कांग्रेस ने दो दशक से भी लंबे समय के बाद चुनाव के जरिए अपना नया अध्यक्ष चुना है. राजनीतिक औपचारिकता के नाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई नेताओं और दलों ने मल्लिकार्जुन खड़गे के अध्यक्ष बनने का स्वागत किया है. लेकिन बहुजन विचारधारा के कई नेता और बुद्धिजीवी इस घटनाक्रम को संशय और संदेह की नजर से देख रहे हैं. खड़गे को अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस आखिर क्या हासिल करना चाहती है?
बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने खड़गे को अध्यक्ष बनाने के मसले पर कांग्रेस की तीखी आलोचना का है. उन्होंने ट्वीट करके पूछा कि – ‘कांग्रेस पार्टी को अपने अच्छे दिनों के लंबे समय में अधिकांश गैर-दलितों को एवं वर्तमान की तरह सत्ता से बाहर बुरे दिनों में दलितों को आगे रखने की याद आती है. क्या यह छलावा व छद्म राजनीति नहीं?’
1. कांग्रेस का इतिहास गवाह है कि इन्होंने दलितों व उपेक्षितों के मसीहा परमपूज्य बाबा साहेब डा भीमराव अम्बेडकर व इनके समाज की हमेशा उपेक्षा/तिरस्कार किया। इस पार्टी को अपने अच्छे दिनों में दलितों की सुरक्षा व सम्मान की याद नहीं आती बल्कि बुरे दिनों में इनको बलि का बकरा बनाते हैं।
— Mayawati (@Mayawati) October 20, 2022
इस प्रसंग में दूसरी आलोचना चुनाव प्रक्रिया के स्कॉलर सुजात आंबेडकर की ओर से आई. भारत जोड़ो आंदोलन के लिए चुने गए रास्ते में ज्यादातर गैर-बीजेपी प्रदेशों के होने और फिर खड़गे को अध्यक्ष बनाने की कांग्रेस की रणनीति में उन्हें एक पैटर्न दिखता है. वे पूछते हैं कि – ‘क्या कांग्रेस ने मान लिया है कि बीजेपी के वोट शेयर को कम करने में वह पूरी तरह नाकाम हो चुकी है? क्या कांग्रेस तमाम छोटे और स्वतंत्र दलित-बहुजन-आदिवासी-मुस्लिम शक्तियों और क्षेत्रीय दलों को कमजोर करके उन पर कब्जा करना चाहती है?’
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कांग्रेस की रणनीति और इसके असंतोष
कांग्रेस अपने पुराने गौरवशाली दिनों की वापसी के लिए दलित वोट की तरफ देख रही है. दलित वोटों को खींचने के लिए कांग्रेस का ये दूसरा या तीसरा बड़ा दांव है. सितंबर 2021 में कांग्रेस ने एससी समुदाय से आए नेता चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब में मुख्यमंत्री बनाया था. उस समय पिछले मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के शासन का बोझ यानी एंटी इनकंबेंसी बहुत हावी थी. चन्नी जब मुख्यमंत्री बने तो चुनाव सिर पर आ चुके थे. चन्नी को काम करने के लिए मुश्किल से कुछ दिन ही मिल पाए क्योंकि जनवरी आते ही मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट लागू हो गया. इस दौरान भी वे सरकार चलाने से ज्यादा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और दूसरी गुटबाजी से जूझते रहे. चन्नी कांग्रेस को वापस सत्ता में लाने में फेल हो गए या फेल कर दिए गए.
इस बीच कांग्रेस ने यूपी में भी एससी समुदाय के नेता बृजलाल खाबरी को अध्यक्ष बनाया है. बृजलाल खाबरी कांग्रेस में आने से पहले बीएसपी से सांसद थे.
दरअसल, कांग्रेस की चुनावी राजनीति में दलित वोट इस समय बेहद महत्वपूर्ण हो गया है. परंपरागत रूप से आजादी के बाद से कांग्रेस ब्राह्मण-मुसलमान-दलित समीकरण पर चलती रही. ऐसा नहीं है कि बाकी समुदाय के वोट उसे नहीं मिलते थे, बल्कि समुदायों की ये तिकड़ी कांग्रेस का कोर वोट हुआ करती थी. ये समीकरण 80 और 90 का दशक आते-आते कमजोर पड़ा और राम मंदिर आंदोलन और मंडल कमीशन के पक्ष और विपक्ष में हुई गोलबंदी में ये समीकरण बिखर गया.
इस बीच मजबूत हुए बहुजन आंदोलन से यूपी की राजनीति तो पूरी तरह बदल गई. उत्तर भारत में दलित वोट का बड़ा हिस्सा कांग्रेस से छिटक गया. वहीं, मुसलमान वोट उन दलों की ओर चले गए, जिनके बारे में मुसलमानों ने माना कि वे बीजेपी को हरा सकते हैं. कोर वोट के दो आधार के कमजोर पड़ने के बाद ब्राह्मण वोट भी कांग्रेस को छोड़कर बीजेपी की ओर चला गया. कई चुनावी सर्वे में ये बात उभरकर सामने आ रही है.
कांग्रेस के तीन पुराने आधार वोटरों की मुख्य प्रवृत्तियों को इस तरह देखा जा सकता है. हालांकि, इसमें कई पेच और पेच के अंदर पेच होते हैं.
1. मुसलमान: 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद खासकर उत्तर भारत के मुसलमानों के वोटिंग व्यवहार का मुख्य तत्व बीजेपी विरोध है. यानी ये वोट उस दल या उम्मीदवार को मिलता है, जो बीजेपी को हराने के लिए सबसे मजबूत स्थिति में है. यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु जैसे राज्यों में कांग्रेस कमजोर स्थिति में है और यहां मुसलमान वोट गैर-कांग्रेस, गैर-बीजेपी दलों को मिलता है. जहां कांग्रेस सीधे मुकाबले में है, वहां मुसलमान कांग्रेस से पक्ष में जाते हैं.
2. ब्राह्मण: कभी कांग्रेस के सबसे वफादार वोट बैंक रहे ब्राह्मणों का बड़ा हिस्सा 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के पाले में चला गया और अब भी वहीं बना हुआ है. बीजेपी इस वोट बैंक को टिकाए रखने के लिए लगातार जुटी रहती है. इन प्रयासों में ईडब्ल्यूएस सवर्ण आरक्षण, जम्मू-कश्मीर का बंटवारा और धारा 370 की समाप्ति, राम मंदिर और काशी कॉरिडोर का निर्माण आदि शामिल है.
3. अनुसूचित जाति: ये वोट मुसलमानों या ब्राह्मणों की तरह झुंड में वोट नहीं डालता. सिर्फ उत्तर प्रदेश में ये वोट काफी हद तक एकमुश्त बीएसपी को मिलता रहा है. 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीएसपी को 13 प्रतिशत वोट मिला, जिसमें एससी वोट प्रमुख हैं. बीजेपी की तमाम कोशिशों के बावजूद, एससी का बीजेपी के साथ कोई मधुर और टिकाऊ संबंध नहीं बन पाया है. बीच बीच में होने वाली घटनाएं, जैसे रोहित वेमुला की हॉस्टल में आत्महत्या, ऊना में दलितों की पिटाई या आरक्षण के प्रावधानों के लागू न होने या एससी, एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के रुख आदि के कारण सरकार को लेकर दलितों में असंतोष बना हुआ है.
कांग्रेस के रणनीतिकारों को मालूम है कि सवर्ण और खासकर ब्राह्मण वोट आसानी से उसके पास नहीं आएगा. ये वोट बीजेपी से दो ही स्थितियों में टूट सकता है. एक, देश में आर्थिक संकट इतना गंभीर हो जाए कि इसकी मार से मध्य वर्ग और इलीट परेशान हो जाएं और दो, बीजेपी इतनी कमजोर हो जाए कि उसकी सरकार बनने की संभावना खत्म हो जाए और विकल्प के तौर पर दूसरी पार्टी की तलाश शुरू हो जाए. वहीं मुसलमानों का वोट लेने के लिए कांग्रेस को खुद को मजबूत करना पड़ेगा.
यही वो स्थिति है जिसकी वजह से कांग्रेस कभी चन्नी, तो कभी खाबरी तो अब खड़गे को आगे ला रही है. खड़गे को तो कांग्रेस ने पार्टी की कमान ही सौंप दी है. लेकिन ऐसा करते हुए कांग्रेस की नजर बीजेपी के वोटरों पर कम और क्षेत्रीय और बहुजन दलों के वोटर पर ज्यादा है, लेकिन हर दल दूसरों की कीमत पर खुद को मजबूत करने की कोशिश करता है, इससे किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए, बल्कि इससे निपटने की रणनीति बनानी चाहिए.
कांग्रेस पर ये आरोप एक हद तक सही है कि वह दलित नेतृत्व को उस दौर में आगे कर रही है, जब उसके सितारे गर्दिश में हैं. पिछले 50 साल में कांग्रेस में कोई दलित अध्यक्ष नहीं बना. कांग्रेस के लंबे इतिहास में खड़गे से पहले सिर्फ जगजीवन राम पार्टी अध्यक्ष बने और वो 1970-71 की बात है. अब ऐसा लगता है कि कांग्रेस 2024 का लोकसभा चुनाव खड़गे की अध्यक्षता में लड़ेगी.
आंबेडकरवादी वेबसाइट वेलीवाड़ा के संस्थापक प्रदीप अत्री इसे एक रणनीतिक चतुराई वाला कदम मानते हैं. वे लिखते हैं कि, ‘कांग्रेस इस समय एक डूबता हुआ जहाज है और इसके पतन के लिए किसी को जिम्मेदार ठहराना है तो एक दलित क्यों नहीं? हालांकि इसमें एक बुरी बात ये है कि इससे ये बनी-बनाई धारणा मजबूत होगी कि दलित सक्षम नेता नहीं होते.’ उन्होंने अमेरिकी कॉरपोरेट जगत को लेकर हुए एक अध्ययन का भी हवाला दिया है जिसमें पता चला है कि जब कंपनियां या उनके विभाग संकट में होते हैं तो वे डायवर्सिटी के तहत कमजोर तबकों से नियुक्ति करते हैं या ऐसे लोगों को जिम्मेदारियां देते हैं.
(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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