झारंखड की राजधानी रांची में लालपुर चौक पर बने बिरसा मुंडा स्मारक स्थल पर बनी बिरसा मुंडा की मूर्ति को 13 जून को किसी ने खंडित कर दिया. अगले दिन सुबह यह खबर फैलते ही शहर में उत्तेजना का वातावरण बन गया. गैर-आदिवासी समाज बिरसा मुंडा के बारे में बहुत कम जानता है. उसे समझ नहीं है कि बिरसा का आदिवासी समुदाय के बीच क्या महत्व है. वह अधिक से अधिक इतना जानता है कि बिरसा आदिवासियों के लिए भगवान स्वरूप हैं. इसलिए जरूरी है कि हम उन्हें ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझे और जानें.
बिरसा मुंडा साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ युद्ध के उद्घोष के प्रतीक हैं. वे औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ आदिवासी जनता के निर्णायक संघर्ष के प्रतीक माने जाते हैं. जिस वक्त राजनीति की मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस अंग्रेजों की छत्रछाया में सीमित आंतरिक स्वशासन या होम रूल की मांग कर रही थी, उससे कई दशक पूर्व बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों से मुक्ति के खिलाफ निर्णायक संघर्ष का ऐलान किया और पूरी ताकत से उनसे लड़े भी.
बिरसा मुंडा का जीवन और संघर्ष
वह 1895 का समय था. पूरा आदिवासी समाज साल-दर-साल चले आ रहे शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ भीतर-ही-भीतर सुलग रहा था. मुंडा राज की वापसी की उद्घोषणा हो चुकी थी. जरूरत थी उस आंदोलन का नेतृत्व करने वाले एक नायक की. बिरसा मुंडा उस विद्रोह के नायक बनकर उभरे. रांची जिला के तमाड़ थाना के एक गांव चलकद से उन्होंने मुंडा राज के स्थापना की उद्घोषणा की.
बिरसा मुंडा के बारे में उस वक्त रोमन कैथोलिक मिशन, सर्वदा, के फादर हाफमैन ने लिखा है- ‘मुझे स्पष्ट रूप से याद है कि उरांव सरदार किस तरह सामान्य ग्रामीणों से आग्रह करते थे कि वे बिरसा भगवान की धर्मस्थली को जायें. शुरू में मैंने इस बात को कोई खास महत्व नहीं दिया. लेकिन जल्द ही मैंने देखा कि बड़ी संख्या में सभी दिशाओं से लोग चलकद पहुंच रहे हैं. मैं उरांव-मुंडा सरदारों के प्रति संदेह से भर गया. वहां से चमत्कारिक घटनाओं की बातें फैल रही थीं. गंभीर रोगों के शिकार लोगों के रोग मुक्ति की बातें, मृतकों के जी उठने की बातें. मैं खुद ऐसे लोगों से मिला जो बीमार लोगों को वहां ले जा रहे थे. बिरसा छोटानागपुर के भगवान बन चुका था.’
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हाफमैन आगे लिखते हैं, ‘यह एक सच्चाई थी कि न सिर्फ मुंडा, बल्कि उरांव समुदाय के लोग बड़ी संख्या में बिरसाइत बन रहे थे. अचानक उस धर्मगुरू और उसके शिष्यों ने यह घोषणा की कि आकाश से जल्द ही आग बरसेगी और जो बिरसा के अनुयायी बन चुके हैं, उन्हें छोड़कर सभी जलकर राख हो जायेंगे. इस घोषणा के बाद चलकद और उसके समीप के पर्वत शिखर एक विशाल छावनी में बदल गये. लोग चावल और अन्य जो कुछ भी खाने की वस्तुएं उपलब्ध थीं, उसे पहाड़ पर ले जा रहे थे. चलकद का धार्मिक आवरण छंट रहा था और उसका राजनीतिक रूप प्रकट हो रहा था, क्योंकि पहाड़ पर जमा होने वाले लोग हथियारों से लैस हो रहे थे. बिरसा मुंडा खुद यह ऐलान कर रहे थे कि महारानी का ‘राज’ खत्म हो रहा है और उसका मुंडा राज शुरू हो रहा है. उन्होंने पैगंबर की तरह यह भी घोषणा की कि यदि अंग्रेज सरकार ने उनके विरोध की कोशिश की तो बंदूकें लकड़ी के कुंदे में बदल जायेंगी और उससे निकलने वाली गोली पानी में बदल जायेगी.’
चलकद पहाड़ी पर जो कुछ भी हो रहा था, उससे अंग्रेज अधिकारी सशंकित हो उठे. रांची के पुलिस अधीक्षक मि. पियर्स पुलिस बल के साथ चलकद के लिए रवाना हुए और 24 अगस्त, 1895 की रात बिरसा को गिरफ्तार करने में सफल हो गये. उन्हें उनके 15 शिष्यों के साथ गिरफ्तार कर रांची ले जाया गया, वह भी पैदल. उन पर उस वक्त तक कोई गंभीर आरोप नहीं था. लेकिन उन्हें जंजीरों से जकड़ रखा गया था. अंग्रेज अधिकारी शायद आदिवासी जनता को यह दिखाना चाहते थे कि देखो, जिसे तुम अपना भगवान मानते हो, उसकी हैसियत क्या है!
रांची में उन पर और अन्य समर्थकों पर इंडियन पैनल कोड की धारा 505 के तहत मुकदमा चलाया गया और उन्हें दो वर्ष कैद की सजा दी गयी. उनकी गिरफ्तारी के बाद उस इलाके में खामोशी छा गयी, लेकिन यह खामोशी आने वाले तूफान के पहले की खामोशी थी.
फिर भड़का उठा विद्रोह
दो वर्ष बाद बिरसा रिहा हुए. जनवरी 1898 में रांची के निकट चुटिया के हिंदू मंदिर में कुछ तोड़ फोड़ हुई. इस सिलसिले में कुछ मुंडा नेताओं को गिरफ्तार किया गया. जिन्हें गिरफ्तार किया गया, उनका बयान था कि ऐसा उन्होंने बिरसा भगवान के कहने पर किया है.
इसके बाद बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी के लिए एक बार फिर वारंट जारी कर दिया गया. लेकिन इस बार बिरसा तत्काल गिरफ्त में नहीं आये. 24 दिसंबर, 1899 को वे सामने आए और रांची के दक्षिणी हिस्से तथा सिंहभूम के उत्तरी क्षेत्र में कोहराम मच गया. सर्वत्र मारकाट मच गयी. खूंटी थाना पर आक्रमण कर एक कांस्टेबल की हत्या कर दी गयी. जमींदारों के घर लूट लिये गये. अंग्रेज अधिकारियों को अपनी जान बचाने के लिए सुरक्षित स्थानों पर पनाह लेनी पड़ी. हथियारबंद मुंडा समुदाय के लोग बिरसा मुंडा के आसपास इकट्ठा हो गये थे.
उनसे निबटने के लिए अंग्रेजों ने सेना को मार्च करने का आदेश दिया. उन लोगों ने सैलराकुब हिल को घेर लिया. बिरसा मुंडा और उनके समर्थकों को हथियार डाल देने का आदेश दिया गया, जिसे उन लोगों ने ठुकरा दिया. और फिर पर्वत गोलियों की आवाज से गूंज उठा. बड़ी संख्या में लोग मारे गये. कुछ भाग गये.
3 फरवरी, 1900 को बिरसा मुंडा को सिंहभूम के उपायुक्त ने गिरफ्तार कर लिया. 3 जून को रांची जेल में उनकी मौत हो गयी. अंग्रेजों के मुताबिक उन्हें कॉलरा हो गया था.
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क्यों किया था बिरसा ने विद्रोह?
जे. रीड कहते हैं- ‘सरदारी लड़ाई के रूप में विख्यात उस आंदोलन का उद्देश्य जमींदारों को मार भगाना और मूलवासियों को परंपरा से मिले अधिकारों को फिर से बहाल करना था. लेकिन बिरसा उससे आगे निकल गये थे. बिरसा ने सेना तैयार की, न सिर्फ जमींदारों से लड़ने के लिए, बल्कि अंग्रेजों को उस क्षेत्र से भगा देने के लिए. उसने मुंडा राज की स्थापना का संकल्प लिया, उसने घोषणा की और खुद को उस राज का प्रमुख बताया. उसके सिद्धांत धार्मिक विचारों और स्थानीय राजनीति का अद्भुत घालमेल था. उसका अपने लोगों पर गहरा प्रभाव था और सरकार ने त्वरित कार्रवाई कर उस पर काबू नहीं पाया होता तो वह पूरे छोटानागपुर में अंग्रेज सरकार के लिए मुसीबत बन गया होता.’
बिरसा के आंदोलन के कारण बदल गए कानून
कोल-विद्रोह के करीब सत्तर वर्ष और संथाल विद्रोह के लगभग 45 वर्ष बाद बिरसा विद्रोह हुआ था. लेकिन तीनों के कारण लगभग एक थे. इस इलाके के मूलवासी अपने परंपरागत अधिकारों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे. उन्हें अंग्रेजों की दासता किसी रूप में स्वीकार नहीं थी. अंग्रेज अधिकारियों ने इस विद्रोह के बाद इस क्षेत्र में विशेष भू-संरक्षण कानून छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट बनाया, जिसमें आदिवासियों और मूलवासियों के परंपरागत अधिकारों को तरजीह दी गयी. इसी विद्रोह के साथ ही पूरे मुंडा प्रदेश में भूमि का संपूर्ण सर्वे कर रिकॉर्ड आफ राइट को अंतिम रूप दिया गया और बेगारी प्रथा को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया गया. इसी तरह का विशेष कानून संथाल परगना क्षेत्र के लिए भी बनाया गया.
इन्हीं कानूनों की वजह से अभी भी आदिवासी समुदाय के पास थोड़ी जमीन बची हुई है. लेकिन नयी औद्योगिक नीति और आर्थिक उदारीकरण के पैरोकार उस जमीन से भी उन्हें वंचित कर देना चाहते है, इसलिए आदिवासी आज भी जगह-जगह आंदोलित हैं.
(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है)