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Friday, 29 March, 2024
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कांग्रेस को पूरी तरह से बदल देंगी प्रियंका, क्या है उनकी योजना

कांग्रेस अब देश के वंचित तबके की पार्टी बनने का मन बना चुकी है. कांग्रेस अब एक बार फिर देश की जनाकांक्षाओं के अनुरूप युवा होने की तैयारी में है

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कांग्रेस नया स्वरूप ले रही है. राजनीति में सीधे रूप से प्रियंका गांधी वाड्रा के उतरने के बाद कांग्रेस के बदलते तेवर के संकेत मिल रहे हैं. वह पार्टी को उस 85 प्रतिशत वंचित जनता की ओर मोड़ने की ओर हैं, जो स्वतंत्रता के करीब 8 दशक के दौर में राजनीति, प्रशासन, शिक्षा और देश के संसाधनों में अपनी हिस्सेदारी सशक्त रूप से मांगने की स्थिति में आ गई है. मध्य प्रदेश में ओबीसी आरक्षण को 14 परसेंट से बढ़ाकर 27 परसेंट करने की कांग्रेस सरकार की घोषणा इसी दिशा में उठाया गया कदम है.

प्रियंका की मीडिया में चर्चा सामान्यतया उनके चेहरे को लेकर होती है. कभी उनकी मुस्कराहटों, कभी उनके गाल के गड्ढों और कभी हेयर स्टाइल को इंदिरा गांधी जैसा बताकर उन्हें चर्चा में लाया जाता है. इस समय जिस तरह से सोशल साइट्स पर तमाम ऐप, लोगों के फोटो लेकर यह बताते हैं कि आपका चेहरा किससे मिलता जुलता है, प्रियंका को लेकर कुछ इसी तरह की भूमिका में भारतीय मीडिया है.

इस सबसे इतर प्रियंका की हाजिर जवाबी लुभाती है. वह विरोधियों पर तीखे हमले करती हैं. जम्मू कश्मीर में जब सीआरपीएफ के जवानों पर हमला हुआ तो उन्होंने लखनऊ में आयोजित प्रेस कान्फ्रेंस रद्द कर अलग नैरेटिव सेट किया. सोशल मीडिया पर जवानों को श्रद्धांजलि देकर प्रेस कांन्फ्रेंस रोक देना चर्चा का विषय बन गया. लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित भाजपा नेता पीयूष गोयल, मनोज तिवारी, अमित शाह आदि की उस रोज़ की हरकतें खोजने लगे कि जवानों पर हमला हो रहा था तो यह नेता क्या कर रहे थे.


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प्रियंका अपने फैसलों में दृढ़ रही हैं. उन्होंने अपने पारिवारिक दायित्वों को पूरा होने तक पूर्ण राजनीति में न आने के फैसले को कायम रखा. अब वह राजनीति में पूरे ठसक के साथ उतरी हैं.

भाजपा के समर्थक उनकी जाति खोजते हैं. वह सवाल करते हैं कि प्रियंका ‘गांधी’ कैसे हैं. वह प्रियंका वाड्रा हैं. प्रियंका ने अपने ट्विटर हैंडल में प्रियंका गांधी वाड्रा नाम रखा है. बहुत दबंगई के साथ वह बताना चाहती हैं कि वह वाड्रा हैं, तो हैं. वह ट्रोलिंग से बचने के लिए वाड्रा या गांधी हटाने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं और दबंगई से डटी हैं.

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वहीं उनके राजनीति में उतरते ही जब उनके पति पर सत्ता के हमले तेज हुए, तब भी उन्हे डर नहीं लगा. वह पूछताछ के लिए अपने पति के साथ वाहन में बैठकर सरकारी दफ्तर तक गईं और साफ कर दिया कि वे अपने पति के साथ खड़ी हैं.

प्रियंका की एक और विशेषता है, जिस पर चर्चा नहीं हुई है. प्रियंका बहुत शानदार श्रोता हैं. जब कोई प्रियंका से बात करता है तो वह सामने वाले को पूरा मौका देती हैं. सामने वाला व्यक्ति कभी यह जान नहीं पाता कि प्रियंका उस व्यक्ति से असहमत हैं. वह सामने वाले की बात काटती नहीं हैं. वह बड़े गौर से सामने वाले की बात सुनती हैं, जो एक नेता के लिए बहुत ज़रूरी होता है.

यहां प्रियंका की तुलना राहुल से कर देना भी ज़रूरी लगता है. राहुल किताबों की दुनिया में अच्छा समय लगाते हैं और उन्हें इस दौर का सबसे पढ़ाकू नेता माना जाता है. अगर उनके कोई व्यक्ति बात कर रहा हो तो वह प्रतिक्रिया देने से नहीं चूकते और अगर कहीं कोई असहमति है तो तत्काल असहमति जता देते हैं. वहीं प्रियंका सुनती ज़्यादा हैं, बोलती कम हैं. सामने बैठे व्यक्ति को बोलने का मौका देती हैं और सामने बैठे व्यक्ति को संतुष्ट करती हैं कि उसकी कही बात कांग्रेस पार्टी सुन रही है.

कांग्रेस में समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं. स्थापना के बाद से कांग्रेस मुख्य रूप से तीन बार बदली है और यह बदलाव का चौथा चरण है. कांग्रेस अब देश के वंचित तबके की पार्टी बनने का मन बना चुकी है. कांग्रेस अब एक बार फिर देश की जनाकांक्षाओं के अनुरूप युवा होने की तैयारी में है.

इसे समझने के लिए हमें कांग्रेस के इतिहास में जाना होगा. कांग्रेस के इतिहास में उसके गठन से लेकर अब तक तीन बड़े बदलाव हुए हैं, जिसने पार्टी का ढांचा बदला है.

कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई. इतिहासकारों का मानना है कि एक दबाव समूह के रूप में इसका गठन हुआ था, जिसका मकसद अंग्रेज़ी हुकूमत को भारतीयों का पक्ष समझाना था. 28-29 दिसंबर 1885 की बैठक में विभिन्न नृजातीय समूहों और समुदायों, जाति और उपजातियों, धर्मों और उनके विभिन्न गुटों के लोग एक मंच पर एकत्र हुए थे. ( इंडियन नैशनल कांग्रेस वर्सेज द ब्रिटिश,वाल्यूम-1, एमएन दास, पेज-40). कांग्रेस अपने शुरुआती कुछ साल गैर राजनीतिक संगठन रही और उसमें सामाजिक विषयों को ज्यादा महत्त्व मिला.

उस दौर में बाल गंगाधर तिलक ने हिंदुत्व व राष्ट्रवाद की परिभाषा बताने की कोशिश की. 10 मई 1887 को केसरी अखबार में माडर्न एनिमिज आफ हिंदुत्व नामक लेख में उन्होंने लिखा, ‘पूना में गर्ल्स हाई स्कूल में इंग्लिश, मैथेमेटिक्स, साइंस पढ़ाया जा रहा है. यह हिंदुत्व की आत्मा के खिलाफ है.’ तिलक ने साफ़ व्याख्या की कि जाति व्यवस्था की रक्षा करना और महिलाओं और गैर ब्राह्मणो को अंग्रेज़ी शिक्षा दिए जाने का विरोध करना हिंदुत्व है. जाति व्यवस्था की आलोचना करना, महिलाओं और गैर ब्राह्मणों को अंग्रेजी शिक्षा मुहैया कराना ‘अन नैशनल टेंडेंसी और राष्ट्रीय हितों के खिलाफ है, यह हिन्दू राष्ट्र के खिलाफ है.’ (फाउंडेशंस ऑफ तिलक्स नैशनलिज्म, परिमाला वी राव, पेज- 281, 282)


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गोपाल कृष्ण गोखले तक पहुंचते-पहुंचते कांग्रेस राजनीतिक बन गई, जिसमें ब्राह्मणों का वर्चस्व था. गोपाल कृष्ण गोखले ने अंग्रेज़ों के शासन को बड़ी विनम्रता के साथ शोषकों के शासन के रूप में प्रस्तुत करना शुरू किया. वह पीड़ित जनता और सत्ता के व्यापक शोषण को मुद्दा बनाए रहे. वहीं बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा मनुवाद को बचाए रखने में लगा रहा, जिसकी कांग्रेस ने पूरी तरह उपेक्षा कर दी.

कांग्रेस में मोहनदास करमचंद गांधी के आने के साथ पार्टी का इलीट और ब्राह्मण वर्चस्व जाता रहा. कट्टर ब्राह्मणों ने राष्ट्रीय सेवक संघ (आरएसएस) बना लिया, वहीं उदारवादी ब्राह्मणों जैसे मोतीलाल नेहरू (जवाहरलाल नेहरू के पिता) ने अपना 1923 आते आते स्वराज पार्टी बना ली. वहीं हिंदू महासभा में आकर मदनमोहन मालवीय जैसे लोग ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व करने 1931 में गोलमेज सम्मेलन तक गए और नेहरू को बीफ खाने वाला कहकर प्रचारित किया. ( इंडियाज़ साइलेंट रिवॉल्यूशन, क्रिस्टोफ जैफ्रले, पेज-54)

आधुनिक भारत में गांधी ने पहली बार जनता के राम का इस्तेमाल किया. राम के भरोसे बैठे वंचित तबकों को राम का सहारा लेकर ही निडर बना दिया. डरे हुए भारतीयों को सड़क पर उतरना और गलत का विरोध करना सिखाया. अधिकारों की मांग को 1929 तक पहुंचते पहुंचते पूर्ण स्वराज में तब्दील कर दिया. गांधी युग लंबा चला. तब तक चला. गांधी की टीम के सरदार बल्लभ भाई पटेल, जवाहर लाल नेहरू, पंजाब राव देशमुख जैसे नेताओं ने भारत को नई दिशा दी. यह समावेशी समाजवाद की दिशा थी. अगर हम देखें तो गांधी के प्रत्यक्ष शिष्यों और सहयोगी रहे लोगों के शासन तक मिला जुला समाजवाद था, जिसमें सवर्ण वर्चस्व रहा.


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इंदिरा गांधी का नेतृत्व आने के बाद कांग्रेस साम्यवाद की ओर झुक गई. इंडिकेट बनाम सिंडिकेट की लड़ाई में इंदिरा गांधी विजयी रहीं. उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया. राजाओं का प्रिवी पर्स खत्म किया और विशेषाधिकार वाले समाज पर सीधा प्रहार किया. ‘पुराने कांग्रेसी दिग्गज चाहे जो सोचते रहे हों, पर यह सच था कि इंदिरा गांधी ने वामपंथी चोला धारण कर लिया था.

यह किसी क्रांति के आह्वान के लिए बजाए जा रहे बिगुल की आवाज नहीं थी. वह सिर्फ यह स्पष्ट कर रही थीं कि वह वामपंथ की तरफ खड़ी थीं, जबकि पार्टी के भीतर उनके प्रतिद्वंद्वी इस विचारधारा से काफी दूर दक्षिणपंथी रुख अख्तियार किए हुए थे.’ ( स्कूप, कुलदीप नैयर पेज-143) यह बदलाव भी कांग्रेस में लंबे समय तक जगह बनाए रहा.

राजीव गांधी के सत्ता में आने के बाद टेक्नोलॉजी और वैश्विकता आई. नरसिंहराव के प्रधानमंत्री बनने के बाद उदारीकरण का एक नया दौर शुरू हुआ. लेकिन पार्टी में कोई बड़ा वैचारिक फेरबदल नहीं हुआ. 1993 में जहां उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद मंडल कमीशन रिपोर्ट के मुताबिक ओबीसी को आरक्षण दे दिया गया (मंडल कमीशन- राष्ट्र निर्माण की सबसे बड़ी पहल, सत्येन्द पीएस, पेज 20). वहीं संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन -1 (संप्रग-1) के दौर में केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में ओबीसी आरक्षण हो गया और मनरेगा, सूचना का अधिकार, खाद्यान्य योजना जैसे क्रांतिकारी कदम उठाए जाते रहे.


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कांग्रेस अब चौथे बदलाव की ओर है, जब वह देश की 85 प्रतिशत आबादी को कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका सहित राजनीति में उनकी उचित हिस्सेदारी देने का मन बना चुकी है.

2014 में कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने के बाद क्रोनी कैपिटलिज़्म के वीभत्स रूप ने वंचित तबकों की आशाओं और उम्मीदों पर पानी फेर दिया है. गरीब तबके की उम्मीदें खत्म हो रही हैं. किसान वर्ग आरक्षण या किसी अन्य चीज़ों में बेहतर ज़िंदगी की संभावनाएं तलाश रहा है. लघु एवं कुटीर उद्योग नष्ट हुए हैं और धन का केंद्रीकरण कुछ गिने चुने पूंजीपतियों के हाथों में हो गया है.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इसे लेकर हर मंच से प्रहार कर रहे हैं. उनके भाषणों में राफेल सौदे को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व अंबानी समूह के रिश्ते हैं. अडानी को लाभ पहुंचाए जाने के मसले हैं. आम आदमी को बेहतर स्वास्थ्य व शिक्षा दिए जाने की बात है. यह एक प्रशासनिक और नीतिगत बदलाव है. वहीं प्रियंका गांधी कांग्रेस के सामाजिक बदलाव की दिशा में मुखर हैं.

वह अपनी मां सोनिया गांधी की तरह कांग्रेस पर ध्यान केंद्रित करना चाहती हैं. उनकी प्रधानमंत्री बनने या कार्यकारी पद पाने की कोई अभिलाषा बहरहाल नहीं है. उत्तर प्रदेश के प्रभारी के रूप में उन्हें इस बात का एहसास है कि इस समय राज्य कांग्रेस में पार्टी के पास कार्यकर्ता नहीं हैं. प्रियंका को यह भी जानकारी है कि पुराने व खानदानी कांग्रेसी ही पार्टी के साथ जुड़े रह गए हैं, जो सामान्यतया अपर कॉस्ट के हैं और पार्टी का दलित और पिछड़े वर्ग का आधार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने छीन लिया है.


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प्रियंका अब कांग्रेस को देश की 85 प्रतिशत वंचित तबके की कांग्रेस बनाना चाहती हैं. प्रियंका की कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण दोगुना करते हुए 27 प्रतिशत करने का फैसला कर दिया है, जो बदलाव की दिशा में अहम कदम  माना जा रहा था. वह इस बात को समझ रही हैं कि पार्टी में उस बदलाव को कर देने की ज़रूरत है, जिसे डॉ भीमराव अंबेडकर 30 के दशक में कर देना चाहते थे.

प्रियंका को अब यह साफ हो गया है कि समाज में इतना व्यापक बदलाव हो चुका है कि अगर अब वंचित तबके के हाथ में कांग्रेस जाती है तो देश तेजी से तरक्की करेगा. स्वतंत्रता के बाद हुए सामाजिक बदलाव के बाद अब ऐसी स्थिति आ चुकी है कि वंचित तबके को हक देने पर सवर्ण तबका बहुत ज़्यादा मारकाट करने पर उतारू नहीं होगा और वह वंचितों को भी भारत का सम्मानजनक नागरिक मानकर सबको जगह देने की रणनीति में सहयोगी बनेगा.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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