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Thursday, 21 November, 2024
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रोस्टर के बारे में जानिए उनसे, जो इसके बारे में सबसे ज़्यादा जानते हैं

रिज़र्वेशन लागू करने के तरीके यानी रोस्टर को लेकर संसद समेत देश भर में मचे हंगामे के बीच जानिए यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन के पूर्व चेयरमैन की राय

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सरकार अनुसूचित जाति (एसटी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) को आबादी के अनुपात में आरक्षण देती है. इसका मकसद विश्वविद्यालयों में आबादी के अनुरूप उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है. इसी मकसद से डीओपीटी यानी कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग ने रोस्टर के नियम बनाए. सरकार के विभागों में विभागस्तर पर ज़्यादा कर्मचारी होते हैं और वहां रोस्टर से आबादी के अनुपात में एससी-एसटी को आरक्षण मिल जाता है.

लेकिन केंद्रीय विश्वविद्यालयों और संस्थानों के विभागों में फैकल्टी की संख्या कम होती है और कहीं-कहीं तो बहुत कम. इस वजह से वहां कई बार एससी और एसटी को क्रमशः 15% और 7.5% आरक्षण से काफी कम प्रतिनिधित्व मिल पाता है. इसलिए यूजीसी चेयरमैन के तौर पर मेरे कार्यकाल (2006-11) के दौरान आयोग ने विश्वविद्यालय स्तर पर आरक्षण तय करने और उसके अनुसार विभागों के सीटों के बंटवारे का फैसला लिया था. यह कदम एससी-एसटी के आरक्षण का अतिक्रमण नहीं करता बल्कि उनका आरक्षण सुनिश्चित करता है.

जेएनयू और दिल्ली यूनिवर्सिटी में आरक्षण लागू करने का अनुभव

जब मैं जेएनयू में था तो वहां इस मामले में मेरा अनुभव अच्छा था. अस्सी के शुरुआती दशक तक फैकल्टी में अनौपचारिक रूप से आरक्षण का पालन होता था. अस्सी के दशक के तकरीबन मध्य में जेएनयू के तत्कालीन वाइस चांसलर वाइ.के. अलघ ने वहां आरक्षण नीति और उसमें सुधार की समीक्षा के लिए मेरी अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी. समिति ने विश्वविद्यालय स्तर पर आरक्षण लागू करने की अनुशंसा की, जिसे स्वीकार कर लिया गया.


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उसके तहत विश्वविद्यालय एससी/एसटी सेल के माध्यम से 15% और 7.5% के अनुपात में सीटें तय कर लेता था और विभिन्न केंद्रों को बांट देता था. उन केंद्रों के स्कूल विषय और उपलब्धता के आधार पर उनमें बदलाव कर लेते थे. कंप्यूटर साइंस या विदेशी भाषाओं के विभाग अनुपलब्धता के कारण हाथ खींच लेते थे. हिंदी भाषा जैसे कुछ स्कूल/विभाग अपने यहां ज़्यादा सीटों की उलब्धता के कारण आरक्षण के लिए ज़्यादा सीटें देने को राजी हो जाते थे. इससे एससी-एसटी को क्रमशः 15% और 7.5% आरक्षण सुनिश्चित करने में मदद मिलती थी.

दिल्ली विश्वविद्यालय लंबे अरसे तक आरक्षण का विरोध करता रहा. उसने यह तक कहा था कि वह स्वायत्त संस्था है और ‘स्टेट बाइ इटसेल्फ’ है, इसलिए आरक्षण उस पर लागू नहीं होता. यूजीसी को उनके अनुदान में कटौती की धमकी तक देनी पड़ी. ज़ाहिर है, दिल्ली विश्वविद्यालय में आरक्षण लागू होने में काफी वक्त लगा.

नियम ऐसे न हों कि आरक्षण के प्रावधान निष्प्रभावी हो जाएं

अगर विभागावार रोस्टर लागू होता है तो एससी को 15%, एसटी को 7.5%, ओबीसी को 27% और आर्थिक रूप से कमज़ोर उच्च जातियों के हालिया 10% आरक्षण के अनुपात में उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाएगा. कई विभागों में रोस्टर के लिए बहुत कम सीटें रहेंगी. नए केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कई विभागों में तो सीटें और भी कम हैं. ऐसे में विभागावार आरक्षण लागू होने से आरक्षण के मकसद को धक्का लगेगा.


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आरक्षण का मकसद इन समुदायों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है. कानून का पालन ऐसे होने चाहिए ताकि उनका मकसद पूरा हो. ऐसे नियम का कोई मतलब नहीं जिसका मकसद पूरा ही नहीं हो. अदालत को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए थी. उसे सरकार को कम-से-कम इस तरह नियम तैयार करने की सलाह देनी चाहिए थी ताकि आरक्षण का मकसद पूरा हो. लेकिन अदालत ने नियम के वैधानिकता की व्याख्या की और इस बात को नज़रअंदाज़ किया कि उससे क्या नुकसान या फायदा होगा. कानून के समक्ष सबकी समानता की भावना के यह खिलाफ है. अदालत के इस फैसले के एससी-एसटी-ओबीसी को नुकसान होगा, वह अपने फैसले के इस नतीजे से आंख कैसे मूंद सकती है.

सरकार, अकादमिक और अन्य लोगों में यह धारणा है कि जातिगत भेदभाव सिर्फ सामाजिक संबंधों में होते हैं, शैक्षणिक संस्थानों में नहीं. यह सही नहीं है. जातिगत भेदभाव हर जगह मौजूद है. 2007 में मेरी अध्यक्षता में गठित समिति ने खुलासा किया था कि एम्स में भेदभाव हो रहा था. तब एम्स की फैकल्टी और प्रशासन ने समिति के नतीजों का विरोध किया था. एक्ज़ीक्यूटिव काउंसिल ने मेरी रिपोर्ट को खारिज कर दिया था.


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विडंबना कि उसी संस्थान ने दो साल बाद अपने यहां भेदभाव की जांच करने के लिए मुझे एक अन्य समिति की अध्यक्षता करने को कहा क्योंकि एक अन्य एसटी छात्र ने आत्महत्या कर ली थी. बाद में उन्होंने अपने यहां परीक्षा, खासकर वाइवा और अन्य चीज़ों में कुछ बदलाव किए थे. उम्मीद है कि उससे वहां सकारात्मक माहौल बना होगा.

रोहित वेमुला एक्ट की मांग

विश्वविद्यालयों में विभिन्न रूपों में भेदभाव होता है. इसको लेकर कुछ अध्ययन भी हुए हैं. रोहित वेमुला की आत्महत्या ने भी लोगों का ध्यान खींचा है. यूजीसी ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ नियम बनाए हैं. दुखद बात यह कि अधिकतर संस्थान उसको लेकर जागरूक नहीं हैं. वेमुला मामले ने इस मसले को दोबारा ज़िंदा कर दिया. हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने मंत्रालय से उन नियमों को ऐक्ट (जिसे वे वेमुला ऐक्ट नाम देते हैं) में बदलने की मांग की ताकि शैक्षणिक संस्थानों में भेदभाव क्रिमिनल ऑफेन्स हो जाए. उस तरह जैसे रैगिंग को लेकर कदम उठाए गए और वह लगभग खत्म हो गया है. मंत्रालय से सिविक एजुकेशन या भेदभाव की समस्या, असमानता और विविधता के विषयों को भी कोर्स में शामिल करने की मांग की गई.

2000 में अमेरिका में नस्ल, रंग, जेंडर, राष्ट्रीता और धर्म से जुड़े भेदभाव से निपटने के लिए सिविक लर्निंग में नया कोर्स शुरू किया गया था. उसे ‘सिविक कैपिटल को सुधारने के लिए’ ‘सिटिज़नशिप एजुकेशन’ नाम दिया गया था. हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रों की मांग पर मंत्रालय राज़ी हो गया था. पर छात्रों की हड़ताल खत्म होने के बाद मंत्रालय ने उसको लेकर कुछ नहीं किया. राजनेता भी वेमुला को गैर-दलित घोषित करने और वीसी और लेबर मिनिस्टर के खिलाफ अत्याचार के मामले हटाने में कामयाब रहे. इस तरह उच्च शिक्षण संस्थानों में एससी छात्रों के साथ भेदभाव को लेकर सरकार के स्तर पर गंभीरता का भाव है. कैंपसों को जाति, जेंडर, धर्म और अन्य सामाजिक पहचान के आधार पर होने वाले भेदभाव से मुक्त करने के लिए हमें नई शुरूआत करनी होगी.

शिक्षा के अवसर से वंचित रह जाएंगे एससी-एसटी

एससी/एसटी की शिक्षा संकट में है क्योंकि यह भारी असमानता की ओर बढ़ रहा है. राज्य और केंद्रीय विश्वविद्यालय, सरकार और निजी अनुदान वाले कॉलेज ही एससी/एसटी छात्रों की शिक्षा का मुख्य जरिया रहे हैं. हालांकि उनके दाखिले का अनुपात फिर भी अन्य समूहों के मुकाबले कम रहा है. अब निजी विश्वविद्यालयों और सेल्फ-फाइनेंसिंग कॉलेजों के ज़रिये शिक्षा का तेज़ी से निजीकरण हो रहा है. अब 44% विश्वविद्यालय निजी हैं और जल्दी ही वे सरकारी विश्वविद्यालयों से ज़्यादा हो जाएंगे. 90% से ज़्यादा कॉलेज और अंडरग्रेजुएट संस्थान सेल्फ-फाइनेंस्ड हैं.

निजी संस्थानों में भारी फीस और आरक्षण नहीं होने से, वहां एससी/एसटी/ओबीसी और गरीब सवर्णों की पहुंच बहुत कम है. एजुकेशन को लेकर 2014 का नेशनल सैंपल सर्वे खुलासा करता है कि सेल्फ-फाइनेंस्ड संस्थानों में गरीबों का दाखिला बहुत ही कम था. यह शिक्षा में असमानता पैदा करेगा, खासकर प्रोफेशनल एजुकेशन में. इससे गरीबों के रोज़गार की संभावना घटेगी और नतीजतन आर्थिक असमानता पैदा होगी.

शिक्षा बुनियादी ज़रूरत है और इससे समान अवसर मिलते हैं. यूरोपीय देशों ने शिक्षा को जीडीपी की ज़्यादा हिस्सेदारी मुहैया करके अपनी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को मज़बूत किया है. लेकिन भारत में उच्च शिक्षा पर खर्च घटा दिया गया और निजीकरण को बढ़ावा दिया गया. बजट में कमी ने एससी/एसटी के स्कॉलरशिप को भी बुरी तरह प्रभावित किया है. डॉ. आंबेडकर ने 1945 में पोस्ट-मैट्रिक स्कॉलरशिप शुरू किया था, वह भी खतरे में है. केंद्र सरकार ने फंड को कम कर दिया है और तकरीबन उसे केंद्र से राज्य की योजनाओं में बदल दिया है. हमें सार्वजनकि शिक्षा व्यवस्था को सुधारने की ज़रूरत है. साथ ही प्राइवेट एजुकेशन को उचित नीति के ज़रिये गरीब-हितैषी भी बनाने की ज़रूरत है.

(लेखक यूनिवर्सिटी ग्राट कमीशन के चेयरमैन रहे हैं. देश के प्रमुख अर्थशास्त्री हैं. जामिया मीडिया से पीएचडी कर रहे सरोज कुमार ने उनसे बातचीत के अधार पर ये आलेख तैयार किया है.)

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