भारत और दुनिया भर के सिख तीर्थयात्रियों के लिए करतारपुर गलियारे को खोला जाना नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही संभावनाओं से भरा है. ये इस बात पर निर्भर करेगा कि दोनों पड़ोसी देश इसे किस दिशा में ले जाना चाहते हैं. भारतीय पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भारतीय मीडिया के एक वर्ग के इस आकलन को बल दिया है कि पाकिस्तान का ये कदम दरअसल खालिस्तान मुद्दे को फिर से हवा देने की उसकी चाल के तहत उठाया गया है.
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की सरकार द्वारा जारी एक प्रचार वीडियो में जरनैल सिंह भिंडरावाले को दिखाए जाने पर चिंता व्यक्त की गई है, मानो भारत के नेताओं ने इससे पहले पाकिस्तानी पंजाब के गांवों और कस्बों में इस खालिस्तानी आतंकवादी के पोस्टर लगे नहीं देखे हों. पंजाब में 1980 के दशक का उग्रवाद और हिंसक गतिविधियों में शामिल होने की इच्छा भले ही खत्म हो चुके हों, पर सिख पहचान का बोध गायब नहीं हुआ है.
दोधारी तलवार
क्या पाकिस्तान खालिस्तान के मुद्दे को फिर से सुलगाना चाहता है या एक भू-राजनीतिक साधन के रूप में करतारपुर गलियारे का उपयोग करना चाहता है? दोनों का ही उत्तर ‘हां’ है, जो अजीब नहीं है क्योंकि ऐतिहासिक रूप से भारत और पाकिस्तान दोनों ने ही एक-दूसरे के असंतुष्ट समुदायों का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है और, भला किस देश ने परोपकारी कारणों से कभी कोई काम किया है?
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कम-से-कम गलियारे का खुलना भारत के लिए एक संकेत है कि इससे अन्य संभावनाएं बन सकती हैं, जिससे कि क्षेत्र में शांति और स्थिरता का माहौल बन सके. इसने दो पंजाबों के बीच आवागमन के विचार को नए सिरे से आगे किया है. ये पहल भविष्य में कहां तक जाती है इसकी जिम्मेदारी दोनों ही पक्षों पर है, न कि किसी एक पर. पाकिस्तान की स्थिति को भारत चाहे जिस रूप में देखता हो, पर शांति की पहल कमजोर स्थिति से नहीं आती है. बालाकोट प्रकरण के बाद पाकिस्तान की स्थिति वैसी ही है जो 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के अंत में थी. वह भारत के ताकत के दिखावे और उसकी क्षमताओं के बीच के फासले को उजागर करने में सक्षम है.
करतारपुर कॉरिडोर खोले जाने के परिणामस्वरूप आगे चलकर कुछ आवाजाही और व्यापार संभव हो सकता है, जोकि पाकिस्तानी सेना की निगरानी में हो. पाकिस्तानी सेना मुख्यालय (जीएचक्यू) दोनों देशों के बीच नियंत्रित संपर्क को पसंद करता है, जोकि पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के इरादे से बिल्कुल अलग है क्योंकि शरीफ़ सेना की निगरानी से मुक्त और मात्र आर्थिक सिद्धांतों से प्रेरित संबंधों के पक्ष में थे. सेना ने शरीफ़ की व्यापार-पहल को इसलिए भी संदिग्ध माना था क्योंकि उसमें सेना और उसके लोगों की भागीदारी की गुंजाइश नहीं बनाई गई थी. करतारपुर गलियारा, जिसकी लागत ज्ञात नहीं है, उन चिंताओं को कम करता है.
सूत्रों की मानें तो करतारपुर पहलकदमी का पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्वागत किया गया है, क्योंकि पिछले कुछ दशकों के दौरान वहां के लोग भारत के साथ संबंधों के बारे में अपने पुरानी राय को छोड़ चुके हैं. पंजाब के लोग कहीं अधिक संपर्क के हामी हैं, कम-से-कम व्यापार के क्षेत्र में. वास्तव में, करतारपुर कॉरिडोर खोले जाने से जुड़ी समस्या ये है कि पाकिस्तान के अन्य तीन सूबों की जनता अपनी उपेक्षा को महसूस करने लगी हैं और मायूस है. उनका सवाल है, खैबर पख्तूनख्वा या सिंध के बनिस्बत पंजाब को सीमा-पार संपर्क विकसित करने का अधिक अधिकार क्यों है?
दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना की रणनीति के हवाले से एक अतिवादी दृष्टिकोण ये है कि भारतीय पंजाब और विदेशों में रह रहे सिखों के मन में स्वतंत्र खालिस्तान राष्ट्र की स्थापना की आकांक्षा को बिठाने के प्रयास किए जाएं. सिख आबादी भारत तथा शेष दुनिया, विशेष रूप से कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन के बीच बंटी हुई है.
अलगाव पर काबू पाने की कोशिश
हाल के वर्षों में पाकिस्तानी सेना ने सिखों में दोबारा रुचि दिखाना शुरू कर दिया है. सूत्रों का कहना है कि एक नीतिगत पहल के तहत दुनिया भर में पाकिस्तानी राजनयिक मिशन सभी आधिकारिक कार्यक्रमों में सिखों को आमंत्रित करते हैं. लेकिन जब तक भारत असाधारण दमनात्मक रवैया अख्तियार नहीं करता है, पंजाब में उग्रवाद को दोबारा 1980 के दशक के पैमाने पर ले जाना संभव नहीं है. पूर्वी पंजाब के सिखों के लिए भारत के साथ संघर्ष का एक और दौर शुरू करना आसान नहीं है, क्योंकि पहले ही वे बहुत खून-खराबा देख चुके हैं. संघर्ष फिर से पंजाब की सड़कों पर दिखे इसके लिए भारतीय शासन द्वारा दमन की किसी बड़ी घटना को अंजाम दिए जाने की दरकार होगी. जहां तक प्रवासी सिखों की बात है, तो स्वतंत्र खालिस्तान राष्ट्र के लिए ‘रेफरेंडम 2020’ अभियान के बावजूद इस मुद्दे पर सहमति का अभाव नज़र आता है.
लेकिन यह असमर्थता दुनिया को ये बताकर घरेलू या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि पर धब्बा लगाने के प्रयासों में बाधक नहीं है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में नियमित चुनाव तो होते हैं, लेकिन अब भी वहां राजनीतिक उदारवाद का अभाव है. हिंदुत्व की विचारधारा के प्रसार और बदहाल धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय सम्मिलित रूप से भारत की कोई बेहतरीन छवि नहीं बनाते हैं और पाकिस्तानी सेना छवियों की इस लड़ाई में कूदने के लिए तैयार दिखती है.
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लगता है अक्टूबर 2016 के ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान को दंडित और अलग-थलग करने की नरेंद्र मोदी की दुनिया से अपील पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान के दिमाग में अटक गई है. उसके बाद से विदेशों में पाकिस्तान की छवि को सुधारने की पुरज़ोर कोशिशें हुई हैं. डोनाल्ड ट्रंप से संबंध सुधारने से लेकर ब्रिटिश राजपरिवार के सदस्यों के स्वागत और पश्चिमी व्लॉगरों की सहायता लेने तक- इनमें से कतिपय प्रयास पाकिस्तान की बहुत ही खराब छवि को बदलने में मददगार साबित हो सकते हैं. इन सारे प्रयासों के केंद्र में ये संदेश है कि पाकिस्तान अलग-थलग पड़ा हुआ नहीं है.
छवि सुधारने की कवायद
करतारपुर कॉरिडोर भी छवि सुधारने के प्रयासों का हिस्सा है , जो दुनिया और भारत के अल्पसंख्यकों के लिए एक संदेश है कि जिन्ना के पाकिस्तान में हिंदुत्व-शासित भारत की अपेक्षा कहीं अधिक खुलापन है.
Today all minorities of India should have again realised that vision of our great leader Muhammad Ali Jinnah about Hindutva was absolutely right. They would now regret more convincingly to be part of India.#UglyIndia pic.twitter.com/V5UTAopxGK
— Asif Ghafoor (@peaceforchange) November 9, 2019
पाकिस्तान में ईसाई, हिंदू और अहमदी जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों को जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, उसके मद्देनज़र पाकिस्तानी सशस्त्र सेनाओं के प्रवक्ता मेजर जनरल आसिफ गफूर का दावा सही नहीं है. हालांकि, यह उस अंतर्निहित रणनीति को दर्शाता है कि जिसके अनुसार पाकिस्तान ने पसंदीदा अल्पसंख्यक के रूप में सिखों को इसलिए चुना है ताकि भारत के समान रूप से बहुसंख्यकवादी राजनीतिक तंत्र में सिखों के तनाव के अहसास को उभारा जा सके. सैन्य-रणनीतिक दृष्टिकोण से देखें तो करतारपुर गलियारा पाकिस्तान के लिए सहानुभूति पैदा करेगा जोकि भविष्य में पड़ोसी देशों के बीच किसी संभावित संघर्ष की स्थिति में फायदेमंद साबित होगा.
खालिस्तान समर्थक प्रवासी समूहों द्वारा जनमत संग्रह के आह्वान का भले ही कोई परिणाम नहीं निकले, पर शायद ये भारतीय राज्य के आंतरिक मतभेदों को सतह पर लाने का काम करे. अपने अल्पसंख्यकों से भारत के सलूक और कश्मीर मुद्दे पर पहले ही दुनिया भर में सवाल उठाए जा रहे हैं. अमेरिकी संसद में कश्मीर में मानवाधिकार के मुद्दों पर दो बार सुनवाई हो चुकी है.
करतारपुर कॉरिडोर: एक दोतरफा रास्ता
इसका ये मतलब कतई नहीं है कि दुनिया भारत के साथ मेलजोल रखने को तैयार नहीं है. जब तक भारत के पास खर्च करने की ताकत है, दुनिया उसे सबकुछ बेचेगी- लड़ाकू विमान और परमाणु पनडुब्बी से लेकर फैशनेबल चीज़ तक.
आखिरकार, दुनिया सऊदी अरब के साथ भी लेनदेन करती ही है. लेकिन कश्मीर मुद्दे या भारत के अन्य घरेलू मुद्दों को उठाया जाना इस वास्तविकता को रेखांकित करता है कि दुनिया केवल बॉलीवुड और भारतीय इतिहास तक ही अपनी दृष्टि को सीमित नहीं रखती है.
उल्लेखनीय है कि जब दुनिया भर के देश अपने बारे में अधिक सोचने लगे हैं और लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कायम रखने की कम परवाह करने लगे हैं, तो ऐसे में मानवाधिकार विदेश नीति का अहम हिस्सा और एक शक्तिशाली राजनीतिक हथियार बन गया है जिसे कि अपनी सुविधानुसार इस्तेमाल किया जाता है. देश विशेष की विदेश नीति या घरेलू प्राथमिकताओं के अनुरूप दुनिया के एक छोर पर स्थित किसी समुदाय के मानवाधिकारों को किसी दूसरे की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण करार दिया जा सकता है. अमेरिका को फलीस्तीनियों के मानवाधिकार के सवाल को उठाने में भले ही परेशानी होती हो, लेकिन वह चीनी उइगरों या हांगकांग के प्रदर्शनकारियों के पक्ष में खुलकर बोलता है. इस तर्क का ये भी मतलब हुआ कि जब तक एक राष्ट्र दूसरे के राजनीतिक और सामाजिक लोकाचार में रचा-बसा नहीं हो, जैसे कि इज़रायल पश्चिमी जगत के लिए है, शेष विश्व से उसके व्यवहार के बारे में सवाल उठेंगे.
करतारपुर कॉरिडोर को बंद करना मुश्किल होगा, जोकि एक महत्वपूर्ण तथ्य है. वास्तव में भारत और पाकिस्तान को ये तय करना है कि वे इस पहल का उपयोग आगे और अवसरों की तलाश के लिए करें या दीर्घावधि का शीत-युद्ध लड़ें.
(लेखिका यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के एसओएएस केंद्र में रिसर्च एसोसिएट हैं. उन्होंने ‘मिलिट्री इंक: इनसाइड पाकिस्तांस मिलिट्री इकोनॉमी’ नामक पुस्तक लिखी है. उनका ट्विटर हैंडल @iamthedrifter है. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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