अपने परमाणु हथियारों के आधुनिकीकरण की मुहिम में भारत ने दो बड़े मुकाम हासिल कर लिए हैं. पहला मुकाम मार्च में हासिल किया गया जब मल्टीपल इंडिपेंडेंटली टार्गेटेबल रीइंट्री व्हीकल (‘एमआईआरवी’) टेक्नोलॉजी को अपनाया गया और इसके बाद 1,000-2,000 किमी तक मार करने वाली अग्नि-प्राइम बैलिस्टिक मिसाइल का 3 अप्रैल को सफल परीक्षण किया गया. ‘एमआईआरवी’ टेक्नोलॉजी के सफल परीक्षणों ने भारत, चीन और पाकिस्तान के बीच परमाणु हथियारों की होड़ की आशंका तो बढ़ा ही दी है, दूसरे परमाणु शक्तिसंपन्न देशों के बीच भी वैश्विक स्तर पर ऐसी होड़ बढ़ने का खतरा पैदा हो गया है.
अमेरिकी वैज्ञानिकों के संघ (एफएएस) की एक रिपोर्ट में कहा गया है: “भारत सरकार टेक्नोलॉजी के मामले में अपनी उपलब्धि पर जश्न मना सकती है, लेकिन ‘एमआईआरवी’ क्षमता में विस्तार परमाणु हथियारों को लेकर विश्वव्यापी व्यापक चिंता का मामला है, जो उथल-पुथल मचाने वाली ‘एमआईआरवी’ वाली मिसाइलों के कारण परमाणु हथियारों की बढ़ती होड़ के संकेत दे रहा है.” इस विचार की प्रतिध्वनि भारत के पूर्व नौसेना अध्यक्ष एडमिरल अरुण प्रकाश के इस बयान में सुनाई दी, जिसमें उन्होंने पनडुब्बी से दागी जाने वाली भारतीय बैलिस्टिक मिसाइलों (एसएलबीएम) के साथ ‘एमआईआरवी’ टेक्नोलॉजी को जोड़ने की वकालत की.
शुरू में ‘एमआईआरवी’ का विकास 1960 के दशक में किया गया था, जिसने मिसाइल को हज़ार किमी दूर कई ठिकानों पर मार करने की सुविधा प्रदान की. सबसे पहले अमेरिका ने एसएलबीएम और इंटर कोंटिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइलों (आईसीबीएम) पर ‘एमआईआरवी’ को तैनात किया. इसके तुरंत बाद सोवियत संघ ने यह किया. शीतयुद्ध के दौरान ‘एमआईआरवी’ ने हथियारों की होड़ बढ़ाई और अमेरिका, रूस के पास परमाणु ‘वॉरहेड्स’ की संख्या बेहिसाब बढ़ गई, 1980 के दशक में यह करीब 70,000 हो गई. आज अमेरिका, फ्रांस, और ब्रिटेन के पास ‘एमआईआरवी’ केवल एसएलबीएम पर तैनात हैं. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, अमेरिका अब शायद आइसीबीएम पर ‘एमआईआरवी’ को तैनात करने जा रहा है. 2017 में पाकिस्तान ने ‘अबाबील’ मिसाइलों पर ‘एमआईआरवी’ का परीक्षण करने की घोषणा की थी.
शीतयुद्ध के दौर में 1972 में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच जो ‘एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल संधि’ हुई थी वह हथियारों पर नियंत्रण लगाने की पहल का मजबूत आधार थी जिसमें बैलिस्टिक मिसाइलों की तैनाती को सीमित करने का लक्ष्य रखा गया था और इसके कारण दोनों महाशक्तियों पर और ज्यादा परमाणु हथियारों की तैनाती करने का दबाव कम हुआ था, लेकिन 2001 में अमेरिका इस संधि से अलग हो गया और हथियारों की होड़ फिर बढ़ गई, परमाणु शक्तियों ने बैलिस्टिक मिसाइल वाली डिफेंस (बीएमडी) सिस्टम बनाने में अपनी ताकत लगाई. ज़ाहिर है, इसके कारण ऐसी सिस्टम का विकास हुआ जो बीएमडी सिस्टम को भेद सके.
‘एमआईआरवी’ स्वाभाविक पसंद बन गया और इसके बाद रूस तथा दूसरे देशों ने इंटरकोंटिनेंटल हाइपरसोनिक ग्लाइडर, परमाणु शक्ति वाली क्रूज़ मिसाइल और टोर्पीडो जैसी डेलीवरी सिस्टम का विकास किया. भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता बढ़ती गई और इसके साथ हथियारों पर नियंत्रण की न्यू स्टार्ट ट्रीटी (जिसे रूस ने स्थगित कर दिया) जैसी कई संधियों की, जिन्होंने ‘वॉरहेड्स’ की संख्या पर लगाम लगाया. विफलता के बाद परमाणु हथियारों की होड़ बेकाबू हो गई है. इसने शस्त्र नियंत्रण को लेकर इस विरोधाभास को उजागर कर दिया है कि जब आपके पास यह होता है तब आपको इसकी ज़रूरत नहीं होती और जब आपको इसकी ज़रूरत होती है तब यह आपके पास नहीं होता.
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मनुष्य के हाथ में परमाणु हथियार
परमाणु हथियारों से खतरा खुद उनके कारण नहीं होता बल्कि उस मान्यता के कारण होता है जिसे संबंधित देशों के जानकार स्वरूप प्रदान करते हैं. उदाहरण के लिए स्थिरता के मसले को लें, जिसे परमाणु शक्ति के प्रभावी होने के लिए ज़रूरी माना जाता है. स्थिरता का आधार आपसी कमज़ोरी के जरिए तैयार किया जाता है यानी जब किसी परमाणु शक्ति के खिलाफ परमाणु हथियार प्रयोग किया जाता है तब उसके जवाब में स्वाभाविक है कि भारी नुकसान झेलना पड़ेगा. परमाणु हथियारों की विनाशकारी शक्ति के मद्देनज़र यह कल्पना करना कठिन होता है कि जो मसला दांव पर लगा है वह ऐसे खतरे को बुलावा देगा जो संबंधित खतरों को बर्दाश्त कर लेगा.
जब ज्यादा परमाणु शक्तियों ने ‘एमआईआरवी’ का इस्तेमाल बढ़ा दिया इस उपक्रम के साथ जुड़ी मान्यता संभवतः आपसी कमज़ोरी को मजबूत करने पर आधारित है, लेकिन प्रतिद्वंद्वी के लिए, इसे ऐसी क्षमता के रूप में लिया जा सकता है जिसके तहत पहले हमले में ही उसकी जवाबी कार्रवाई की अधिकांश क्षमता पंगु हो जाए. कार्रवाई और जवाबी कार्रवाई के चक्र के कारण स्थिरता को खतरा पहुंचता है क्योंकि ज्यादा संख्या में हथियारों को हाई अलर्ट पर रखना पड़ता है ताकि अचानक हुए पहले हमले को झेला जा सके. कोई संकट या तनाव न होने के बावजूद अचानक किया गया पहला हमला मनुष्य की उस कल्पना का मुख्य उदाहरण है जो अमूर्त और अपने भीतर से पैदा हुए डर के कारण आकार लेती है.
ऊपरी स्तर पर परमाणु हमला प्रतिद्वंद्वी के परमाणु हथियारों को नाकाम करने के पहले हमले के रूप में हो सकता है. लेकिन परमाणु शक्तियों के पास जितनी संख्या में ये हथियार होते हैं उसके मद्देनज़र पहले हमले के तौर पर जीतने परमाणु विस्फोटों की जरूरत पड़ेगी उसके चलते एक ‘परमाणु शीतकाल’ आ सकता है, जो भारत, चीन, पाकिस्तान जैसे देशों के मामले में पूरे उपमहादेश को ही नहीं हमलावर को भी अपनी चपेट में ले सकता है. यह मौत के डर से खुदकशी करने जैसा होगा.
निचले स्तर पर, परमाणु युद्ध कम नुकसान देने वाले हथियारों से शुरू किया जा सकता है. लेकिन यह इससे प्रभावित होने वाले पक्ष की जवाब देने की क्षमता को कुछ हद तक बनाए रख सकता है और यह अनुमान लगाना मुश्किल होगा कि जवाबी कार्रवाई कैसी होगी. परमाणु युद्ध में सिद्धांततः जैसे को तैसा जवाब दिया जा सकता है, लेकिन कोई नहीं कह सकता कि पहले परमाणु हमले के बाद क्या होगा. परमाणु हथियारों से संबंधित रणनीति इन आशंकाओं से हमेशा जूझती रही है और इस उम्मीद पर अटकी रही है कि ये आशंकाएं परमाणु सीमा को लांघने से रोकती रहेंगी और जवाबी कार्रवाई का डर हमलावर को रोकता रहेगा.
इनके अलावा, परमाणु टकराव किसी संकट के दौरान (जब परमाणु हथियारों को हाई अलर्ट पर रखा गया हो) गलत संचार, गलत फैसले और गलत धारणा जैसे मानवीय उपक्रम के कारण शुरू हो सकता है.
पहला प्रयोग न करने की नीति का असर
केवल भारत और चीन ही ऐसी दो शक्तियां हैं जो ‘नो फर्स्ट यूज़’ (एनएफयू) नीति पर कायम हैं. अपनी-अपनी डिलीवरी सिस्टम में ‘एमआईआरवी’ को शामिल करने के बाद ‘वॉरहेड्स’ की संख्या में तेज़ वृद्धि के बावजूद किसी देश को अचानक किए जाने वाले पहले परमाणु हमले का डर पालने की ज़रूरत नहीं है. संख्याओं में असमानता के कारण चीन को अमेरिका से पहले परमाणु हमले का डर हो सकता है, लेकिन अमेरिका को ऐसा डर पालने की ज़रूरत नहीं है. अमेरिका अपनी ‘बीएमडी’ क्षमता को बढ़ाने में लगा है, तो चीन अपनी बीएमडी की मारक क्षमता को ‘एमआईआरवी’ के अलावा हाईपर ग्लाइड व्हीकल्स (एचजीवी) जैसी आधुनिक डेलीवरी सिस्टम की मदद से बढ़ाने की कोशिश कर सकता है. इसी तरह, भारत भी चीन तथा पाकिस्तान के मद्देनजर ऐसा कर सकता है, लेकिन चीन और भारत चूंकि ‘एनएफयू’ नीति पर कायम हैं, तो अस्तित्व और प्रतिकार के मामले में विश्वसनीयता मजबूत होती है और ‘एफएएस’ की रिपोर्ट के मुताबिक स्थिरता कमजोर नहीं होती.
भारत जैसे ‘एनएफयू’ शक्ति के लिए एसएलबीएम पर ‘एमआईआरवी’ की तैनाती परमाणु क्षमता को मजबूत करने का सबसे अच्छा उपाय होगा. इसलिए भारत के भावी एसएसबीएन को ‘एमआईआरवी’ मिसाइलों से मजबूती देना ज़रूरी होगा, लेकिन इसका नतीजा भारत के ‘वॉरहेड्स’ की संख्या में अनावश्यक वृद्धि के रूप में नहीं सामने आना चाहिए. इस सिद्धांत को अपनाने की ज़रूरत नहीं होगी कि परमाणु हथियार राजनीतिक हथियार हैं. इसलिए यहां पैसे बचाने वाला फौजी तर्क नहीं लागू होगा. इसकी जगह, वर्चस्व कायम करने के लिए संभावित प्रतिद्वंद्वियों के बड़े शहरों पर एक-दो परमाणु हमले डराने के लिए काफी माने जाते हैं.
फौजी सोच के लिए, पहले हमला झेलना और तब जवाब देना ताकत के इस्तेमाल के बारे में इसके संस्कार के विपरीत है. अगर यह ‘फौजी सोच’ भारत के राजनीतिक आकाओं के दिमाग पर हावी हुई, तो भारत एक भ्रम के पीछे ही चल पड़ेगा और यह कोई लाभ नहीं दिलाएगा.
परमाणु हथियारों के मामले में, जैसा कि इसके परमाणु सिद्धांत में कहा गया है, पश्चिमी देशों के विपरीत भारत का सोच ‘फौजी सोच’ से दूर ही रहा है. अधिकतर परमाणु शक्तियों के मामले में जो दिख रहा है उसी के अनुरूप दूसरे देशों का राजनीतिक नेतृत्व जबकि ‘फौजी सोच’ के आगे आत्म समर्पण कर रहा है, भारत को अपने सोच पर कायम रहना चाहिए.
(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका एक्स हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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