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Wednesday, 18 December, 2024
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आरएसएस-बीजेपी विचारधारा की बहुत बड़ी जीत है, लोटन राम निषाद का सपा से पदमुक्त होना

सपा इन दिनों बीजेपी से विचारधारा के स्तर पर टकराने से बच रही है. ऐसा करते हुए कई निर्णायक और बड़े मुद्दों पर सपा या तो बीजेपी के साथ खड़ी हो जाती है या खामोश और निष्पक्ष रह जाती है.

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बीजेपी-आरएसएस के वैचारिक रथ का घोड़ा अब दक्षिण और पूर्वी भारत को छोड़कर देश के ज्यादातर हिस्से में अपनी जीत का झंडा लहरा चुका है. ऐसे समय में सवाल उठता है कि खासकर उत्तर भारत में, जहां उसके प्राण बसते हैं, बीजेपी को विचार के स्तर पर क्या कोई चुनौती मिलेगी? अगर हां, तो उसे वो चुनौती कौन देगा.

ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि देश की तमाम बड़ी पार्टियों में बीजेपी इस समय अकेली ऐसी पार्टी है, जिसके पास अपनी ठोस विचारधारा है, जिसे वो जीत हो या हार, किसी हाल में नहीं छोड़ती. जब लोकसभा में उसके सिर्फ दो सदस्य रह गए थे, तब भी उसने अपनी विचारधारा- सवर्ण वर्चस्व वाला हिंदुत्व, जिसका बाहरी आवरण मुसलमान विरोध है- नहीं छोड़ी थी. बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद 1993 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश में हारने के बावजूद बीजेपी ने अपने मुद्दे नहीं छोड़े. जाहिर है कि विचारधारा वाली बीजेपी का मुकाबला कोई विचार ही कर सकता है.

पिछले हफ्ते उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ऐसी घटना हुई, जिससे ये साबित हुआ कि बीजेपी-आरएसएस का विचारधारा के आधार पर मुकाबला करने की जमीन अभी तैयार नहीं है. ये घटना उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के एक नेता लोटन राम निषाद के साथ हुई है, लेकिन ये या इससे मिलती-जुलती घटना बसपा या कांग्रेस और शायद आरजेडी में भी हो सकती है.


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पद से हटाए दिए गए लोटन राम निषाद

पिछले हफ्ते तक लोटन राम निषाद समाजवादी पार्टी पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष थे. वे अब भी समाजवादी पार्टी में हैं, लेकिन अब उन्हें अपने पद से हटा दिया गया है. इस बीच के समय में ये हुआ कि अयोध्या में कुछ पत्रकारों ने उनसे राम मंदिर के बारे में सवाल पूछ लिया, जिसके जवाब में उन्होंने कह दिया कि ‘राम में उनकी कोई आस्था नहीं है.. बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर, कर्पूरी ठाकुर, महात्मा ज्योतिबा फुले और छत्रपति साहू जी महराज ने पिछड़ा वर्ग को उनका अधिकार दिया. मेरी आस्था इन महापुरुषों में है.’

राम लोटन निषाद इतने बड़े पद पर नहीं है कि उनके बयान पर प्रदेश स्तर पर कोई विवाद हो. देश की कई और पार्टियों की तरह सपा भी नेता केंद्रित पार्टी है और यहां सपा को लेकर चर्चा होने का मतलब अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव या बहुत हुआ तो आजम खान की चर्चा होना है. वैसे भी, समाजवादी धारा में राम मनोहर लोहिया से लेकर जयप्रकाश नारायण और भगत सिंह तक घोषित तौर पर नास्तिक रहे हैं. इंडियन सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी/एसोसिएशन के नेता के तौर पर भगत सिंह ने तो मैं नास्तिक क्यों हूं जैसी किताब तक लिखी. दूसरी बात ये कि निषाद ने नास्तिकता को निजी विश्वास की चीज माना और किसी व्यक्ति के धर्म पालन करने आदि का कोई विरोध नहीं किया. इसलिए इस बयान को निजी विश्वास का मामला मानकर छोड़ दिया जा सकता था.

वैसे भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 में हर व्यक्ति को अपनी पसंद का धर्म मानने की आजादी है, जिसका विस्तार ये भी है कि कोई आदमी चाहे तो किसी भी धर्म को न माने. संविधान सभा के सामने जब सवाल आया कि कई अन्य देशों के संविधान की तरह भारतीय संविधान में भी ईश्वर की श्रेष्ठता स्वीकार की जाए, तो आम राय ये बनी कि भारतीय संविधान में भारतीय नागरिक की सत्ता की सर्वोच्च होगी. इसलिए संविधान की शुरुआत वी द पीपल यानी हम भारत के लोग शब्द के साथ की गई.

भारत की जनगणना में बाकायदा एक कॉलम है कि मैं अपना धर्म नहीं बताना चाहता और देश में 29 लाख लोगों ने 2011 की जनगणना में धर्म की जगह ये बताया. इसके अलावा बौद्ध धर्म में भी ईश्वर की व्यवस्था नहीं है. इस वजह से उनके अधिकारों में कोई कटौती नहीं की जा सकती.


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सपा को हिंदू वोट छिटकने का भय

लेकिन ये तो संवैधानिक और नैतिक स्थिति है. राजनीति तो भावनाओं पर भी चलती है. बीजेपी को संभवत: समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव की वैचारिक दुर्बलता का एहसास था कि रामलोटन निषाद के बयान को उछालने से सपा की क्या गति हो जाएगी. बीजेपी के प्रदेश प्रवक्ता ने इस बारे में सपा से स्पष्टीकरण मांग लिया. उधर मीडिया ने भी मामले को उछाल दिया और बीजेपी की ओर झुकी मीडिया ने तो समाजवादी पार्टी को इस मामले में घेरने की कोशिश की. सपा ने घबराहट में निषाद को पद से हटाकर उस पद पर राजपाल कश्यप को बिठा दिया. सपा प्रदेश अध्यक्ष ने इस बारे में बयान जारी करके कहा कि ये फैसला पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव के निर्देश पर लिया जा रहा है.

ये तो पता नहीं चल पाया है कि निषाद के बारे में फैसला करते समय सपा के अंदर किस तरह का विचार-विमर्श हुआ, लेकिन सपा के हाल के राजनीतिक आचरण को देखें तो स्पष्ट है कि पार्टी बीजेपी से विचारधारा के स्तर पर टकराने से बच रही है. ऐसा करते हुए कई निर्णायक और बड़े मुद्दों पर सपा या तो बीजेपी के साथ खड़ी हो जाती है या खामोश और निष्पक्ष रह जाती है.

बीजेपी के विचार के साथ अक्सर खड़ी हो जाती है सपा

मिसाल के तौर पर, अनुच्छेद 370 पर समाजवादी पार्टी हमेशा से बीजेपी के खिलाफ खड़ी थी. लेकिन जब संविधान संशोधन के लिए विधेयक लोकसभा में आया तो अखिलेश यादव ने वोटिंग में हिस्सा लेने की जगह वाकआउट करने का रास्ता चुना. तीन तलाक बिल का मामला राज्य सभा में वोटिंग के लिए आया तो सपा के 6 और बसपा के 4 सांसद अनुपस्थित रहे. बीजेपी ने जब आगे बढ़कर सवर्ण (ईडबल्यूएस) आरक्षण के लिए पहल की तो यूपी की तीनों प्रमुख पार्टियों सपा, बसपा और कांग्रेस ने समर्थन में वोट डाला. इसी तरह जब अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए सरकार के बनाए ट्रस्ट ने प्रधानमंत्री से भूमि पूजन कराया तो सपा ये सवाल नहीं उठाया कि सेकुलर देश में शासन का प्रमुख एक धार्मिक मामले में क्यों शामिल हो रहा है.

सपा चाहे तो इस बात से संतुष्ट हो सकती है कि बीजेपी के समक्ष वैचारिक हार सिर्फ उसने स्वीकार नहीं की है. कांग्रेस और बसपा भी यही मान कर चल रही है कि बीजेपी के हिंदुत्व का विरोध करने से कोई राजनीतिक फायदा नहीं होगा, बल्कि हो सकता है कि हिंदुओं के नाराज होने से कोई नुकसान ही हो जाए. इस तरह इस समय भारत की खासकर उत्तर भारत की राजनीति में विचारधारा के स्तर पर दलों के बीच अंतर या तो धुंधला पड़ गया है या मिट गया है.

ये सब उस राज्य में हो रहा है जहां सपा और बसपा ने जब 1993 के विधानसभा चुनाव में नारा लगाया कि “मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम,” तो लोगों ने नाराज होने की जगह सपा और बसपा को डटकर वोट दिया और उनकी लखनऊ में सरकार बनवा दी. इसलिए सपा, बसपा और कांग्रेस के इस डर का कोई आधार नहीं है कि हिंदू वोटर आहत और नाराज होने के लिए तैयार बैठा हुआ है.

सामाजिक न्याय और लोकतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के जरिए बीजेपी-आरएसएस को गंभीर वैचारिक चुनौती दी जा सकती है, लेकिन इसके लिए जिस साहस की जरूरत है, उसका कोई प्रदर्शन करता यूपी में कोई दल नजर नहीं आता. खासकर सपा ने तो लोटन राम निषाद प्रकरण में स्पष्ट तौर पर साबित कर दिया है कि उससे कम से कम इस समय ऐसी कोई उम्मीद न की जाए.

सपा और बसपा अभी इसी भ्रम में हैं कि परशुराम की आसमान छूती मूर्ति लगा देने से ब्राह्मण उन्हें वोट डालने लगेंगे और इससे लिए वे उस पार्टी को छोड़ देंगे, जिन्होंने आजादी के बाद पहली बार सवर्णों को आरक्षण दिया है और राम मंदिर बनाने की शुरुआत कर दी है!


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एक समय का चुनाव जिताने वाला नारा- हवा में उड़ गए जय श्रीराम बोलकर आज कोई नेता इन दलों में बना नहीं रह सकता. सरकार बनाना नहीं, विचारधारा के स्तर पर विरोधियों निहत्था कर देना और उन्हें अपने पक्ष खड़ा कर लेना बीजेपी की अब तक की सबसे बड़ी और ऐतिहासिक जीत है. राम लोटन निषाद को सपा में पद से हटाया जाना बीजेपी के लिए जश्न का एक और मौका है.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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