काबा का चक्कर लगाने के रिवाज ‘तवाफ़’ से लेकर खुद उमरा (तीर्थयात्रा) तक, मक्का में सबकुछ ठप है. मदीना में पैगंबर मोहम्मद के दफनाए जाने के स्थल की तीर्थयात्रा भी रोक लगा दी गई है. संभव है, वार्षिक हज भी स्थगित कर दी जाए. अनेकों मस्जिदें जुमे की नमाज़ स्थगित कर चुकी हैं. कुवैत में विशेष अज़ानों में लोगों से घर पर ही इबादत करने का आग्रह किया जा रहा है. मौलवी लोग लोगों को वायरस से बचाने के लिए मस्जिदों में जाकर अल्लाह से दुआ करने का दावा नहीं कर रहे.
ऐसा इसलिए है क्योंकि धर्म के ठेकेदारों को अच्छी तरह मालूम है कि अल्लाह हमें नोवेल कोरोनावायरस से बचाने नहीं आएंगे. कोई बचा सकता है तो वे हैं वैज्ञानिक, जो टीके बनाने में, उपचार ढूंढने में व्यस्त हैं.
धर्म पर भरोसा करने वाले बेवकूफों को इस घटनाक्रम से सर्वाधिक विस्मित होना चाहिए, उन्हें सबसे अधिक सवाल पूछने चाहिए. वे लोग जो कोई सवाल पूछे बिना झुंड बनाकर भेड़चाल की प्रवृति दिखाते हैं. ना उन्हें ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण चाहिए, ना ही तार्किकता और मुक्त चिंतन में उनका भरोसा है. क्या आज उन्हें ये बात नहीं कचोटती होगी कि जिन धार्मिक संस्थाओं को बीमारी के मद्देनज़र उनकी सहायता के लिए आगे आना चाहिए था, वे अपने दरवाज़े बंद कर चुके हैं? क्या धार्मिक संस्थाओं का असली मकसद आमलोगों की मदद करना नहीं है?
बहुतों के लिए भगवान संरक्षक के समान हैं, और सलामती के लिए वे उनकी सालों भर पूजा करते हैं. लेकिन जब मानवता संकट में होती है, तो आमतौर पर सबसे पहले मैदान छोड़ने वाले भगवान ही होते हैं.
वैटिकन से लेकर मंदिरों तक, भगवान मैदान छोड़ रहे हैं
कोरोनावायरस कैथोलिकों के पवित्रतम तीर्थ वैटिकन में भी पाया जा चुका है. माना जाता है कि पोप भगवान से संवाद कर सकते हैं. तो फिर वो इस समय ऐसा कर क्यों नहीं रहे? यहां तक कि वह दैव संपर्क से किसी चमत्कारी दवा की जानकारी तक ला पाने में असमर्थ हैं. इसके बजाय वायरस का प्रकोप फैलने के डर से वैटिकन की हालत खराब है और पोप जनता के सामने उपस्थित होने से भी बच रहे हैं.
वैटिकन में अनेक ईसाई धार्मिक त्योहार मनाए जाते हैं. पर होली वीक, गुडफ्राइडे और ईस्टर समेत सारे भावी कार्यक्रम रद्द कर दिए गए हैं और धार्मिक सभाओं पर रोक लगा दी गई है.
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हिंदू मंदिरों के ब्राह्मण पुजारी मुंह पर मास्क डाले घूम रहे हैं. इतना ही नहीं, कुछ मंदिरों में तो देवी-देवताओं के चेहरों पर भी मास्क लगा दिए गए हैं. हिंदू महासभा ने गोमूत्र पार्टी का आयोजन किया है क्योंकि उसे लगता है कि गोमूत्र का सेवन कोविड-19 से रक्षा कर सकता है. कुछ लोग शरीर पर गाय का गोबर पोत रहे हैं, और उससे नहा तक रहे हैं क्योंकि वे गोबर को वायरस का प्रतिरोधक मानते हैं. धर्म और अंधविश्वास आमतौर पर एक-दूसरे के पूरक होते हैं. तारापीठ बंद है, वहां फूल, आशीर्वाद और चरणामृत लेने वालों की भीड़ नहीं है. तिरुपति और शिरडी साई बाबा के मंदिर भी पाबंदियों के घेरे में हैं. शाम की पूजा और आरती को बड़ी स्क्रीनों पर दिखाया जा रहा है.
क्या ये सब अविश्वसनीय नहीं है? तो फिर भगवान कहां हैं? क्या धार्मिक लोगों के मन में ये सवाल नहीं उठता?
धार्मिक स्थलों का क्या मतलब है?
सरकारों को तमाम धार्मिक संस्थाओं को दिए जाने वाले अनुदान और सब्सिडी पर रोक लगानी चाहिए. दुनिया भर के पोप, पुजारी, मौलवी और अन्य धार्मिक नेता लोगों की गाढ़ी कमाई खाते हैं, लेकिन जरूरत के समय वे उनके किसी काम का नहीं निकलते हैं. इसके बजाय वे लोगों को झूठ और अवैज्ञानिक तथ्यों की घुट्टी पिलाते हैं, बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार करते हैं और समय-समय पर स्त्री-विरोधी फतवे जारी करते हैं. भला ऐसे संस्थान किस काम के हैं? इन सारे धर्मों ने नुकसान पहुंचाने के अलावा सदियों से और किया ही क्या है? महिलाओं के निरंतर उत्पीड़न, दंगे, विभाजन, खून-खराबे और नफरत फैलाने के अलावा इनका और क्या काम रहा है?
धार्मिक स्थलों को संग्रहालयों, विज्ञान अकादमियों, प्रयोगशालाओं और कला विद्यालयों में बदल दिया जाना चाहिए ताकि उनका जनता की भलाई के काम में इस्तेमाल हो सके. प्रकृति ने बार-बार दिखलाया है और विज्ञान ने बार-बार साबित किया है कि कोई भगवान नहीं है और धर्म एक परिकथा मात्र है. हालांकि बहुत से लोग, विशेष रूप से दुनिया के अधिक विकसित हिस्सों में, खुद को धर्म के चंगुल से निकालने में कामयाब रहे हैं, पर जहां कहीं भी गरीबी है, सामाजिक असमानताएं हैं, स्त्री-विरोध और बर्बरता है, वहां भगवान और पूजा-पाठ पर अतिनिर्भरता देखी जा सकती है.
भगवान के लिए, विज्ञान को मानें
अपने विकासवाद के सिद्धांत के जरिए भगवान के अस्तित्व को चार्ल्स डार्विन द्वारा नकारे जाने के लगभग 160 साल बीत चुके हैं. मनुष्य किसी विधाता द्वारा निर्मित नहीं हैं, बल्कि उसका वानरों से विकास हुआ है. डार्विन से बहुत पहले 16वीं शताब्दी में ही गैलीलियो और उनके पूर्ववर्ती कॉपरनिकस ने अंतरिक्ष एवं ब्रह्मांड की बाइबिल में वर्णित धारणाओं को गलत साबित कर दिया था. इसके बावजूद, दुनिया में अधिकांश लोग परमात्मा को मानते रहे हैं. उनके अदृश्य भगवान अदृश्य ही बने हुए हैं, उनके अस्तित्व का कोई प्रमाण आज तक नहीं मिला है, लेकिन अंधविश्वास सतत कायम रहा.
और अब जब कोरोनावायरस महामारी एक व्यक्ति से दूसरे में और एक देश से दूसरे में फैलता जा रहा है, अधिकांश धार्मिक सभाएं और समारोह स्थगित कर दिए गए हैं. अस्वस्थता और बीमारियों से सुरक्षा पाने के लिए आमतौर पर अपने आस-पास के मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों और अन्य पूजा स्थलों की शरण में जाते रहे लोगों के लिए इस समय अस्पतालों और क्वारेंटाइन केंद्रों के अलावा और कोई ठौर नहीं बचा है.
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इसलिए आज बिल्कुल स्पष्ट हो चुका तथ्य ये है: रोगों का उपचार अल्लाह, देवता या भगवान नहीं करते, बल्कि वैज्ञानिक हमें उनसे निजात दिलाते हैं. मनुष्यों की रक्षा अलौकिक शक्तियां नहीं करतीं, बल्कि उन्हें अन्य मनुष्य ही बचाते हैं. धार्मिक लोगों को इस समय अपने-अपने देवताओं की कृपा का नहीं, बल्कि एक टीके का इंतजार है.
धार्मिक पागलपन से छुटकारा पाने और तार्किकता को गले लगाने का भला इससे बढ़िया वक्त क्या होगा.
(लेखिका एक कहानीकार और टिप्पणीकार हैं. ये उनके निजी विचार हैं)
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प्रकृति के साधनों का उपयोग जब आदमी आपसी दुश्मनी व बैर भाव से करते है तो उस का नतीजा एहि होगा जैसे atam बम बनाया तो क्या परिबाम हुआ आदमी जब प्रकृति को चुनोती देता ह तो प्रकृति के प्रकोप के आगे बेबस हो जाता है जैसे आज।धर्म जीने का तरीका ,प्रेम, भाईचारा ,आत्मीयता,के द्वारा प्रकृति के संतुलन को बनाये रखता है।आज का मानव दिनप्रतिदिन अमानवीय व्यवहार की ओर बढ़ रहा हैं।क्या यही विकाश ह जो आज आदमी बोना होगया है ।आज उसके कृत्यों का फल ही तो मिल रहा हैं।आज कितनी हिंसा ,मार काट ,ओर अमानवीय कृत्य, ये विज्ञान का विकाश है। या विज्ञान के अंत की कहानी है।ye mere niji vichar h kishi ki bhavna ko desh pahuchane ka koi vichar nahi hai??
असल में भारत में कई सम्प्रदाय ऐसे हैं जो जगतकर्ता अर्थात ईश्वर अल्लाह गॉड को नहीं मानते जैसे जैन,बौद्ध एवं नास्तिक | जबकि धूर्त पाखण्डी लोगों ने जैन और बौद्ध सम्प्रदाय के सब्द(शब्द) भगवान को चालाकी से ईश्वर शब्द की जगह बदल लिया है क्योंकि ये धूर्त ईश्वर आत्मा का राग अलापते रहते हैं जिससे अज्ञानी जनसामान्य को ईश्वर और आत्मा के चक्कर में उलझाकर और काव्य में उलझी हुई भाषा बनाकर बैठकर आराम से पेटपूजा करते रहें एवं जातिवाद-वर्णवाद को जन्म से अपने बच्चों के लिये आरक्षित करते हुए स्वयं उच्च-जाति होने का ढोल पीटते रहें एवं बहुसंख्य जनसामान्य को अपने से छोटी जाति घोषित करके मजे लूटते रहें | बुद्ध को भगवान इसलिए कहा जाता है क्योंकि –
भग्ग रागो भग्ग दोसो भग्ग मोहो भग्गास च पापका धम्मा , इतपि सो भगवां अरहं सम्मासम्बुद्धो ||
अर्थात
जिन सम्यक सम्बुद्ध ने सभी प्रकार के राग द्वेष मोह को भग्ग(नाश) कर दिया है तो भग्ग करने के कारण वे भगवान कहे जाते हैं |
अतः भगवान कोई जगत निर्माता या कर्मों का फल देने वाला जगत नियंता नहीं बल्कि वह मनुष्य की सुद्धतम अवस्था है | अतः कभी अल्लाह ईश्वर गॉड शब्दों के अनुवाद हिन्दी में भगवान ना करें बल्कि ईश्वर अथवा परमात्मा ही करें
लेखन ठीक है, लेकिन कुछ ज्यादा ही हो गया शायद। स्पष्ट ब्रेनवाश हुई लेखिका है। management of words ठिक ठाक है लेकिन वही घिसी पिटी बाते जिनका कोई मतलब नहीं, लगता है books addiction हैं, सेल्फ नाॅलेज नहीं है।
I always like the writings of Taslima. She is a courageous writer.
Superstition virus is more dangerous than any other virus bcz there is no cure of of it
असल में साथ भगवान ने नहीं छोड़ा है क्योंकि ईश्वर और प्रकृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों एवं चर्च और अन्य धर्मों के पूजा स्थलों के दरवाजे बन्द करके ईश्वर को छोटा साबित करने की होड़ नहीं लगी है,वास्तव में मनुष्य स्वयं दूरी बनाकर अपने आपको को बचाने का प्रयास कर रहा है ।यह समर मनुष्य को स्वयं ही जीतना होगा तभी मनुष्य सफलता प्राप्त कर सकेगा ईश्वर को धन्यवाद कहिए कि आप भारत में हैं और भारतीय सचेष्ट हैं । ईश्वर को नकारने का प्रयास कर अपने आपको सच से दूर मत करिए प्रकृति को बचाने का प्रयास करें ।