गणतंत्र दिवस के मौके पर प्रदर्शनकारी किसानों की अगुवाई में ‘ट्रैक्टर परेड’ इस बात का प्रतीक है कि इन ऐतिहासिक राष्ट्रीय अवसरों को सरकार-प्रायोजित आधिकारिक समारोहों और अनुष्ठानों में सीधे जुड़े बिना भी कैसे मनाया जा सकता है. लेकिन ये पहली बार नहीं है जब विरोध के विचार का गणतंत्र दिवस समारोहों से उलझाव हुआ है. किसानों से बहुत पहले, बाबरी मस्जिद आंदोलन समिति ने 1987 में अपने विरोध प्रदर्शन को गणतंत्र दिवस के प्रतीकवाद से जोड़ने का आह्वान कर एक राष्ट्रीय बहस शुरू कर दी थी.
किसानों की परेड का उद्देश्य, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव के शब्दों में, गण (जनता) का उत्सव मनाना है, न कि तंत्र (सरकार) का, ताकि गणतंत्र के असल मायने का अहसास हो सके.
गणतंत्र के वैकल्पिक अर्थों को पुनः प्राप्त करने के इस प्रतीकात्मक प्रयास का एक अनूठा उत्तर औपनिवेशिक कहानी है. बाबरी मस्जिद आंदोलन समन्वय समिति (बीएमएमसीसी)— बाबरी मस्जिद की मूल स्थिति को दोबारा बहाल करने के लिए मुस्लिम संगठनों का गठबंधन— का आह्वान गणतंत्र की इस वैकल्पिक कहानी के सबसे रोचक प्रकरणों में से एक रहा है.
बीएमएमसीसी ने ‘मुस्लिम समुदाय से 26 जनवरी 1987 को गणतंत्र दिवस के आयोजनों में भाग नहीं लेने या उससे नहीं जुड़ने का आह्वान किया था, सिर्फ सरकारी ड्यूटी पर तैनात लोगों को इससे अलग रखा गया था.’ (मुस्लिम इंडिया, खंड 50)
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पृष्ठभूमि
बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर दिल्ली में 21-22 दिसंबर 1986 को एक अखिल भारतीय सम्मेलन का आयोजन किया गया था.
इस सम्मेलन ने एक व्यापक दस्तावेज़— दिल्ली घोषणा जारी किया जिसमें एक चार-सूत्री उग्र एजेंडा जुड़ा हुआ था: (क) गणतंत्र दिवस नहीं मनाने का आह्वान, (ख) 1 फरवरी 1987 को एक अखिल भारतीय बंद का आयोजन, (ग) 30 मार्च 1987 को एक रैली और अगर ये सब नाकाम रहते हैं तो, (घ) अयोध्या कूच. (मुस्लिम इंडिया, 50, पृ. 59-60)
इस घोषणा में एक भ्रम की स्थिति अंतर्निहित थी. इस अपील में अभागीदारी का विचार बहुत स्पष्ट नहीं था. इसके दो संभावित अर्थ हो सकते थे. पहला, मुसलमानों की अभागीदारी को संभवतः अपनी शिकायतें दर्ज कराने की ‘सोची-समझी कार्रवाई’ के रूप में देखा जा सकता था. दूसरा, अभागीदारी को बहिष्कार या ठुकराने के अर्थ में भी लिया जा सकता था. इस अर्थ में, इसे सरकार के अधिकारों को चुनौती देने के कदम के तौर पर देखा जा सकता था.
बहिष्कार बनाम अलगाववाद
मुख्यधारा के मीडिया, विशेष रूप से अंग्रेजी प्रिंट मीडिया ने इस भ्रम को और बढ़ा दिया. दिल्ली के अधिकांश समाचार पत्रों में, दिल्ली घोषणा के मूल पाठ या उसके मुख्य बिंदुओं को प्रकाशित नहीं किया गया था. इसके बजाय, राजनीतिक कार्यक्रम, विशेष रूप से बीएमएमसीसी द्वारा घोषित उग्र कार्यक्रमों को पर्याप्त कवरेज दिया गया था. दिलचस्प बात यह है कि अभागीदारी के आह्वान को गणतंत्र दिवस के बहिष्कार के रूप में चित्रित किया गया था.
भारत के सभी प्रमुख राजनीतिक संगठनों ने ‘बहिष्कार के आह्वान’ पर प्रतिक्रिया दी थी. मुख्यतया ‘भारत की एकता और अखंडता’ के संदर्भ में आह्वान की आलोचना और निंदा की गई और उसे खारिज कर दिया गया. यहां तक कि बाबरी मस्जिद आंदोलन से सहानुभूति रखने वालों ने भी इस कदम को अस्वीकार कर दिया और बीएमएमसीसी से इसे वापस लेने का अनुरोध किया. कांग्रेस (आई), भाजपा, सीपीआई और वीएचपी ने आधिकारिक तौर पर इस आह्वान की निंदा की. जनता पार्टी और सीपीआई (एम) ने बीएमएमसीसी से अपने फैसले पर पुनर्विचार की अपील करते हुए आंदोलन के कार्यक्रम को छोड़ने का अनुरोध किया. सीपीआई (एमएल-संतोष राणा) एकमात्र राजनीतिक मोर्चा था जिसने बीएमएमसीसी का समर्थन किया और अन्य दलों से इस आह्वान में शामिल होने की अपील की. (मुस्लिम इंडिया, 50, पृ. 93-94)
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बहिष्कार या असहभागिता?
‘बहिष्कार के आह्वान’ की सबसे दिलचस्प निंदा ‘ज़िम्मेदार नागरिकों’ ने की: यानि उन लेखकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और कलाकारों ने, जो खुद को ‘अराजनीतिक’ कहलाना पसंद करते हैं. उनके बयान में कहा गया:
‘इन अवसरों पर…हम लोगों को पक्षपातपूर्ण राजनीति, सांप्रदायिक बहस अथवा सरकार और प्रशासन के साथ संघर्ष के किसी भी विवाद में नहीं फंसना चाहिए…उनके महत्व को कम या कलंकित करने का कोई भी प्रयास राजनीतिक नासमझी, कानूनी रूप से अनुचित, राष्ट्र के लिए नुकसानदेह और नैतिक रूप से निंदनीय है’. (मुस्लिम इंडिया, 50, पृ. 63-64)
काफी कुशलता से लिखा गया बयान किसी भी तरह की ‘पक्षपातपूर्ण राजनीति’ तथा ‘सरकार और प्रशासन के साथ संघर्ष’ के बीच अंतर नहीं करता है. इसका तात्पर्य यह है कि इन अवसरों पर किसी भी प्रकार की असहमति के साथ-साथ सरकार और प्रशासन के साथ संघर्ष को भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है. इस अर्थ में, इस बयान का ये मतलब निकलता है कि भारत की परंपरा और उसकी राजनीतिक विरासत की प्रचलित सरकारी व्याख्या को चुनौती देने के किसी भी प्रयास को स्वीकार नहीं किया जा सकता.
इस बहस में बीएमएमसीसी ने भी योगदान दिया. उसने भी एक अच्छी तरह अभिव्यक्त दलील प्रस्तुत की. ‘राष्ट्र के खिलाफ नहीं बल्कि सरकार और संविधान के उल्लंघनकर्ता के खिलाफ आह्वान ’ शीर्षक से 11 जनवरी 1987 को जारी बयान में, बीएमएमसीसी ने ‘बहिष्कार’ और ‘नहीं मनाने’ के बीच का अंतर स्पष्ट किया. बयान में कहा गया:
‘बहिष्कार के आह्वान का मतलब होगा अवरोध, प्रतिरोध और लामबंदी, जबकि अभागीदारी या असहभागिता स्वैच्छिक बलिदान और आत्मारोपित नुकसान की प्रक्रिया है…अभागीदारी का आह्वान न तो राष्ट्र के और न ही सरकार के खिलाफ है, यह किसी भी अर्थ में अवैध या असंवैधानिक नहीं है, यह न तो अनैतिक है और न ही राष्ट्रविरोधी है, यह देशद्रोह या विद्रोह या बगावत का कार्य नहीं है, यह संविधान या गणतंत्र का किसी भी तरह से अनादर नहीं करता है. यह आह्वान संविधान का उल्लंघन करने वाले तत्वों और सरकार के खिलाफ है, जो संविधान की रक्षा और सुरक्षा में नाकाम रहे हैं. (मुस्लिम इंडिया, 50, पृ. 61)
इस बयान के ज़रिए गठबंधन द्वारा अपनाई गई उग्र रणनीति का एक ‘लोकतांत्रिक’ स्पष्टीकरण पेश किया गया. इसने संवैधानिक प्रावधानों की रचनात्मक पुनर्व्याख्या का भी सुझाव दिया. इसमें अंतर्निहित लोकतांत्रिक-संवैधानिक मान्यताओं का जिक्र करते हुए, सरकार के वास्तविक कामकाज पर सवाल उठाने की कोशिश की गई. लेकिन इस बौद्धिक व्याख्या का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. मीडिया इसे ‘गणतंत्र दिवस के बहिष्कार’ का आह्वान बताता रहा.
बाबरी मस्जिद आंदोलन से सहानुभूति रखने वालों ने बीएमएमसीसी पर अपने आह्वान को वापस लेने का दबाव बनाना शुरू कर दिया. यहां तक कि 22 जनवरी 1987 को, तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने भी बीएमएमसीसी से गणतंत्र दिवस के आधिकारिक आयोजन में भाग लेने की औपचारिक अपील की. (मुस्लिम इंडिया 51, पृ. 141)
उस समय तक, बीएमएमसीसी कम से कम प्रतीकात्मक रूप से अपना उद्देश्य हासिल कर चुकी थी. उसने ‘बाबरी मस्जिद की दोबारा तामीर’ को राष्ट्रीय मुद्दे के रूप में मान्यता दिए जाने के संबंध में राजनीतिक प्रणाली को प्रभावित किया. इस प्रकार आखिरकार, गणतंत्र दिवस से ठीक एक दिन पहले 25 जनवरी 1987 को आह्वान वापस ले लिया गया.
1987 के असहभागिता और/या बहिष्कार के आह्वान की तुलना किसानों की 2021 की परेड के साथ नहीं की जा सकती. हालांकि, इन दोनों प्रकरणों को जोड़ने वाला एक साझा सवाल है— गणतंत्र दिवस को राजनीतिक रूप से कैसे मनाया जाए. ये दो आंदोलन हमें याद दिलाते हैं कि अपने संविधान के राजनीतिक मूल्यों का जश्न मनाते हुए भारत, इसके अतीत और इसकी असल जनता के बारे में प्रचलित आधिकारिक परिकल्पना को चुनौती दी जा सकती है, उसका विरोध किया जा सकता है और यहां तक कि उसे खारिज भी किया जा सकता है.
(लेखक सीएसडीएस, नई दिल्ली में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. ये उनके निजी विचार हैं)
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