गत शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘अपमान’ को लेकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा पदाधिकारियों के आक्रोश में एक पैटर्न साफ देखा जा सकता था. उनके तमाम ट्वीट एक साझा शब्दावली के इस्तेमाल की ओर इशारा कर रहे थे –‘दुखद/काला दिन’, ‘क्षुद्र राजनीति’, ‘सहकारी संघवाद’, ‘संवैधानिक मूल्य’, ‘ढीठता’, ‘अहंकार’ और ‘जन कल्याण.’
यास चक्रवात पर समीक्षा बैठक के लिए प्रधानमंत्री के बंगाल के कलाईकुंडा हवाई अड्डे पर पहुंचने से एक घंटे पहले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के आईटी प्रकोष्ठ के प्रमुख अमित मालवीय ने ट्वीट किया कि कैसे बनर्जी ‘ढीठता की हद’ पार करते हुए अपनी ‘क्षुद्र राजनीति’ के कारण बैठक से अनुपस्थित रहने वाली हैं. 8 घंटे बाद केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ‘ढीठता’ और ‘क्षुद्र राजनीति’ के लिए बंगाल की मुख्यमंत्री पर बरस रही थीं.
नए चुने गए भाजपा नेता बने सुवेंदु अधिकारी ने बनर्जी की ‘क्षुद्र राजनीति’, ‘संवैधानिक मूल्यों’ के प्रति सम्मान भाव के अभाव और प्रधानमंत्री मोदी के अत्यंत पावन ‘भारत के सहकारी संघवाद की पुरानी परंपरा के लिए एक दुखद दिन’ का जिक्र किया. यदि अधिकारी ने इसे ‘दुखद दिन’ पाया तो केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इसे ‘काला दिन’ बताया कि जब सहकारी संघवाद और संवैधानिक मूल्यों की परंपरा पर चोट की गई. जल्दी ही, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा भी इस बारे में बात कर रहे थे कि कैसे प्रधानमंत्री मोदी सहकारी संघवाद के सिद्धांतों को बहुत पावन मानते हैं.
यहां हम इस बात पर विचार नहीं कर रहे कि मोदी के समक्ष अपनी प्रासंगिकता साबित करने के लिए भाजपा के नेता और मंत्री किस प्रकार ट्वीट करते हैं. न ही हम आक्रोश की एक समान शब्दावली पर विचार कर रहे हैं, हालांकि ये बात सबको पता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय का एक मीडिया मैनेजर खासकर उन भाजपा नेताओं के सोशल मीडिया अकाउंट के पासवर्ड अपने पास रखता है जिनके कि बड़ी संख्या में फॉलोअर हैं.
मंत्रियों के ट्वीट महज इस बात को प्रतिबिंबित करते हैं कि मोदी सरकार में कैसे स्वतंत्र, सर्जनात्मक और रचनात्मक सोच की किल्लत हो गई है. यहां तक कि प्रधानमंत्री के अपमान पर दिखने वाला आक्रोश भी पूर्वनियोजित होता है! उनके रोजाना के ट्वीट और साक्षात्कार पढ़ें: मोदी का गुणगान, विपक्ष को कोसना, साजिशी सिद्धांत—यानि खाली शोर-शराबा. खुद के अस्तित्व के खातिर मंत्रियों की मोदी भक्ति कोई नई बात नहीं है, पर लगता है कि ऐसा करते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री के लिए भी एक काल्पनिक दुनिया रच दी है.
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चाटुकारों की फौज
भले ही एक मुख्यमंत्री (झारखंड के हेमंत सोरेन) टेलीफोन-राजनीति करने के लिए प्रधानमंत्री पर कटाक्ष करें, दूसरी (बनर्जी) प्रधानमंत्री के साथ चक्रवात पर समीक्षा बैठक में नहीं आईं, और एक अन्य (उद्धव ठाकरे) गुजरात में उनके हवाई सर्वेक्षण को फोटो सेशन करार दें, लेकिन ये सब प्रधानमंत्री को टीम इंडिया वाली भावना दिखाने से नहीं रोकते. आप कप्तान विराट कोहली को दोष नहीं दे सकते यदि भारतीय क्रिकेट टीम के आधे सदस्य उन्हें पक्षपाती कहने लगें, क्या आप दोष देंगे?
अब जबकि वह अपने कार्यकाल के आठवें वर्ष में कदम रख रहे हैं, शायद मोदी को 2019 की फिल्म ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में अपने पूर्ववर्ती डॉ. मनमोहन सिंह को सुनना चाहिए, जो वास्तविक और रील लाइफ दोनों में ही सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू के संस्मरणों पर आधारित है.
फिल्म में मनमोहन सिंह बारू से कहते हैं, ‘पीएम की कुर्सी ज़मीन से दूर कर देती है; सिर्फ फाइलें, मंत्री और नौकरशाह नज़र आते हैं. मुझे हर खबर चाहिए, बिना किसी डर के, बिना किसी उम्मीद के. संजय, तुम्हें मेरा संजय बनना होगा.’
जाहिर है सिंह महाकाव्य महाभारत में नेत्रहीन राजा धृतराष्ट्र के दैवीय दृष्टि वाले सहयोगी संजय का जिक्र कर रहे थे, जिन्होंने उनके लिए पांडव-कौरव युद्ध में होने वाली घटनाओं का वर्णन किया.
बेशक, सिंह और मोदी के बीच कोई तुलना नहीं है. अपने पूर्ववर्ती के विपरीत मोदी जनता के नेता रहे हैं. उन्हें यह जानने के लिए किसी संजय की जरूरत नहीं है कि उनकी पार्टी और मंत्रिमंडल के सहयोगी क्या कर रहे हैं. लेकिन सिंह ने फिल्म में जो कहा, उसमें दम है— यानि ये तथ्य कि प्रधानमंत्री की कुर्सी उस पर काबिज व्यक्ति को यथार्थ से इतनी दूर कर देती है कि उसे केवल अपने मंत्री ही दिखाई देते हैं. और, अगर ये मंत्री चाटुकारों का झुंड भर हों, तो प्रधानमंत्री गलतियों से ऊपर हो जाता है.
अलग था मतदाताओं का मोदी
तो क्या प्रधानमंत्री मोदी का ज़मीनी हकीकत से संपर्क टूट रहा है? मैं नहीं समझता. लेकिन संकेत थोड़े विचलित करने वाले हैं. भारतीयों ने जिस मोदी को बार-बार वोट दिया, उसकी जनता की नब्ज पर ऐसी पकड़ थी कि उसके नोटबंदी जैसा तर्कहीन कदम उठाने पर भी लोग उसकी जय-जयकार कर सकते थे. लेकिन वो मोदी तरल ऑक्सीजन के उत्पादन को 10 गुना बढ़ाने का श्रेय नहीं लेना चाहेगा, वो भी इसकी कमी के कारण सैकड़ों लोगों की मौत का जिक्र किए बिना. वो चक्रवातों की चपेट में आए राजनीतिक रूप से अहम राज्यों का हवाई दौरा करने, लेकिन कोरोनावायरस और सरकारी उदासीनता से करोड़ों लोगों के संघर्ष के समय घर में बंद रहने वाला मोदी नहीं हो सकता. और आखिर में, वो मोदी अपने मंत्रियों को कोविड पीड़ितों के बीच उनकी देखभाल के लिए तैनात करने के बजाय उन्हें विपक्षी नेताओं पर झुंड बनाकर टूट पड़ने की अनुमति नहीं देता.
पश्चिम बंगाल में जिस बात पर राजनीतिक तूफान खड़ा हुआ, मोदी के लोग जानते थे कि वो एक उदाहरण बनेगा— यानि जन कल्याण के मामलों में सभी राजनीतिक पक्षों को शामिल करना. भले ही इसकी शुरुआत के लिए बंगाल में विपक्ष के नेता, नारदा घोटाले के आरोपी और दलबदलू, शुभेंदु अधिकारी एक बढ़िया विकल्प नहीं थे. फिर भी, ये एक अच्छी शुरुआत है. केवल सत्ता प्रतिष्ठान ही आपदा-राहत चर्चाओं का हिस्सा क्यों बने? क्यों न मुख्यमंत्री और विपक्षी नेता प्रधानमंत्री को ज़मीनी हकीकत से अवगत कराएं.
कल्पना कीजिए कि प्रधानमंत्री मोदी हर राज्य की राजधानी जाते हैं और मुख्यमंत्री एवं विपक्षी नेताओं के साथ अस्पतालों और अन्य कोविड सुविधाओं का निरीक्षण करते हैं! सोचिए अगर वे एक साथ ग्रामीण स्वास्थ्य क्लीनिकों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों का औचक निरीक्षण करें तो क्या प्रभाव पड़ेगा! उन्हें गाज़ीपुर, बक्सर और इंदौर जाने और सीधे प्रभावित लोगों से सुनने दें कि चिकित्सा सहायता, टीके लगवाने और मृतकों के दाह संस्कार और दफनाने में किस तरह की समस्याएं आ रही है.
इस तरह के दौरों से जो राजनीतिक समां बंधेगा जरा उसकी कल्पना कीजिए. दरअसल ऐसा दिखने वाले मोदी को ही भारतीयों ने वोट दिया था.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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