scorecardresearch
Friday, 20 December, 2024
होममत-विमतभारतीय मतदाता को उदारवादी बचकाना मान रहे हैं पर ये मोदी पर उनकी खिसियाहट भर है

भारतीय मतदाता को उदारवादी बचकाना मान रहे हैं पर ये मोदी पर उनकी खिसियाहट भर है

अपने देश में उदारवाद की कहानी में एक बड़ा इंटरवल आ गया है. कहानी में दम अभी भी है, कहानी चलनी चाहिए लेकिन उदारवादी नायक को अंग्रेजी वाली सौतेली मां छोड़ के हिंदी, बंगाली, मलयालम मां के पास आना पड़ेगा.

Text Size:

एक मध्यमार्गी, उदारवादी नागरिक के लिए देश में जिंदगी कठिन हो गई है. जब वह इस चिंता में व्यस्त होता है कि सरकार ने डॉक्टरों, नर्सों और मरीजों की कोरोना से सुरक्षा के लिए चिकित्सकीय सामग्री बचा के रखने, जमा करने के लिए फरवरी के महीने में कोई कदम नहीं उठाए तो मार्च के तीसरे हफ़्ते में प्रधानमंत्री हमें बताते हैं कि अगर हम ताली और थाली बजाएं तो डॉक्टरों का मनोबल बढ़ जाएगा. शुक्र करो कि यह पहली अप्रैल न था नहीं तो हम इसे अप्रैल फूल मानकर प्रधानमंत्री के आदेश की अवहेलना कर चुके होते.

लोकतांत्रिक उदारवादी ढांचा चरमरा रहा है. मुख्य न्यायाधीश सरकार के पक्ष में कई सारे फैसले करते हैं और रिटायर होने के तुरंत बाद सरकार के द्वारा राज्यसभा के सांसद मनोनीत हो जाते हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था, जो सरकार और न्यायपालिका के बीच शक्ति के विभाजन पर टिकी है, उसकी धज्जियां उड़ा दी जाती है.

अर्थव्यवस्था में अर्थ दिखता ही नहीं. कहां से दिखे, वित्त-राज्यमंत्री का समय तो ‘गोली मारो..** को देश के गद्दारों को’ के नारे लगाने में बीत जाता है. पता ही नहीं लगता कि हम वित्त-राज्य मंत्री का भाषण सुन रहे थे या गब्बर सिंह की डायलॉगबाजी. अभी हम इस गब्बरबाजी के दंगों से डरे हुए थे तब तक फरवरी के महीने में चीन से होली के रंग-गुलाल के बदले कोरोना आ गया. होली में मेल मिलाप होता है, कोरोना से हिंदू-मुसलमान करवा दिया गया. पिछले पांच-छह सालों में तो हमें लव-जिहाद से डराया गया था, अब थूक जिहाद से डराया जा रहा है.

बेचारा लिबरल परेशान हो गया है. ताली-थाली के बाजे से उसका बैंड बज गया है. इस स्थिति का विवेचन शेखर गुप्ता ने दिप्रिंट हिंदी के अपने कॉलम में किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे: ‘लेकिन जरा मोदी की नजर से देखिए. वे तो जीत ही रहे. तो वे भला शिकायत क्यों करें? या जाने पहचाने आलोचकों की फिक्र क्यों करें जो उन वोटरों को बचाकानेपन की ओर ले जाने का आरोप लगाते रहते हैं ? वे वोटर तो इसी में खुश हैं, आज्ञाकारी बच्चे बनने में !’

शायद शेखर गुप्ता इस निष्कर्ष पर अपनी निराशा, हताशा से पहुंचे होंगे. परंतु उदारवादी पिछले 6 सालों में यह शिकायत कई बार संजीदगी से भी करते हैं कि मतदाता बचकाने निर्णय लेता है. 2014 से पहले उदारवादी ऐसा नहीं कहते थे और हमें बताया जाता है था कि भारतीय मतदाता, जब भी इतिहास की चुनौती खड़ी होती है तो काफ़ी परिपक्व निर्णय लेता है जैसे 1977, 1984 और 1991 के संसदीय चुनाव में. तो नजरिए में यह बदलाव कहां से आया?


यह भी पढ़ें: कोविड-19 मुसलमानों को अनौपचारिक सेक्टर की नौकरियों से बाहर करने का एक बहाना, अगला चरण नस्लभेदी होगा


क्या यह एक तरह का बौद्धिक आलस्य है? यदि मतदाता के निश्चय को बचकाना घोषित कर दें तो फिर किसी विचार-विमर्श, विश्लेषण की जरूरत नहीं रह जाती. या नजरिए का यह बदलाव उदारपंथी/पूंजीवादी राजनीति के स्वेच्छा से चुनने के अधिकार की धारणा से आया है जहां लिबरल्स यह मान लेते हैं कि व्यस्क लोग स्व-विवेक से अपने तर्कोचित निर्णय करते हैं और कोई बचकाना व्यक्ति ही थाली-ताली बजा सकता है या मोदी को वोट दे सकता है.

आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र का बीजमंत्र है फ्री विल (व्यक्ति की स्वेच्छा से निर्णय करने का अधिकार). इसमें यह माना जाता है कि व्यक्ति फ्री विल (स्वेच्छा) से अपने और अपने समाज के बारे में सबसे अच्छे निर्णय लेने में समर्थ है. उदारवादी लोकतंत्र इस विचार पर आधारित है. दर्शन के क्षेत्र में फ्री विल को हमेशा से चुनौती मिलती आई है. पाश्चात्य दर्शन में डिटरमिनिज़्म, और भारतीय दर्शन में पूर्व कर्म (प्रारब्ध) एक तरह से फ्री विल के उलटे विचार हैं जो यह कहते हैं कि व्यक्ति के जीवन में जो घटनाएं होती है उनके कारण बहुत पहले घटित हो चुके होते हैं. पिछली शताब्दी में उदारवादी लोकतंत्र को इतनी राजनीतिक सफलता मिली की फ्री विल को चुनौती देने वाले दार्शनिक विचार एक तरह की अंधेरी गुफा में गुम हो गए.

इस दशक में पूरे विश्व में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की हालत खराब है. लोकतंत्र को लोकतांत्रिक बनाए रखने का जिम्मा जिन संस्थाओं के पास था वही संस्थाएं लोकतंत्र को कमजोर करने में योगदान कर रही है, जैसे पत्रकारिता और न्यायपालिका. ट्रंप , मोदी, अर्दोगन के आगमन से पहले ही कई सारे दार्शनिक जैसे जॉन ग्रे स्वेच्छा (फ्री विल) के सिद्धांत को चुनौती दे रहे थे. मनोविज्ञान और तंत्रिका विज्ञान (न्यूरोसाइंस) में भी फ्री विल को चुनौती मिली है. अगर हम फ्री विल के सिद्धांत को मान भी लें तो भी मीडिया प्रचार और डेटा कि टेराबाइट्स की ताकत से इसको मनचाहा मोड़ देने की संभावनाएं हैं.

इसलिए फ्री विल के सिद्धांत के आधार पर मतदाता के ऐसे निर्णय जिससे हमारी सहमति नहीं हो, उन्हें बचकाना करार देना कोई विद्वता की बात नहीं है. मैंने भी इस लेख में फ्री विल के इस मुद्धे को रेटरीक के लिहाज से ही उठाया है नहीं तो हमें इन चीजों को देखने समझने के और तरीके ढूंढने की जरूरत है.

इसमें एक तरीका है भारतीय दर्शन का सिद्धांत माया या लीला. अगर हम चुनावी राजनीति को छवि, परछाई, प्रतिबिंब और अनुभूतियों की लड़ाई की तरह देखें, अगर इसे हम रंगभूमि की युद्धभूमि की तरह समझें तो हमारी चुनावी राजनीति की समझ में ज्यादा गहराई आएगी. चुनावी राजनीति में नाटक एक महत्वपूर्ण अंश हमेशा से था. परंतु सूचना प्रौद्योगिकी, व्हाट्सएप, फेसबुक ने मोदी को क्षण-क्षण नई अनुभूतियां, नए प्रतिबिंब से मतदाता को भाव-विभोर किए रखने की क्षमता दे दी है. इस बात के गहरे अध्ययन की जरूरत है कि सस्ते जियो डेटा से देश में पैदा हुए व्हाट्सएप क्रांति का 2019 के संसदीय चुनाव और वर्तमान थाली-ताली समारोह पर क्या असर हुआ?


यह भी पढ़ें: कोरोनावायरस संकट अगर मोदी नहीं बल्कि मनमोहन सिंह के राज में आता तब क्या होता


फेसबुक, इंटरनेट और वफादार न्यूज़ चैनलों ने भारतीय राजनीति को एक तरह से बहुत बड़ा रंगमंच बना दिया है. एक ऐसा रंगमंच जिस पर मोदी के अलावा कोई बड़ा अभिनेता नहीं है कोई दूसरी कहानी नहीं है. सत्ता, ताकत और पैसे के वेंटिलेटर से चलने वाली बूढ़ी मरीज कांग्रेस अब बिना सत्ता और पैसे के मरने के कगार पर खड़ी है.

कांग्रेस सिस्टम की दूसरी पार्टियों की हालत भी कांग्रेस जैसी ही है. केवल केजरीवाल मोदी से दो-दो हाथ करने की ताकत दिखा पाते हैं और वह भी शायद इसलिए की नई तकनीक और रंगमंच/नाटक के इस्तेमाल में वह मोदी का मुकाबला कर सकते हैं.

नई तकनीक ने भारत के आम जन के जीवन में इतनी तेजी से बदलाव किए हैं कि हो सकता है कि मतदाता मोदी को केवल इसलिए पसंद करें क्योंकि मोदी के बिंब, रूपक उसे अपने हाथ से फिसलते हुए पारंपरिक जीवन को बरकरार रख पाने का एहसास करा देते हो, चाहे वह एहसास थाली-ताली समारोह ही क्यों ना हो. हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि नई टेक्नोलॉजी के हमारे जीवन में दखल देने के पहले, पिछले छह-सात दशकों में उदारवादियों ने हर तरह की पारंपरिक पहचान: जाति, धर्म, लिंग और परिवार में गहरा हस्तक्षेप किया था. इस हस्तक्षेप ने इन संरचनाओं में कई सारे बदलाव किए.

मैं इस हस्तक्षेप की अच्छाई-बुराई के बारे में बात नहीं कर रहा. लेकिन हमें यह समझना होगा कि इन पारंपरिक संरचनाओं में जो उलट-पुलट हुई उससे समाज के कई सारे हिस्सों में गहरी चिंताएं भी पैदा हुई होंगी. मोदी ने इस तोड़-फोड़ में अपने आपको ऐसी जगह खड़ा किया है जहां से वह इस बदलाव का लाभ ले सकते हैं (ओबीसी-मंडल) और इस उलट-पुलट से पैदा हुई चिंताओं का भी फायदा उठा सकते हैं (हिंदुत्व).

उदारवादियों को यह बदलाव करते समय कांग्रेस सिस्टम का पूरा सहयोग मिला था लेकिन उनकी एक बड़ी ताकत ज्ञान रचना के प्रतिष्ठानों (विश्वविद्यालय, शोध संस्थान, अदालतें आदि) से मिली. यह सारे प्रतिष्ठान एक छोटे से अभिजात वर्ग के हाथों अंग्रेजी की रस्सी में बंधे हुए थे. जिस जन समूह का विशाल समर्थन गुजराती भाषी मोदी को हिंदी में मिलता है वह जनसमूह इस अंग्रेजी भाषा से उतनी ही दूर था जितनी दूर ऐश्वर्या राय से विवेक ओबरॉय हैं. उदारवादी अभिजात वर्ग के हाथों अंग्रेजी भाषा जनसमूह के ऊपर चलने वाली सत्ता का चाबुक बन गई. नौकरी और शिक्षा के दौर में अंग्रेजी भाषी गधा भी मलयाली, हिंदी भाषी घोड़े से तेज भाग सकता था. उदारपंथी, जो भेदभाव मिटाने को अपना धर्म मानते हैं, अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भेदभाव बढ़ाने में करने लगे.

उदारपंथी अंग्रेजी भाषा उधार लेकर जन से दूर और सत्ता के पास के उधार-पंथी बन गए. भारत में अंग्रेजी भाषा का दबदबा एक नव उपनिवेशवाद का स्वरूप बन गया.

इस उदारवादी अभिजात वर्ग का आम-जन से, जहां मोदी पूजे जाते हैं, उनसे, बिंब-भाषा और अनुभूतियों के स्तर पर कोई भावात्मक लगाव नहीं रह गया है. बोतल उन्हीं अंग्रेजी भाषा के प्रतिष्ठानों से निकल रही है लेकिन उस पर हिंदी का ढक्कन लगाकर मोदी उसे धरा-धर बेच रहे हैं. जैसे इटली की ताली में अपने देश की थाली लगाकर उस इतवार की शाम को हर घर में कीर्तन करवा दिया.


यह भी पढ़ें: कोरोनावायरस लॉकडाउन के कारण रोज़गार गंवाने के आंकड़े भयावह, सरकार को जल्द बड़े कदम उठाने होंगे


अपने देश में उदारवाद की कहानी में एक बड़ा इंटरवल आ गया है. कहानी में दम अभी भी है, कहानी चलनी चाहिए लेकिन उदारवादी नायक को अंग्रेजी वाली सौतेली मां छोड़ के हिंदी, बंगाली, मलयालम मां के पास आना पड़ेगा. उसको यह मुगालता छोड़ देना चाहिए कि उदारवाद में कोई शाश्वत सत्य है. उसे मानना पड़ेगा कि उदारवाद गांधी के जीवन की तरह एक प्रयोग है जिसमें हर झटके के साथ सीखने की जरूरत है, एक कहानी है जिसमें इंप्रोवाइजेशन की जरूरत है. और इसमें आम जन को बचकाना कहने की कोई छूट नहीं है क्योंकि मूर्खता और बचकानेपन का एक हिस्सा तो हम सबके अंदर होता है.

(लेखक सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं. यह लेखक के निजी विचार है)

share & View comments

2 टिप्पणी

  1. बात एकदम खरी है। लिबरल्ज की पकड़ या पहुंच जनता तक उसकी मदर टंग में नहीं है। और जब तक किसी को कोई बात उसके स्तर पर आकर न समझाई जाएगी वह समझाने वाले से जुड़ नहीं पायेगा। जो आम जनमानस को उसके स्तर पर आकर चीज़े समझाएगा, वह उससे कुछ भी करवा सकता है। थाली पिटवा सकता है, कीर्तन करवा सकता है, कुछ भी।

Comments are closed.