scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतउत्तर प्रदेश के अतीत से सीखिए कि रोजगार के स्थानीय मॉडल कैसे बन सकते हैं

उत्तर प्रदेश के अतीत से सीखिए कि रोजगार के स्थानीय मॉडल कैसे बन सकते हैं

उत्तर प्रदेश में एक समय रोजगार के कई बड़े केंद्र थे, जो अब लगभग बर्बाद हो चुके हैं. अगर स्थानीय स्तर पर आत्मनिर्भरता चाहिए तो हमें उत्तर प्रदेश के उस गौरवशाली दौर से सीखना होगा.

Text Size:

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि कोरोनावायरस वैश्विक महामारी से जो एक सबक सीखने को मिला है वह यह है कि अमेरिका को देश के भीतर सप्लाई चेन यानी आपूर्ति श्रृंखला का निर्माण करना चाहिए. ट्रंप इस बात से चिंतित हैं कि सप्लाई चेन के लिए चीन पर बहुत अधिक निर्भर है.

ट्रंप के अमेरिका को आत्मनिर्भर बनाने की मंशा की घोषणा के तीन दिन बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 अप्रैल 2020 को राष्ट्रीय पंचायत दिवस के मौके पर पंचायत प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए कहा कि कोरोना ने काम का तरीका बदल दिया, हमें आत्मनिर्भर बनना होगा. 12 मई को 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा के दौरान भी मोदी ने आत्मनिर्भरता, लोकल मैन्य़ुफैक्चरिंग, लोकल मार्केट और लोकल सप्लाई चेन की बात की.

सप्लाई चेन किसी वाणिज्यिक सामान के उत्पादन से लेकर उपभोक्ता को बिक्री तक की प्रक्रिया को कहा जाता है. उदारीकरण के बाद भारत में आपूर्ति श्रृंखला बिगड़ने का सबसे ज्यादा असर मजदूरों पर पड़ा है, जिन्हें रोजगार के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा है. कोरोनाकाल ने भारत को सीख दी है कि उद्योगों का विकेंद्रीकरण किया जाए, जिससे लोगों को स्थानीय स्तर पर काम मिल सके.

उत्तर प्रदेश में थे रोजगार के कई केंद्र

इस समस्या को देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के उदाहरण से समझा जा सकता है. उदारीकरण के पहले उत्तर प्रदेश के मंडल मुख्यालय किसी न किसी खास उद्योग के केंद्र होते थे. इसके अलावा मंडल मुख्यालय पर एक सरकारी मेडिकल कॉलेज, एक इंजीनियरिंग कॉलेज और एक विश्वविद्यालय की परिकल्पना की गई. गोरखपुर, वाराणसी, इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ, कानपुर, अलीगढ़ रोजगार के बड़े केंद्र थे, जहां लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिल जाता था.

सबसे पहले गोरखपुर मंडल मुख्यालय का उदाहरण लेते हैं. गोरखपुर में दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, मदन मोहन मालवीय इंजीनियरिंग कॉलेज और बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज हैं. भले ही ये खस्ताहाल हैं और आबादी बढ़ने के साथ कोई नया विश्वविद्यालय, मेडिकल कॉलेज नहीं बना, लेकिन पुराने अभी जिंदा हैं. इसके अलावा खाद कारखाना और देश के 4 रेलवे मुख्यालयों में से पूर्वोत्तर रेलवे का मुख्यालय गोरखपुर में है, जो रोजगार का बड़ा केंद्र है. खाद कारखाना हर चुनाव में चालू कराया जाता है, लेकिन वह किसी भी हाल में पिछले 2 दशक से चालू होने को तैयार नहीं हो रहा है.


यह भी पढ़ें : भीड़ वाली जगहों से न हटाए गए तो कोरोना बम बन जाएंगे प्रवासी गरीब


अब गोरखपुर जिले के कम लोगों को ही मालूम होगा कि गोरखपुर हैंडलूम, शहद, रेशम, अमरूद, पनियाला उत्पादन और चमड़े के कारोबार का बड़ा केंद्र था. 1991 के पहले वयस्क रहे लोगों को अभी संभवत: याद होगा कि लच्छीपुर का अमरूद और पनियाला खूब बिकता था. इसके अलावा पनियाला के बागानों में बड़े पैमाने पर शहद और रेशम उत्पादन होता था. गोरखनाथ रेलवे फ्लाईओवर के नीचे से लेकर सूरजकुंड तक रेलवे लाइन के किनारे जानवरों की खाल सुखाई जाती थी. गोरखनाथ मंदिर के चारों तरफ हिंदू और मुस्लिमों की मिली जुली बस्ती में दिन रात हैंडलूम की खटपट सुनाई देती थी. अब यह सब चीजें आपको 30 साल पहले की जनरल नॉलेज की किताबों में गोरखपुर के प्रमुख उत्पादन व रोजगार के साधन नाम के अध्याय में मिलेंगी.

उत्पादन में एक समय था वाराणसी का जलवा

इसी तरह से बनारस में साडियां व भदोही का कालीन विश्व प्रसिद्ध रहा है. इसके अलावा वाराणसी के लकड़ी के खिलौने दूर-दूर तक बिकते थे. वाराणसी में बुद्ध के उपदेश के केंद्र सारनाथ, 4 जैन तीर्थंकरों के जन्म स्थल, लिंगायत शैव का मुख्यालय, काशी विश्वनाथ मंदिर, ईरान के विद्वान की कब्र, संस्कृत से अंग्रेजी भाषा में पुस्तकों को लाने वाले अंग्रेज विद्वान की कब्र होने के साथ साथ काशी हिंदू विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, सारनाथ का बौद्ध विश्वविद्यालय, उदय प्रताप स्वायत्तशासी महाविद्यालय रोजगार देने और पठन पाठन के बड़े केंद्र रहे हैं.

बनारस से सटे इलाहाबाद विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा भी जबरदस्त रही है और करीब 4 दशक पहले वहां पूरे देश से उसी तरह से आईएएस बनने की इच्छा लेकर विद्यार्थी पहुंचते थे, जैसे इस समय इंजीनियरिंग व मेडिकल में प्रवेश की इच्छा लेकर बच्चे कोटा पहुंचते हैं. अब आईएएस की पढ़ाई का केंद्र दिल्ली के मुखर्जी नगर और गांधी नगर में स्थानांतरित हो चुका है.

लखनऊ राजधानी होने के कारण सरकारी नौकरियों का मुख्य केंद्र था. कृषि की स्थिति देखें तो लखनऊ के दशहरी आम विश्व प्रसिद्ध रहे हैं. वहीं पड़ोसी शहर कानपुर उद्योग का बड़ा केंद्र रहा है. कानपुर की लाल इमली फैक्टरी का ऊन पूरे देश में जाता था. इसके अलावा स्कूटर बनाने व लखनऊ में ऑटो बनाने की बड़ी कंपनी थी. कानपुर का चर्म उद्योग भी विश्व प्रसिद्ध है. चर्म उद्योग जो किसी तरह से घिसट घिसटकर चल रहा है. लाल इमली फैक्टरी बंद है. उसके अलावा जेके टायर्स समूह का कारोबार भी कानपुर से ही शुरू हुआ था, जिसका मुख्यालय दिल्ली शिफ्ट हो गया और कारोबार कई प्रमुख शहरों में केंद्रित हो गए.

अलीगढ़ का ताला उद्योग, मुरादाबाद में पीतल की मूर्तियों व बर्तन का उद्योग, मेरठ के खेल के सामान, क्रिकेट के बल्ले स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर प्रसिद्ध थे.

इन मंडल मुख्यालयों पर बनाए गए रोजगार के केंद्र या तो पूरी तरह से बंद हो गए हैं, या खुद इतने बीमार हैं कि वह कर्मचारियों को वेतन देने की स्थिति में नहीं हैं. कमोबेश यही स्थिति पूरे देश की है. रोजगार के मंडलीय केंद्र और वहां के प्रमुख उत्पाद सामान्य ज्ञान की पुरानी किताबों में ही मिलते हैं.

इसका परिणाम यह हुआ कि देश भर में मजदूरों की भगदड़ मच गई. हर राज्य से तेज विस्थापन शुरू हुए. रोजी रोजगार की तलाश में बड़े पैमाने पर लोग महानगरों की ओर निकल पड़े.

रोजगार के शहरी केंद्रों का मॉडल

दिल्ली-एनसीआर, मुंबई, हैदराबाद, सूरत, बेंगलूरु, पुणे जैसे कुछ चुनिंदा शहरों में रोजगार चला गया और रोजगार की तलाश में देश के विभिन्न इलाकों से लोग इन शहरों की ओर बढ़े. महानगरों में भीड़ भयावह हो गई. इस विस्थापन ने कामगारों में असुरक्षा पैदा की. रोजगार की तलाश में बड़े शहरों में आए लोगों के परिवार, पट्टीदार, रिश्तेदार उनके अपने जन्मस्थान वाले शहरों या गांवों में छूट गए. जब लोग मंडल मुख्यालयों पर रोजगार करने आते थे तो महीने या दो महीने में वे अपने परिवार या रिश्तेदारों से मिल लेते थे. महानगरों में सैकड़ों या हजारों किलोमीटर दूर विस्थापित लोगों का उन लोगों से रिश्ता टूट गया, जिनसे वे पीढिय़ों से मनोवैज्ञानिक सहारा पाते थे.


यह भी पढ़ें : भारत के लिए औपचारिक अर्थव्यवस्था की ओर जाने का बड़ा मौका लेकर आया है कोविड-19 संकट


कोरोनावायरस के कारण हुई बंदी और भारत के विभिन्न महानगरों से मची भगदड़ ने रोजगार के केंद्रीकरण की इस आपदा को उजागर कर दिया है. इस वैश्विक आपदा ने एक बार नए सिरे से यह सोचने पर मजबूर किया है कि लोगों के पैतृक आवास या जन्म स्थान से न्यूनतम दूरी पर रोजगार मुहैया कराया जाए.

अमेरिका और यूरोप के देशों में आयात पर निर्भरता बढ़ी है. अमेरिका अपने ज्यादातर औषधीय उत्पादों का आयात भारत और चीन से करता है. आपात स्थिति ने यह समझाया है कि आपूर्ति श्रंखला अगर दूर है तो किस तरह की समस्याएं सामने आती हैं. पश्चिमी देशों में स्थिति यह है कि बच्चा पैदा होता है तो चीन का खिलौना उसके हाथ में होता है. वही हाल भारत का हुआ है और ज्यादातर भारतीयों को तो पता भी नहीं है कि बनारस वह शहर है, जहां से प्राचीन काल से खिलौनों का निर्यात विश्व भर में होता था.

उत्पादन का केंद्रीकरण बंद करना चाहिए

अमेरिका अब कह रहा है कि वह अपनी स्वतंत्रता को बाहरी स्रोत से सेवा लेने पर निर्भर नहीं रख सकता. राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा, ‘अगर हमने कोई एक बात सीखी है तो वह है कि यहीं पर यह करना होगा, इसका निर्माण यहीं करना होगा. हमें अपनी आपूर्ति श्रंखलाओं को वापस लाने का काम शुरू करना होगा. भारत को भी अब इस पर विचार करना होगा कि वह अपने लोगों को रोजी रोजगार देने के लिए विदेश या अपने देश के महानगरों पर निर्भरता कम करे और हर शहर के छोटे उत्पादन केंद्र तैयार करे.

स्वाभाविक कि हर चीज का उत्पादन किसी एक इलाके में नहीं किया जा सकता है, लेकिन अगर बिहार के भभुआ शहर में गुजरात की कंपनी अमूल दूध की आपूर्ति करती है, तो यह खतरनाक है क्योंकि भभुआ में भैंस पालन तो हो ही सकता है. देश भर में हैदराबाद से अंडे की आपूर्ति करने के बजाय उसके छोटे छोटे केंद्र बनाए जाएं, जिससे लागत में कमी आए और रोजगार के केंद्रीकरण को रोका जा सके. अगर किसी एक मंडल में शिक्षा, स्वास्थ्य, रेशम उत्पादन, फल उत्पादन की एक व्यवस्था हो तो वह व्यवस्था निश्चित रूप से सिर्फ रोजी रोजगार ही नहीं, आपूर्ति के स्तर पर भी आत्मनिर्भर इकाई बन सकती है.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

share & View comments