजय चौंकाने वाली थी, पर उससे राजनीति में कोई भारी बदलाव नहीं आया. जेपी आंदोलन और जनता पार्टी दोनों ही व्यापक कांग्रेसी संस्कृति में ढले थे. जयप्रकाश ने स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत को निरंतरता दी, जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, और जगजीवन राम ने कांग्रेसी चरित्र को प्रतिविंबित किया.
वैसे तो युवाओं में जेपी आंदोलन की लोकप्रियता की तुलना आज मोदी के लिए दिखने वाले उन्माद से नहीं की जा सकती, पर दोनों के बीच एक समानता बड़े बदलावों के लिए पुराने रिवाजों को छोड़ने और अज्ञात को गले लगाने की ललक के रूप में देखी जा सकती है. आज बड़ी संख्या में भारतीय युवा शायद एक उग्र ‘मुस्लिम विरोधी हिंदुत्व’ से प्रेरित हों, पर जीवन की उनकी आकांक्षाएं भौतिक हैं, न कि आध्यात्मिक.
उन्हें अयोध्या में राम मंदिर के विचार से बहकाया, या ध्रुवीकृत भावनाओं से प्रभावित किया जा सकता हो, पर उन्माद सही अर्थों में ज्वार की तरह होता है. ज्वार की ऊंची लहरें भय पैदा करती हैं, पर उनके पीछे हटना शुरू होते ही तटीय इलाकों में उनके द्वारा किए गए नुकसान और व्यवधान हमारी आंखों के सामने होते हैं.
नए उद्देश्यों की दरकार
आगामी विधानसभा चुनाव संभव हैं. एक संधिकाल साबित हो, पर उनके संपन्न होते ही आर्थिक तूफान और वित्तीय-संस्थागत विध्वंस साफ दिखने लगेंगे. वाड्राओं और चिदंबरमों पर प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग के छापे थोड़ी आत्मसंतुष्टि भले ही दें, पर वे बैंकों की डूबी पूंजी के पहाड़ को नहीं छुपा पाएंगे.
कांग्रेस या नेहरू-गांधी परिवार पर और हमले कर भाजपा राजनीतिक तूफानों से खुद को नहीं बचा पाएगी, क्योंकि वैसे भी कांग्रेस को राजनीतिक चुनौती के रूप में पेश नहीं किया जा सकता. इस समय पार्टी की स्थिति कोमा से दोबारा होश में आने पर भ्रमित और हैरान मरीज जैसी है.
हिंदुत्व के सहारे या भारतीय मुसलमानों पर दोष मढ़ कर या फिर पाकिस्तान पर आतंकवाद के प्रायोजन का आरोप लगा कर संभावित आर्थिक आपदा से नहीं निपटा जा सकता है.
‘लव जिहाद’ या ‘राष्ट्रविरोधी’ बुद्धिजीवियों के खिलाफ आंदोलन दीर्घकाल में असरहीन हो जाएंगे. शायद पश्चिम बंगाल के चुनाव हिंसक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का अवसर मुहैया कराएं, पर उसका प्रभाव लंबे समय तक नहीं रहने वाला.
नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्राइक जैसी शॉक थेरेपी भी सुर्खियां नहीं बना पाएंगी. विजय माल्या या नीरव मोदी को भारत वापस लाने से अर्णब गोस्वामियों और रजत शर्माओं को कुछ नाटकीय क्षण भले ही मिल जाएं, पर पिटी खबरों के दर्शकों की संख्या लगातार कम होती जाएगी.
नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अजेय नए ‘हिंदू सम्राटों’ की जोड़ी के समक्ष ध्यान बंटाने के लिए कांग्रेस, राहुल गांधी, हिंदुत्व और पाकिस्तान जैसी हेल्पलाइनें नहीं होंगी. सुर्खियों के प्रबंधन या नाटकीय विदेशी दौरों में उनकी ‘दक्षता’ रोमांच पैदा करने में नाकाम रहेगी.
ज्ञात और अज्ञात
जो भी हो, भाजपा विभाजित नहीं होगी. विभिन्न संस्थानों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की पकड़ बनी रहेगी. चुनाव आयोग दब्बू बना रहेगा. न्यायपालिका सहयोगी और जवाबदार बनी रहेगी, जैसा कि मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री के बीच हाल के संवाद से स्पष्ट है. रिज़र्व बैंक ब्याज़ दर कम करने या नहीं करने को लेकर सहयोग करता रहेगा. केंद्रीय खुफिया एजेंसी (सीबीआई) ईडी और आयकर विभाग के तरह सहयोगी बनी रहेगी. मीडिया, आमतौर पर, सानिध्य में पड़ा रहेगा.
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लेकिन विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप क्या कदम उठाते हैं और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की परिस्थितियों का भारत के आयात-निर्यात पर क्या असर पड़ता है. पाकिस्तान और सरकार समर्थित पाकिस्तानी चरमपंथी क्या करेंगे और भारत के जवाबी कदम क्या होंगे. हमारे पड़ोस में क्या कुछ होगा और चीन की गतिविधियों का दुनिया और भारत पर क्या असर पड़ेगा.
अराजकता की आशंका को नरेंद्र मोदी के संवाद कौशल, अमित शाह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की निष्ठुर चालों या विदेश मंत्री एस. जयशंकर की कूटनीतिक कलाबाज़ियों से भी दूर नहीं भगाया जा सकता है.
देश एक अनिश्चित भविष्य की राह पर है, भले ही इसके अतीत को पुनर्निर्मित किया जा रहा हो. शायद इसी कारण राजनीतिक वर्ग और विशेषज्ञ किंकर्तव्यविमूढ़ नज़र आ रहे हैं. वे भी बिना चिराग एक अंधेरी गुफा में दाखिल हो चुके हैं.
(लेखक कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य और पूर्व संपादक हैं. प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)
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