पूरा विश्व एक अदृश्य विषाणु के प्रकोप से त्रस्त है. मानवता त्राहि-त्राहि कर रही है. जीवन के सभी क्षेत्रों में इसके प्रभाव परिलक्षित हो रहे हैं. सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, आर्थिक, धार्मिक कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जो कोरोना से प्रभावित न हुआ हो. इस बीच संसार की सारी प्रगति, सारे विकास मानों रुक से गए हैं.
इस बीच शिक्षा व्यवस्था खासकर उच्च शिक्षा में भी काफी बदलाव होते नज़र आ रहे हैं. जिनपर ध्यान देना बेहद जरूरी है. एक तो पहले से ही हमारी शिक्षा व्यवस्था अनेक चुनौतियों से गुज़र रही थी जैसे कि बजट की कम और विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में संसाधनों की कमी. वहीं शोध और नवाचार में भी अंतर्राष्ट्रीय पटल पर हमारी उपस्थिति कमजोर है. इसका अर्थ यह नहीं कि हमारे यहां मेधा की कमी है पर कहीं न कहीं संसाधन की कमी आड़े आ जाते हैं.
2020 की शुरुआत में कोविड-19 के प्रसार के डर से प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक की सभी शैक्षिक संस्थाओं को अचानक बंद कर देना पड़ा. वार्षिक परीक्षाएं कहीं पर भी पूर्ण नहीं करवाई जा सकीं. पाठ्यक्रम को पूरा करवाना और परीक्षा आयोजित करवाना अभी निकट भविष्य में संभव नहीं दिखता.
पिछला सत्र तो बीत गया लेकिन नए सत्र पर भी अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं. ऐसे में पारंपरिक ढांचे के इतर एक अन्य व्यवस्था पर शिक्षाविद विचार विमर्श कर रहे हैं और वह है- ऑनलाइन शिक्षा.
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ऑनलाइन शिक्षा के सामने आने वाली बाधाएं
ऑनलाइन शिक्षण का विचार कोई नया नहीं है और दूरस्थ शिक्षा के क्षेत्र में भारत में इसका प्रयोग पहले से चल भी रहा है. तकनीकी शिक्षा के संस्थानों में भी इस विधा से शिक्षण कार्य होता आया है. लेकिन वृहद रूप से देखा जाए तो अभी हमारे शिक्षण संस्थानों में इसका चलन ना के बराबर है.
भारत में आदि काल से ही पारंपरिक/प्रत्यक्ष शिक्षा व्यवस्था प्रचलित रही है जिसमें गुरू और शिष्य कक्षा में स-शरीर उपस्थित होते हैं. अध्यापन का कार्य शिक्षक मौखिक रूप से ब्लैक बोर्ड और चॉक की सहायता से करते हैं और विद्यार्थियों को नोट्स दिए जाते हैं.
आल इंडिया सर्वे ऑफ हायर एजुकेशन (ऐश) की वर्ष 2018-19 में प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार पूरे भारत में उच्च शैक्षिक संस्थानों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- विश्वविद्यालय, कॉलेज और प्राइवेट (स्टैंड-अलोन) संस्थान जो डिप्लोमा प्रदान करते हैं.
इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में 993 विश्वविद्यालय, 39,931 कॉलेज और 10,725 स्टैंड-अलोन संस्थान हैं. 993 विश्वविद्यालयों में से 298 विश्वविद्यालय ऐसे हैं जिनसे संबद्धता प्राप्त कॉलेज भी जुड़े हुए हैं, 385 प्राइवेट विश्वविद्यालय हैं और 394 विश्वविद्यालय ग्रामीण अंचलों में स्थित हैं. कुछ अत्यंत प्रतिष्ठित संस्थानों को छोड़ दें तो यह सभी मुख्य रूप से पारंपरिक/प्रत्यक्ष माध्यम से ही शिक्षा दे रहे हैं.
इनमें से केवल एक सेंट्रल ओपन विश्वविद्यालय, 14 स्टेट ओपन विश्वविद्यालय, 1 स्टेट प्राइवेट ओपन विश्वविद्यालय और 110 विश्वविद्यालय ही हैं जो दूरस्थ/ऑनलाइन माध्यम से शिक्षा प्रदान करने में संलग्न हैं.
इस रिपोर्ट से एक बात और स्पष्ट होती है कि स्नातक स्तर पर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले सबसे अधिक विद्यार्थी महाविद्यालयों में पंजीकृत हैं. प्रति एक लाख में 18-23 आयु वर्ग की युवा जनसंख्या जो कि उच्च शिक्षा के योग्य है, उसके अनुपात में कॉलेजों का अखिल भारतीय औसत 28 है.
कॉलेजों की सबसे अधिक संख्या आठ राज्यों उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान, हरियाणा, तमिलनाडु, गुजरात, और मध्य प्रदेश में है. प्रबंधन की दृष्टि से देखें तो पूरे भारत में 77.8% महाविद्यालय निजी प्रबंधन के आधीन हैं, 64.3% बिना कोई सरकारी सहायता प्राप्त निजी महाविद्यालय हैं और 13.5% सरकारी सहायता प्राप्त निजी महाविद्यालय हैं. भारत के 60.53% कॉलेज ग्रामीण अंचलों और दूर दराज के इलाकों में स्थित हैं जहां पर इनफार्मेशन तकनीक की ढांचागत कमियां पहले से ही विद्यमान हैं जैसे इंटरनेट, ब्रॉडबैंड इत्यादि.
इन आंकड़ों पर दृष्टि डालते हुए और पिछले कुछ महीनों में प्रदान किए जाने वाले ऑनलाइन शिक्षण को व्यावहारिकता के धरातल पर देखें तो जो तस्वीर उभर कर आई है वह यह है कि हमारे देश में ऑनलाइन शिक्षा प्रदान करने के रास्ते में अनेक व्यावहारिक बाधाएं आई हैं जैसे सभी शिक्षकों और विद्यार्थियों के पास स्मार्ट फोन/कंप्यूटर/लैपटॉप की सुविधा न होना, इंटरनेट, ब्रॉडबैंड का सुचारू रूप से उपलब्ध ना होना, ऑनलाइन शैक्षिक टूल्स की जानकारी न होना, पुस्तकालयों का डिजिटल न होना, ई-कंटेंट का उपलब्ध न होना आदि.
ग्रामीण और दूर दराज के अंचलों में रहने वाले विद्यार्थियों से संपर्क स्थापित करना और ऑनलाइन शिक्षण से उनका पाठ्यक्रम पूरा करना भी एक बड़ी समस्या है.
यह जरूर संभव है कि विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या का कुछ प्रतिशत समय की मांग को देखते हुए भविष्य में कंप्यूटर/लैपटॉप इत्यादि संसाधन खरीद भी ले क्योंकि स्मार्ट मोबाईल फोन के ही द्वारा पूरी पढ़ाई करना सरल नहीं है. लेकिन एक बड़ी समस्या उन विद्यार्थियों की है जो निर्बल और अति निर्बल वर्ग से आते हैं. उनके अभिभावकों के लिए उनकी फीस भर पाना ही किसी चुनौती से कम नहीं ऐसे में महंगे उपकरण खरीद पाना सबके सामर्थ्य की बात नहीं.
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ऑनलाइन अध्यापन की चुनौतियां
हमारे देश में उच्च शैक्षिक संस्थाओं के मूल्यांकन के लिए जो मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (नैक) है वह संस्थाओं के मूल्यांकन में एक बिंदू यह भी देखती है कि अध्यापक द्वारा शिक्षा प्रदान करने में इनफार्मेशन तकनीक के साधनों का कितना प्रयोग किया जा रहा है लेकिन वास्तविकता तो यह है कि संस्थागत स्तर पर स्मार्ट क्लास, ई–बोर्ड इत्यादि के लिए कोई व्यवस्था नहीं है. अध्यापकों को ई-कंटेंट तैयार करने का भी कोई अनुभव या प्रशिक्षण नहीं है.
ई-कंटेंट का तात्पर्य लोकप्रिय पाठ्यपुस्तकों और संदर्भ ग्रंथों की छाया प्रति करवा कर विद्यार्थियों में वितरित करना नहीं है. ऐसे में कॉपीराइट के बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक है कि मौलिक दृश्य और श्रव्य ई-कंटेंट विकसित करने में अध्यापकों को उचित प्रशिक्षण और प्रोत्साहन दिया जाए. उन्हें तकनीकी रूप से नई शिक्षण विधियां और डिजिटल माध्यमों का उपयोग करना सिखाया जाए जो प्रत्यक्ष शिक्षा में भी बहुत सहयोगी होगा.
अध्यापक अपने विषय में विश्व के अन्य विश्व विद्यालयों में चल रहे पाठ्यक्रमों से भी विद्यार्थियों को अवगत करवा सकते हैं और हमारे शिक्षक/विद्यार्थी राष्ट्रीय और विश्व पटल पर चल रहे शिक्षण और नवीनतम शोध के संपर्क में आ सकते हैं.
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एनईपी में भी ऑनलाइन शिक्षा पर ज़ोर
ऑनलाइन शिक्षा प्रदान करना अब भारत के विश्वविद्यालयों के लिए समय की आवश्यकता बन चुका है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत नई शिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने के लिए एम कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में जो समिति बनाई गई थी उसने दिसम्बर 2018 में अपनी रिपोर्ट मंत्रालय में सौंप दी थी.
इस नेशनल एजुकेशन पॉलिसी ड्राफ्ट की एक महत्वपूर्ण बात ये थी कि इसमें ऑनलाइन टीचिंग और लर्निंग के विषय पर ध्यान दिया गया और विश्वविद्यालयों से ये अपेक्षा की गई कि वे अपने लोकप्रिय विषयों में ऑनलाइन शिक्षण प्रदान करने के विषय में नीतियां बनाएं. यद्यपि इस ड्राफ्ट में महाविद्यालयों के लिए ऐसे कोई दिशानिर्देश नहीं दिए गए थे.
रिपोर्ट सौंपने के लगभग दो वर्ष बाद नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा जुलाई के अंतिम सप्ताह में ही सरकार द्वारा की गई है. कस्तूरीरंगन रिपोर्ट के अनेक सुझावों को स्वीकार करते हुए नई शिक्षा नीति में मैसिव ओपन ऑनलाइन कोर्सेस (मूक्स) की उपयोगिता को स्वीकार किया गया है और विश्वविद्यालयों को अनेक सुझाव देते हुए यह भी कहा गया है कि वे शिक्षण के पारंपरिक माध्यमों के अलावा अनेक ऑनलाइन पाठ्यक्रम भी प्रारंभ करें. नई शिक्षा नीति में ऑनलाइन शिक्षण का समावेश मिश्रित टीचिंग–लर्निंग की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा.
पिछले दशक में मिश्रित टीचिंग-लर्निंग की अवधारणा को विश्व के अधिकांश विश्वविद्यालयों ने अपनाया है. इस तकनीक में प्रत्यक्ष शिक्षण के साथ ही ऑनलाइन पाठ्यक्रम भी चलाए जाते हैं. मिश्रित व्यवस्था के अनेक फायदे हैं तो कुछ नुकसान भी. वास्तव में कोई भी तकनीक सौ प्रतिशत सही नहीं हो सकती. लेकिन सबसे अच्छी बात ये है कि इससे फीस पर होने वाला व्यय कम किया जा सकता है और विद्यार्थियों का एनरोलमेंट बढ़ाया जा सकता है.
नई शिक्षा नीति में ऑनलाइन शिक्षण के लिए विश्वविद्यालयों को आवश्यक संसाधन मुहैया करने की बात भी कही गई है जिसमें डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर फैकल्टी के लिए कपैसिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम विकसित करना भी है. इसके अनुसार विषय विशेषज्ञों को डिजिटल कंटेंट तैयार करने और उसको उचित प्लेटफॉर्म पर अपलोड करने के लिए प्रशिक्षण दिए जाएंगे. लेकिन आने वाले समय में पाठ्यक्रम का स्वरूप क्या हो, उसका कितना भाग प्रत्यक्ष हो, कितना ऑनलाइन हो, ऑनलाइन परीक्षाएं किस प्रकार आयोजित हों इत्यादि मुद्दों पर भी शिक्षा मंत्रालय द्वारा स्पष्ट दिशानिर्देश अतिशीघ्र लागू किए जाने की आवश्यकता है.
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ऑनलाइन शिक्षण के दायरे को बढ़ाने की जरूरत
ऑनलाइन शिक्षण के इस पूरे विमर्श में महाविद्यालयों को दायरे में लाने के लिए गंभीर प्रयास किए जाएं जो विद्यार्थियों की एक बड़ी संख्या को शिक्षा प्रदान करने में संलग्न हैं. विशेष तौर पर ग्रामीण परिवेश में जैसा कि ऐश द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों में दर्शाया भी गया है. आवश्यकता है वित्तविहीन संस्थानों को सरकारी सहायता या अनुदान देने की ताकि वे भी ऑनलाइन शिक्षण में सहभागी बन सकें. यदि ऐसा नहीं किया गया तो साधन सम्पन्न निजी संस्थान तो अपनी अवसंरचना को मजबूत कर लेंगे लेकिन कमजोर संस्थान पीछे रह जाएंगे.
अभी शिक्षाविदों को एक आशंका है कि नई शिक्षा नीति प्रतियोगिता को बढ़ावा देगी जिसमें छोटे विश्वविद्यालयों और राज्य स्तर के शिक्षण संस्थानों को बड़ी संस्थाओं से मुकाबला करना पड़ेगा. यदि विदेशी विश्वविद्यालय भी भारत में अपने कैंपस खोलेंगे तो हमें भूलना नहीं चाहिए कि वे ऑनलाइन शिक्षण की दिशा में पहले से उन्नत टेक्नोलॉजी से युक्त हैं.
हमारे देश की कुछ नामचीन संस्थाओं को छोड़ दें तो इन परिस्थितियों में वृहत्तर भारत के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में ऑनलाइन अध्ययन-अध्यापन के लिए व्यापक स्तर पर प्रबंध की आवश्यकता है. इसमें समय भी लगेगा और व्यय भी होगा पर एक बार जब हम संसाधन विकसित कर लेंगे तो इसका लाभ लंबे समय तक परिलक्षित होगा. ऐसा करके हम एक चुनौती को स्वर्णिम अवसर में बदल सकते हैं.
(लेखिका लखनऊ स्थित नारी शिक्षा निकेतन स्नातकोत्तर महाविद्यालय में राजनीति विज्ञान की एसोसिएट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)