महाराष्ट्र और हरियाणा की विधानसभा चुनाव 2019 में तमाम स्थितियां भारतीय जनता पार्टी के अनुकूल थीं. आप गिनना शुरू करें तो अनुकूलताओं की सूची लंबी होती जाएगी. यह दिवाली का माहौल था तो आप कह सकते हैं कि तुरुप के सारे पत्ते उसके हाथ में थे. ऐसे में भला कोई बाज़ी कैसे नहीं जीत सकता है? उसके हाथ में राष्ट्रवाद का पत्ता भी था और हिंदुत्व का भी.
नरेंद्र मोदी सरकार ने अभी-अभी अनुच्छेद 370 को रद्द करके कश्मीरियों को उनकी औकात बता दी थी. अमित शाह वादा कर चुके थे कि वे सभी अवैध प्रवासियों को खदेड़कर बाहर करेंगे. लग रहा था कि अयोध्या में राम मंदिर एक हकीकत बनकर रहेगा. जातीय समीकरण भाजपा के पक्ष में थे.
हरियाणा में कांग्रेस जाटों और दलितों को एक साथ लाने में विफल होती दिख रही थी और जाट विरोधी एकता मजबूत होती लग रही थी. महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस मराठा कोटा का खेल -खेल कर उथलपुथल मचा चुके थे. भाजपा कमजोर कांग्रेस के खिलाफ तो जीत रही ही थी, और यहां तो उसका मुक़ाबला लगभग मृत कांग्रेस से था. हरियाणा में कांग्रेस ने आखिरी मिनट में भूपेंद्र सिंह हुड्डा को चुनाव प्रबंध कमिटी का प्रमुख बना दिया. महाराष्ट्र में भी इसके अंदर ओल्ड गार्ड और न्यू गार्ड के बीच के झगड़े ने प्रदेश इकाई में नेतृत्व का संकट पैदा कर रखा था. अपनी वजूद को लेकर संकट से जूझ रही कांग्रेस यहां तो चुनाव लड़ने का दिखावा भी नहीं कर पा रही थी.
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भाजपा को चुनावों में धनबल, उसकी भोंपू बनी मीडिया, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई और आयकर विभाग के बूते जो बढ़त हासिल होती रही है वह तो थी ही. ऊपर से नरेंद्र मोदी का लोकप्रिय चेहरा भी था, जिन्हें डोनाल्ड ट्रंप ‘फादर ऑफ इंडिया’ घोषित कर चुके हैं. और स्थानीय चेहरे देवेंद्र फडणवीस और मनोहरलाल खट्टर कोई बुरी छवि नहीं पेश कर रहे थे. दोनों ने अपने इर्दगिर्द एक आभामंडल तो बना ही लिया था. सो, ऐसी एक भी वजह नहीं नज़र आ रही थी जिसके चलते भाजपा और उसके सहयोगी इन दो राज्यों में एक भी सीट हारते. जो स्थितियां थीं उनमें तो उन्हें एक-एक सीट जीत लेनी चाहिए थी. चलिए मान लेते हैं कि विपक्ष के नेताओं के अपने भी गढ़ होंगे, तभी शायद वे विपक्षी दलों के नेताओं पर डोरे डाल कर उन्हें अपना बना लेते हैं. लेकिन इस बार यह चाल काम न आई.
यह भी मान लेते हैं कि जातिवादी राजनीति किसी पार्टी को सारी सीटें जीतने नहीं देती. ‘आप’ ने दिल्ली की 70 में से 67 सीटें जीतने का जो करिश्मा किया वैसा शायद ही कभी होता है. फिर भी, भाजपा/एनडीए को इन दो राज्यों में कम-से-कम दो तिहाई बहुमत से तो जीतना ही चाहिए था.
हकीकत क्या है?
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हम देख रहे हैं कि हमेशा परेशान करने वाली शिव सेना से मुक्त होकर राज चलाने का भाजपा का सपना टूट चुका है. और हरियाणा पड़ोसी दिल्ली के लिए सबक लेने के संकेत दे रहा है. अंतिम नतीजे चाहे जो भी आएं, इतना तो साफ है कि भाजपा से जो उम्मीद की जा रही है वैसा प्रदर्शन वह नहीं कर पा रही है. हरियाणा में वह बहुमत का आंकड़ा छूने से रह जाएगी, और सरकार शायद बना ले या न भी बना पाए. महाराष्ट्र में उसे 2014 में मिली सीटों से कम सीटें मिलेंगी, जबकि उसकी दुखदायी सहयोगी शिव सेना ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया है. सो, अब वह आज्ञाकारी जूनियर खिलाड़ी की जगह एक बार फिर हावी होने लगेगी.साफ है कि काँग्रेस ने अगर शरद पवार की तरह चुनाव जीतने के लिए लड़ती तो हरियाणा और संभवतः महाराष्ट्र में भी जीत सकती थी.
सत्ता का गरूर
तुरुप के सारे पत्ते जब भाजपा के हाथ में थे तब इन दो राज्यों में उसके आंकडों में गिरावट वोटरों की ओर से दिए जा रहे स्पष्ट संदेश की ओर इशारा करते हैं. हरियाणा और महाराष्ट्र की जनता ने भाजपा के सत्ता के गरूर को साफ खारिज कर दिया है. मोदी कह रहे हैं कि सब ठीक है, उधर महान भारतीय मतदाता अपना फैसला सुना रहा है. यह गरूर सिर्फ मोदी-शाह के भीतर नहीं है, यह भाजपा के कार्यकर्ताओं में भी पैठ गया है. हरियाणा के एक भाजपा नेता ने कहा कि ईवीएम मशीनों को उनकी पार्टी के पक्ष में इस्तेमाल किया गया.
23 मई के बाद से मोदी-शाह जोड़ी लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करती आ रही है. हरियाणा और महाराष्ट्र ने यह खुशनुमा दस्तक दी है कि भारतीय मतदाता को हमेशा अपने पक्ष में नहीं माना जा सकता, कि राष्ट्रवाद की खुराक से लोगों का पेट नहीं भरने वाला. अब उन विशेषज्ञों का क्या होगा, जो मानते हैं कि आर्थिक तंगी के बावजूद लोग राष्ट्रवाद के पक्ष में ही वोट देंगे? हमें लगातार यह कहा जा रहा था कि अनुच्छेद 370 हरियाणा और महाराष्ट्र के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है. तो फिर भाजपा को वहां सीटों का बड़ा नुकसान क्यों हो रहा है?
इन दो राज्यों में मतदान का रुझान आर्थिक सुस्ती को लेकर भाजपा से बढ़ते मोहभंग को ही दर्शाता है. यह अर्थव्यवस्था की हालत, बेरोजगारी और आंकड़ों की बेशर्म बाजीगरी के प्रति मोदी सरकार की उपेक्षा का जवाब है. सुर्खियों से खिलवाड़ करने का यही नतीजा मिलता है.
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कांग्रेस हरियाणा और महाराष्ट्र में भले न जीती हो, भाजपा की जीत भी नहीं हुई है. यह याद दिलाता है कि भाजपा अजेय नहीं है; ईवीएम से धांधली नहीं हो सकती; जनता कट्टरपंथी हिंदुत्ववाद के झांसे में नहीं आई है; विपक्ष नेतृत्व के स्तर पर शून्य विकल्प देकर मतदाताओं को निराश कर रहा है. सीटों की आंकड़े विपक्षी दलों को ताकत देने वाले और उसका हौसला बढ़ाने वाले हैं. यह उन्हें अपनी निराशा से उबर कर अपने काम में जुट जाने के लिए काफी होना चाहिए.
(यह लेख लेखक के निजी विचार हैं)
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