एक आम धारणा यह है कि आर्थिक वृद्धि पर संकट अचानक पिछले कुछ महीने में आया है. कुछ हद तक यह हुआ भी है— उदाहरण के लिए, 11 महीने पहले आइएल ऐंड एफएस में गिरावट इसकी वजह हो सकती है. उसी समय से ऑटो सेक्टर में बिक्री घटने लगी थी. इसी तरह, अप्रैल में जेट एयरलाइन के पतन के बाद हवाई भाड़े बढ़ गए और हवाई यात्राओं में हो रही तेज वृद्धि पर ब्रेक लग गया. यानी एक तरह से, जीडीपी के जो मौजूदा आंकड़े हैं वे अनुमानित ही हैं— और ये बाज़ार के विभिन्न खंडों में हो रही हरकतों के नतीजे से उभरे हैं, इसलिए उनका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता.
फिर भी, कई आंकड़े कहते हैं कि आज के संकट का पूर्वानुमान लगाया जा सकता था. मोदी सरकार के पहले पांच साल में ‘कैपिटलाइन’ ने जिन गैर-वित्तीय कंपनियों पर नज़र रखी थी उनके द्वारा की गई बिक्री में मामूली 34.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई (जो उस दौर में मुद्रास्फीति दर से कम थी). सबसे गौर करने लायक बात यह है कि उनकी परिसंपत्तियों में महज 3.5 प्रतिशत का इजाफा हुआ. ऐसा लगता है कि यह दिवालिया घोषित करने की प्रक्रिया के असर से हुआ, क्योंकि 2018-19 में निजी क्षेत्र की परिसंपत्तियों में गिरावट आई. ये वृद्धि दरें 7.5 की वृद्धि दर के सरकारी दावे की पुष्टि नहीं करतीं.
समस्या की जड़ में क्या है यह तब स्पष्ट हो जाता है जब आप पिछले पांच वर्षों में सुधार दर्ज करने वाले एकमात्र कॉर्पोरेट आंकड़े— उधार-इक्विटी अनुपात— पर नज़र डालते हैं. निजी क्षेत्र के लिए यह आंकड़ा 1.13 से घटकर 0.80 हो गया, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के लिए यह अनुपात लगभग स्थिर रहा, यह 0.74 से 0.77 पर ही पहुंचा. अगर व्यापार जगत उधार को कम करने पर ज़ोर दे रहा है तो वह निवेश पर शायद ही ध्यान देगा. यह यूपीए राज में निवेश संबंधी गलतियों की कीमत है, जिसे पहले ही देख लेना चाहिए था. लेकिन वित्त क्षेत्र में सुधार न करने, टेलिकॉम के प्रति भेदभावपूर्ण नीति, रुपये की ऊंची कीमत, आदि-आदि के लिए मोदी-1 सरकार को दोषी ठहराया जाएगा.
वैसे, पूर्वानुमान उस हैरतअंगेज आंकड़े का नहीं लगाया जा सकता, जो आयकर के नए नियम बनाने के लिए गठित टास्कफोर्स की 2018 की रिपोर्ट में दफन है. यह रिपोर्ट कहती है कि 2016-17 में कॉर्पोरेट निवेश इससे पहले के ~10.33 खरब से 60 प्रतिशत घटकर ~4.25 खरब पर पहुंच गया (ये आंकड़े ‘हिन्दू’ में पूजा महरोत्रा की रिपोर्ट में प्रमुखता से दर्ज किए गए हैं). बेशक वह नोटबंदी वाला साल था. बाद के वर्षों के लिए यह आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. लेकिन ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ द्वारा जुटाए गए आंकड़े यही दर्शाते हैं कि कॉर्पोरेट निवेश प्रोजेक्ट कई साल के निचले स्तर पर ही स्थिर हैं.
उधर, रियल एस्टेट सेक्टर अगर परेशान है तो अपनी ज़्यादातर समस्याओं के लिए वह खुद ही जिम्मेदार है. पारंपरिक तौर पर नकदी से चलने वाले इस कारोबार पर नोटबंदी और वित्तीय उथलपुथल, दोनों ने बुरा असर डाला है. एचएसबीसी ने वित्तीय प्रवृत्तियों का जो ब्यौरा तैयार किया है उस पर गौर करें. 2013-14 में इस सेक्टर को 61 प्रतिशत नया फंड बैंकों से आया, मगर 2017-18 तक यह धीरे-धीरे शून्य पर पहुंच गया क्योंकि बैंकों के बैलेंस शीट बुरी हालत में थे. इस सुस्ती को गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों ने पकड़ा, लेकिन हाल के महीनों में इन कंपनियों ने आइएल ऐंड एफएस मामले के बाद अपने फंडिंग के स्रोत सूखने के कारण उधार देना बंद कर दिया.
अंत में, अब जबकि बिस्किटों की बिक्री भी प्रभावित होती दिख रही है, इस प्रवृत्ति पर कृषि और गैर-कृषि रोजगारों में वास्तविक (मुद्रास्फीति का हिसाब रखने के बाद) ग्रामीण मजदूरी के संदर्भ में विचार करें. 2015-17 के तीन कैलेंडर वर्षों में यह मजदूरी 1 प्रतिशत से कम की दर से बढ़ी, और पिछले 18 महीनों में 0.8 प्रतिशत से भी कम की दर से. ग्रामीण मांग में कमी होनी ही थी.
सरकार ने कुछ नीतिगत कदमों की घोषणा की है लेकिन इसकी वित्तीय हालत मुश्किल में है. इस संदर्भ में जीएसटी पर ‘सीएजी’ रिपोर्ट साफ-साफ बताती है कि मोदी-1 सरकार ने सुधारों की जो पहली कोशिश की वह विफल रही, और राजस्व संग्रह के मामले में आगे भी निराश करती रहेगी. अब मोदी-2 सरकार को इसके कारण हुए नुकसान को रोकने पर और मोदी-1 सरकार तथा यूपीए-1-2 सरकारों द्वारा बाकी छोड़े गए काम पर ध्यान देना होगा. इस बीच कठिन वृद्धिदरों को हासिल करने पर ज़ोर देना पिछली भूलों को और गहरा ही करेगा. भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने लक्ष्य घटाने होंगे, और मौजूदा गर्त से निकलने के उपायों पर गंभीरता से सोचना होगा.
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