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Thursday, 25 April, 2024
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पुतिन की पुकार सुनिए, अफगानिस्तान के बहाने रूस से रिश्ता फिर सुधारने के मौके का फायदा उठाइए

रूस के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पात्रुशेव दिल्ली आए, पुतिन ने मोदी को फोन किया, मध्य एशिया की खातिर रूस के साथ अपने रिश्ते को फिर से मजबूत बनाना भारत के हित में ही होगा.

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रूस के खुफिया प्रमुख निकोले पात्रुशेव भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से मुलाक़ात करने के लिए पिछले सप्ताह दिल्ली क्यों पधारे? और उसी दौरान अमेरिकी सीआइए के प्रमुख विलियम बर्न्स ही नहीं बल्कि ब्रिटेन के खुफिया प्रमुख रिचर्ड मूर भी राजधानी में क्यों मौजूद थे? इन सवालों का वैसे तो सीधा जवाब यही है- अफगानिस्तान के चलते. लेकिन जरा गहरी नज़र डाली जाए तो लगेगा की बात कुछ और गहरी है.

जाहिर है, ये तीनों सज्जन और डोभाल इस सवाल का जवाब ढूंढ रहे थे कि अब आगे अफगानिस्तान में क्या? लेकिन इस सप्ताह काबिले गौर बात यह हुई कि हालात चाहे बदल रहे हों मगर पुराने रिश्ते दिलचस्प रूपों में पुनः प्रकट हो रहे हैं. वैसे, इसमें एक शर्त थी- पुराने दोस्त पुरानी गर्मजोशी को जगाएं, केवल तीसरे पक्ष की घटनाओं से प्रभावित न हों.

यही वजह है कि पात्रुशेव के अलावा बर्न्स और मूर के दिल्ली दौरे का सप्ताह आगामी दिनों में ऐसे सप्ताह के रूप में दर्ज होगा जब भारत को न केवल अफगानिस्तान के मामले में नयी दृष्टि मिली बल्कि अपनी विदेश नीति को नया रूप देने का भी मौका मिला.


यह भी पढ़ें: भारत में अफगानिस्तान के मामले में दो विचारधाराओं- ‘धीरज रखें’ और ‘सक्रिय रहें’ के बीच हो रही लड़ाई


सबका खयाल

इसे और स्पष्ट कर दूं. पहले, पात्रुशेव ने डोभाल से मिलने का समय मांगा. गौरतलब है कि पात्रुशेव सेंट पीटर्सबर्ग के हैं और उनके करीबी दोस्त व्लादिमीर पुतिन भी वहीं के हैं. यह ऐसा ही है जैसे आज दिल्ली में कोई कहे कि अमुक-अमुक गुजरात के हैं यानी वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की करीबी मंडली के हैं.

पुतिन और पात्रुशेव, दोनों सोवियत खुफिया एजेंसी केजीबी में थे. सोवियत संघ के विघटन के बाद केजीबी एफएसबी बन गई. पुतिन पात्रुशेव से पहले इसके प्रमुख बन गए. हालांकि पात्रुशेव ने दिल्ली के अपने दौरे में विदेश मंत्री एस. जयशंकर से मुलाक़ात की लेकिन डोभाल और प्रधानमंत्री मोदी से उनकी मुलाक़ात ही भारत-रूस रिश्ते की दिशा तय करेगी.

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दूसरे, जो लोग शोर मचा रहे हैं कि अफगानिस्तान के जुए में रूस सही खेल खेल रहा है उन्हें साफ बता देने का समय आ गया है. याद रहे कि महशक्तियां कमजोर चाल को मजबूत दांव में बदलने का शोर नहीं मचाया करतीं, जैसे अफगानिस्तान मामले में रूस के विशेष दूत ज़मीर काबूलोव ने पाकिस्तान को यानी तालिबान को अपने पक्ष में करके किया, लेकिन अपनी ताकत का एहसास दिलाने के लिए जमीनी हकीकत का इस्तेमाल किया.

इसलिए, रूस अगर अफगानी खेल में वापस आ गया है, और अमेरिका थोड़े समय के लिए भले इससे बाहर हो गया हो, तो यह उस रूसी नेतृत्व के लिए एक उपलब्धि है जो महाशक्ति वाली अपनी पुरानी हैसियत वापस पाने के लिए निरंतर हाथ-पैर मार रहा है. लेकिन रूस को भी इस बात का एहसास है कि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के कारण, जैसा कि कार्नेगी मॉस्को सेंटर के निदेशक दिमित्री ट्रेनिन ने ‘दिप्रिंट’ को दिए इंटरव्यू में कहा, ‘वह मुसीबत मध्य एशिया के रास्ते अब हमारे दरवाजे पर आ टपकी है. अमेरिका की हार से हम कतई खुश नहीं हैं.’

क्या आगामी दिनों में पात्रुशेव झगड़े का ऐसा समाधान कर सकते हैं, जो अफगानिस्तान की घटनाओं से प्रभावित होता हो?
तीसरे, अब यह साफ हो गया है कि नयी तालिबान सरकार पर पाकिस्तानी आइएसआइ की पूरी छाप है, यानी अफगानिस्तान के खेल में यह बाजी पाकिस्तान जीत गया है, और भारत हार गया है. भारत की अफगान नीति क्यों पोली साबित हुई इसकी एक वजह यह है कि वह अमेरिकी सोच के साथ बहुत हद तक जुड़ गई थी, मसलन वह यह मानने लगी थी कि सत्ता में केवल अशरफ ग़नी का समर्थन किया जाए, दूसरे सत्ता-केंद्रों की अनदेखी कर दी जाए.

रूस जिस तरह शीतयुद्ध के पुराने बुरे दिनों में अंतरराष्ट्रीय प्रभाव के इस्तेमाल करता था और सभी पक्षों के साथ खेलता था, उससे क्या भारत सीख लेगा?

केवल क्वाड का हिस्सा नहीं

अफगानिस्तान से सबक यह है कि बड़ी ताक़तें अपनी तारीफ़ों पर निर्भर नहीं रहतीं, और उनकी याददाश्त लंबी होती है. इसलिए, काबूलोव ने तालिबान, और पाकिस्तान को रूस के हवाले भले किया हो, पुतिन-पात्रुशेव यह नही भूलेंगे कि पाकिस्तानी लड़ाकों ने 1979-89 में अफगान युद्धक्षेत्र में सोवियत सेना अधिकारियों को मारा था, कि 1991 में सोवियत संघ के विघटन में उसी अफगान युद्ध की बड़ी भूमिका थी.

रूस यह भी नहीं भूलेगा कि तालिबान ने 1996-2001 में अपनी पहली हुकूमत- जिसे केवल पाकिस्तान, यूएई, सऊदी अरब ने मान्यता दी थी- में रूस के अभिन्न हिस्से चेचेन्या को एक स्वतंत्र गणतंत्र के रूप में मान्यता दी थी.

चौथे, पात्रुशेव-डोभाल वार्ता में, जो ‘अब आगे क्या?’ सवाल पर केंद्रित रही, काफी समय अधिकतर मध्य एशियाई देशों, खासकर अफगानिस्तान की सीमा से सटे देशों की कमजोर राजनीतिक व्यवस्थाओं पर चर्चा करने में बीता होगा. क्या वे उग्रवादी इस्लामी दबाव में टूट जाएंगे? क्या नारकोटिक्स-इस्लामी आतंकवाद मिलीभगत रूस के सबसे बुरे दुःस्वप्न को सच कर सकती है?

इसके अलावा, अल-क़ायदा से जुड़े तालिबान ने अफगानिस्तान की सीमा पर स्थित देशों में वहीं के मूल के बागियों को भेज रखा है. उदाहरण के लिए, उज़्बेक-अफगान सीमा पर इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान के बागियों को; जबकि ताजिकिस्तान-अफगान सीमा पर उन इस्लामी गुटों को तैनात कर रखा है जिन्होंने सोवियत संघ के विघटन के बाद ताजिकिस्तान में गृहयुद्ध में भाग लिया था.

पांचवें, आगामी सप्ताहों-महीनों में चीजें बदलेंगी तब मध्य एशिया की भूमिका बढ़ेगी. रूस ने ताजिकिस्तान सीमा पर हथियारबंद डिवीजन तैनात कर रखा है. ताजिकिस्तान में फरखोर और आयनी हवाई अड्डे हैं जिन्हें 1990 के दशक के मध्य में भारतीय वायुसेना ने तब दुरुस्त किया था जब भारत ईरान-रूस के साथ उस त्रिकोण में शामिल था जिसने नॉदर्न अलायंस के अहमद शाह मसूद को तालिबान से लोहा लेने में मदद की थी. याद रहे कि ईरान के विदेश मंत्री इस महीने के अंत में दिल्ली आ रहे हैं.

रूस के साथ अपने रिश्ते में फिर से नयी जान डालना क्या भारत के हित में नहीं होगा? इसलिए भी कि मध्य एशिया के साथ उसके संबंध भी मजबूत बनें?

अफगानिस्तान यही सबक दे रहा है कि भारत को अपने मूल जनादेश की सुध लेनी चाहिए कि वह केवल हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भूमिका निभाने वाले क्वाड का हिस्सा नहीं है बल्कि उसकी स्वाभाविक नियति आंतरिक एशिया में अपने पड़ोसियों के साथ जुड़ी है.

पात्रुशेव का दिल्ली दौरा आंखें खोल देने वाला है. क्या डोभाल इसके आगे कदम बढ़ाएंगे?

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक कंसल्टिंग एडिटर हैं और यहां व्यक्त विचार निजी हैं)


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