scorecardresearch
Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतथरूर या खड़गे मायने नहीं रखते, कांग्रेस नेता की परिभाषा बदलनी चाहिए

थरूर या खड़गे मायने नहीं रखते, कांग्रेस नेता की परिभाषा बदलनी चाहिए

क्या कांग्रेस के नेता सरपरस्ती की खोज का त्याग कर सकते हैं? इसी सवाल का जवाब यकीनन देश की सबसे पुरानी पार्टी का भविष्य तय करेगा.

Text Size:

पहले एक कबूलनामा: मुझे सिर्फ राजनैतिक गपशप ही अच्छी लगती है. इधर, मुझे अपने मनोरंजन के सबसे पसंदीदा शगल आला दर्जे के सियासी ड्रामा को देखने की जरूरत लगभग नहीं रह गई है. मैं पूरे यकीन से नहीं कह सकती कि मैं अपनी पसंदीदा मौजूदा ड्रामा सीरीज की तर्ज पर कांग्रेस पार्टी के नाकाम रहने के लिए वाकई उसका शुक्रिया कहना चाहती हूं. आपकी जानने में दिलचस्पी हो तो यह बैरों नवां (फ्रांसिसी सियासी ड्रामा, शीर्षक का मतलब रिपब्लिकन गैंगस्टर्स) है. इसे जरूर देखें, चाहे सबटाइटिल के साथ.

हालांकि, अब तक मैं कांग्रेस से जुड़ी गपशप से कुछ हद तक बोर हो चुकी हूं, जिसे नेशनल न्यूज की तरह पेश किया जा रहा है. अशोक गहलोत, सचिन पायलट, शशि थरूर, दिग्विजय सिंह, उन जैसे कई दूसरे और अब मल्लिकार्जुन खड़गे के इर्द-गिर्द शोर-शराबा लगता है कि बस होहल्ला भर है, कोई खास मायने नहीं रखता. अगर मैं मीडिया स्टडीज की स्टूडेंट होती तो मैं पिछले हफ्ते की घटिया स्टोरियों और मीम को लाजवाब ब्लॉकबस्टर सक्सेसन के किसी क्लिप पर चस्पां कर देती. लेकिन मैं इतिहासकार हूं और राजनीति को गंभीरता से लेती हूं. इस मायने में और दूरदराज यूनिवर्सिटी के सुकूनदायक माहौल में बैठकर देखने से एक अलग तस्वीर उभरती है.


यह भी पढ़ें: आप भाजपा का बेझिझक एक और आलसी संस्करण है


इंदिरा की कांग्रेस का खात्मा

यह उस कांग्रेस पार्टी का पटाक्षेप है, जिसे इंदिरा गांधी ने बनाया था. हां, आप सही पढ़ रहे हैं. पार्टी के कई मौजूदा दिग्गजों ने, खासकर मगर तथाकथित जी-23 गुट के ही नहीं, अपनी सियासी यात्रा उन्हीं के दौर में शुरू किया था या उन दशकों के नेताओं के सरपरस्ती में आगे बढ़े थे. इसमें अशोक गहलोत भी हैं.

यह पटाक्षेप बस पीढ़ीगत परिवर्तन नहीं है, बल्कि यह ऐसा परिवर्तन है, जिसकी मांग आज भारत की नई राजनैतिक हकीकत करती है. एक तो, 1969 में विभाजन के बाद इंदिरा गांधी ने जिस कांग्रेस पार्टी को नए सिरे से बनाया, उसका ज्यादा सरोकार सत्ता हासिल करना और उसे कायम रखना था. व्यावहारिकता या इस मान्यता ने भारत के इतिहास में एक अलग तरह की या कहिए, निर्दयी किस्म की नई राजनीति का जन्म दिया कि विचार तभी अच्छे हैं जब वे कामयाब और व्यावहारिक हों.

कांग्रेस के मामले में सबसे खास यह था कि इंदिरा गांधी की विशाल शख्सियत और पार्टी में फर्क नहीं रह गया था. नतीजतन, एक नए तरह के राजनैतिक नेता का जन्म हुआ, जो निहायत दर्जे का खुदगर्ज था. इंदिरा के कांग्रेस ने राजनैतिक कर्म को त्याग करने का दायित्व मानने के विचार को उलट दिया, जो पहले की पीढ़ियों की प्रेरणा था और जिन्होंने पार्टी और वाकई भारत को औपनिवेशिक राज से राष्ट्रीय स्वराज की ओर ले जाने में भूमिका निभाई. इंदिरा युग में सत्ता के लिए विशुद्ध आक्रामक खेल ने आदर्शवाद या राजनैतिक सिद्धांतों को पीछे कर दिया.

इंदिरा गांधी के दौर में कांग्रेस पार्टी सरपरस्तों और मातहतों की व्यवस्था में बदल गई, क्योंकि राजनैतिक नेता उन धड़ों या समाज के तबकों से अलग हो गए, जिनका वे प्रतिनिधित्व करते थे. सत्ता उन्हीं से निकलती और उन्हीं पर खत्म होती थी. कुल मिलाकर यह व्यवस्था तभी संभव थी, जब कांग्रेस सत्ता की पार्टी थी.

इंदिरा गांधी की हिंसक मौत के 40 साल बाद, भारत का लोकतंत्र नाटकीय रूप से बदल गया है. राजनैतिक सत्ता न सिर्फ बहुआयामी हो गई है, बल्कि उसका बंटवारा कई पार्टियों, सामाजिक समूहों, और क्षेत्रों में हो चुका है. दरअसल, इंदिरा के कांग्रेस को चुनौती जाति, धर्म, क्षेत्र और कई बार महज गैर-कांग्रेसवाद के बेहद धारदार सामाजिक आंदोलनों से मिली. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) इसी तरह आई, क्योंकि उसने अपनी विशेष विचारधारा पर तो बल दिया, मगर उसने अपने लिए सामाजिक गोलबंदी तैयार की.

इसके उलट, बीच के दौर में और 10 साल सरकार में रहने के बावजूद, कांग्रेस पार्टी के खांटी नेता, कुछेक अपवादों को छोड़कर, कायम रहे, जो गुटबाजी और सरपस्ती हासिल करने में माहिर हैं. इसलिए पार्टी के विरोधियों के लिए कांग्रेस के विधायक, चाहे पंजाब या राजस्थान या गोवा हो, आसान नहीं तो प्रमुख निशाने पर हैं. आखिरकार, यह सवाल बना हुआ है कि अब सबसे पुरानी पार्टी सत्ता-मशीन नहीं बची है तो वे किसलिए बने हुए हैं?

विविध वर्गों की सरपरस्ती से लेकर वैचारिक आस्था

चाहे आप रोमांटिक या बेमतलब कहकर खारिज कर दें, मगर सिद्धांत ही दरअसल राजनीति को बनाते या बिगाड़ते हैं. सिद्धांत ही सत्ता कायम करते हैं. तार्किक ढंग और कुछ विकृत तरीके से यही इकलौता सबक है, जो सत्तारूढ़ बीजेपी ने भारतीय लोकतंत्र को दिया है. हिंदू राष्ट्रवाद के लिए उसके ‘सिद्धांत पहले’ के प्रोजेक्ट ने औसत बीजेपी पार्टी कार्यकर्ता को ‘प्रतिबद्ध’ राजनैतिक व्यक्ति की तरह पहचान दी है. मुझे यह भी एहसास है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के साथ काडर-आधारित पार्टी का पेचीदा ढांचा, कम से कम लोकप्रिय धारणा के मुताबिक, खास बीजेपी नेताओं को बिक्री की वस्तु नहीं बनने देता है या पाला बदलने का कोई खतरा नहीं होता. उसका सत्ता से खास लेना-देना नहीं है. अब सत्तारूढ़ पार्टी के मंत्री और राज्यसभा सांसद चुपचाप बैठे दिखते हैं.

यह कांग्रेस नेताओं के लिए चिंता का सबब होना चाहिए. पार्टी पदानुक्रम के विभिन्न स्तरों के बीच सरपरस्ती अब खास फायदे का खेल नहीं रहा. और यह पार्टी में, चाहे कोई किसी पद पर हो, उच्च पदों से लेकर क्षेत्रीय दलालों, दिल्ली की मीडिया के पसंदीदा चेहरे और पार्टी दफ्तरों में बैठे अनजान ऑपरेटरों तक सबके लिए सही है.

पार्टी के आधिकारिक पद के दोनों दावेदारों खड़गे और थरूर में कुछ भी साझा नहीं है. आखिरकार, यह बेमानी है कि कौन विशाल और मोटे तौर पर खोखले-से कांग्रेस पार्टी मशीनरी के शिखर पर पहुंचता है. इस छोटी सत्ता के दौर में कांग्रेस के नेता को नए सिरे से परिभाषित किए बगैर उच्च पद का दायित्व भुतहा लगेगा.

नेतृत्व का चुनाव कांग्रेस के लिए अहम है. नहीं, उसकी मृत्यु के लिए नहीं, क्योंकि ऐसी भविष्यवाणियां तो उतनी ही पुरानी हैं, जितनी यह पार्टी. इसके बदले, यह पार्टी के लिए मूल विरासत की ओर जाने की व्यवस्था बनाने के लिए खास मौका है. लंबी भारत जोड़ो यात्रा के ये शुरुआती दिन हैं, जो सिद्धांत पर चलने के लिए जन संपर्क के महात्मा के विचारों पर चलती लगती है.

क्या कांग्रेस के नेता सरपरस्ती की तलाश को छोड़ सकते हैं? चाहे गप कहें या नहीं, इसी सवाल का जवाब वाकई देश की सबसे पुरानी पार्टी का भाग्य यकीनन तय करेगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(श्रुति कपिला कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में इंडियन हिस्ट्री और ग्लोबल पॉलिटिकल थॉट की प्रोफेसर हैं. वह @shrutikapila पर ट्वीट करती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


यह भी पढ़ें: BJP नहीं, उससे पहले तो लोहिया जैसे समाजवादियों ने ही नेहरू को खारिज कर दिया था


 

share & View comments