मध्य प्रदेश सरकार ने राज्य में अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण बढ़ाकर 27 प्रतिशत कर दिया, जो अब तक 14 प्रतिशत था. भारतीय जनता पार्टी के 15 साल के शासन में ओबीसी मुख्यमंत्रियों उमा भारती, कुछ समय के लिए बाबूलाल गौर और फिर शिवराज चौहान का शासन रहा है. भाजपा के ये तीनों नेता पिछड़े वर्ग से आते हैं. लेकिन चेहरा दिखाकर ओबीसी की सांकेतिक राजनीति कर रही भाजपा ने कभी इस मसले पर विचार नहीं किया कि राज्य की 50 प्रतिशत से ज्यादा ओबीसी आबादी को कम से कम 27 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए.
कांग्रेस ने यह चुनावी फायदे के लिए किया है, इसमें कोई संदेह नहीं है. चुनावी फायदे के लिए इस तरह की राजनीति अच्छी है. रोजगार देना, वंचित तबके को अधिकार देना, सबकी हिस्सेदारी सुनिश्चित करना, जातीय भेदभाव खत्म करना अच्छी राजनीति है. और फिर लोकतंत्र में जनहित के सारे काम वोट के लिए ही तो होते हैं.
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चुनावी फायदे के लिए सांप्रदायिक दंगे कराए जाते हैं, युद्ध का माहौल बनाया जाता है, पड़ोसी देश को ललकारा जाता है, मारे गए जवानों के शोक में डूबे परिजनों को छोड़ शहीदों की फोटो मंच पर बेची जाती है. दूसरे राज्यों के लोगों को अपने ही देश में कश्मीरी, बिहारी, तमिलियन आदि कहकर पीटा जाता है. यह बुरी राजनीति है. बुरी राजनीति को खत्म करने के लिए जरूरी है कि सकारात्मक राजनीति हो, जनहित की राजनीति हो.
केंद्र सरकार ने 72 घंटे के अंदर मूल अधिकारों में बदलाव कर सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया. उसे आर्थिक रूप से कमजोर तबके (ईडब्ल्यूएस) का आरक्षण कहा गया. कितनी हास्यास्पद बात है कि अन्य पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थी के पिता अगर 8 लाख रुपये सालाना कमाते हैं तो उन्हें क्रीमी लेयर यानी समाज का मलाईदार तबका माना जाता है. वहीं भाजपा सरकार के नियम के मुताबिक अगर कोई सवर्ण 8 लाख रुपये सालाना से कम पाते हैं, तो उन्हें गरीबी रेखा के नीचे मान लिया जाता है.
इस तरह के जातिवादी माहौल में कांग्रेस को क्या करने की जरूरत है? यह अहम हो जाता है.
कांग्रेस के शासनकाल में 16 नवंबर 1992 के उच्चतम न्यायालय ने ओबीसी आरक्षण के पक्ष में फैसला दिया और समाज के एक बड़े तबके को शासन प्रशासन में हिस्सेदारी की राह बनी. इतना ही नहीं, 20 फरवरी 1994 को केंद्रीय समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने मंडल कमीशन की सिफारिशों के तहत पहली नौकरी पाने वाले वी राजशेखर को नियुक्ति पत्र सौंपा था. केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की कोशिशों से 10 अप्रैल 2008 को उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान हो गया.
इतना ही नहीं, कांग्रेस के शासन में ही पंचायती राज व्यवस्था लागू हुई. पंचायतों में आरक्षण का प्रावधान किया गया. गांवों में सीधे पैसे जाने लगे और ग्राम पंचायत, ब्लॉक प्रमुख से लेकर जिला पंचायत तक बड़ी मात्रा में बजट पहुंचा. इसका सीधा लाभ ओबीसी तबके को मिला. इससे न केवल गांवों का विकास हुआ, बल्कि ओबीसी, एससी, एसटी तबके से बड़े पैमाने पर नेता निकलने लगे. उनके हाथ में थोड़े बहुत पैसे आने लगे, जिससे वे अपने वर्ग की सुविधाओं के मुताबिक गांवों में खड़ंजा, नाली, पेयजल आदि के बुनियादी इंतजाम कर सकें. राजनीति में ओबीसी, एसटी, एसटी तबके की भागीदारी बढ़ने लगी.
कांग्रेस को इसका लाभ भी मिला और वह लंबे समय तक सत्ता में बनी रही. वंचित तबके का समर्थन पार्टी को मिलता रहा. पिछले कुछ वर्षों से भारत की राजनीति बदली है और इसमें चिल्लाने का असर बढ़ा है. काम करने से ज्यादा जरूरी ढिंढोरा पीटना हो गया है. सांकेतिक राजनीति बढ़ी है. पार्टियां वंचित तबके की जाति वाले को टिकट देकर, सुविधाएं देकर अपने दल में रखती हैं और उस जाति के नेताओं को अपने पक्ष में कर लेती हैं. व्यापक रूप से देखें तो ऐसे नेता निजी स्वार्थों में अपनी पार्टी के नेताओं के गुलाम बनकर रह जाते हैं और वंचित तबके को नीतियों का लाभ नहीं मिलता. सिर्फ सांकेतिक फायदा मिल पाता है कि उसकी जाति वाला व्यक्ति नेता बन गया है.
अब वक्त आ गया है कि कांग्रेस भी चीख चीख कर कहे कि हमने वंचित तबके के लिए क्या क्या किया है. इसके अलावा ओबीसी तबके के जो भी नेता कांग्रेस में हैं, या शामिल हो रहे हैं, उन्हें पोस्टर ब्वॉय बनाया जाए. अगर किसी ताकतवर कांग्रेसी की अर्जुन सिंह या सीताराम केसरी से दुश्मनी है भी तो इन दिग्गज नेताओं के निधन के बाद किसी नेता को इनसे खतरा होने की कोई संभावना नजर नहीं आती. इसके अलावा अर्जुन सिंह के पुत्र राहुल को तो कांग्रेस भरपूर सम्मान और पद प्रतिष्ठा भी देती है. लेकिन कांग्रेस अपनी मुख्यधारा या ओबीसी प्रकोष्ठ में अर्जुन सिंह और सीताराम केसरी के योगदान को शामिल नहीं करती, जिससे कि उसके काम सामने आ सकें और पार्टी को राजनीतिक लाभ मिल सके.
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आदर्श आचार संहिता लागू होने के पहले मध्य प्रदेश में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने को राज्यपाल से मंजूरी दिलाकर कांग्रेस ने एक संकेत दिया है कि वह फ्रंटफुट पर खेलने को तैयार है. साथ ही 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण को लागू न करके पार्टी ने उसके लिए उपसमिति बना दी है. ओबीसी तबके को आरक्षण और सुविधाएं दिए जाने की जरूरत इसी से महसूस की जा सकती है कि 27 प्रतिशत आरक्षण जैसे अहम फैसले के बाद भी ओबीसी वर्ग का कोई संगठन राहुल गांधी या कमलनाथ को बधाई देने नहीं पहुंचा.
कांग्रेस को इसकी उम्मीद किए बगैर आक्रामक तरीके से काम करने की जरूरत है, क्योंकि ओबीसी तबका पिछड़ा हुआ जरूर है, लेकिन कांग्रेस ने जब जब वंचितों के हित में कदम उठाया है, समाज में उसका सकारात्मक संदेश गया है. अगर कांग्रेस अक्रामक होकर इसका प्रचार नहीं करती है तो तमाम फालतू मसलों में उसके सकारात्मक काम दबे रहेंगे और उसका चुनावी लाभ मिलना मुश्किल होगा.
(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.)