गुजरात में कुछ दशक पहले बीजेपी का नारा था ‘एक तक भाजपाने’ यानी एक मौका बीजेपी को. अलबत्ता गुजरात में ‘गैर-कांग्रेसवाद’ की आहट 1950 के दशक में ही सुनाई पड़ने लगी थी, लेकिन 1985 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के माधव सिंह सोलंकी ने कुल 182 में से 149 सीटें जीतकर ऐसा रिकॉर्ड बनाया, जिसे नरेंद्र मोदी भी अपने हिंदुत्व, अस्मिता और विकास के नारों से नहीं तोड़ सके. सोलंकी की वह भारी सफलता मोटे तौर पर खाम यानी क्षत्रीय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमान के कामयाब समीकरण की देन थी.
लेकिन 1985 में आरक्षण विरोधी और सांप्रदायिक दंगों ने जल्दी ही कांग्रेस की संभावनाओं को दक्षिणायन कर दिया. बीजेपी ने ‘एक टक’ (एक मौका) प्रचार अभियान शुरू किया. गुजरात में लगभग 25 साल के राज के बाद अब आम आदमी पार्टी (आप) के मुखिया अरविंद केजरीवाल की बीजेपी के खिलाफ एक मौका मांगने की बारी है. गुजरात में आप का नारा है ‘एक मोको केजरीवालने.’
केजरीवाल जैसा चतुर नेता प्रेरणा के लिए हमेशा मोदी की बीजेपी पर भरोसा कर सकते हैं, खासकर जब गुजरात में विधानसभा चुनाव की गर्मी चढ़ने लगी है. केजरीवाल की भ्रष्टाचार-विरोधी नारे पर सवारी के काफी पहले, मोदी ने अपनी भ्रष्टाचार विरोधी छवि का बड़ा आक्रामक प्रचार किया और गुजराती नारा गढ़ा: ‘खातो नथी ने खावा देतो नथी’ यानी न खाएंगे, न खाने देंगे. हालांकि गुजरात में विभिन्न सरकारी विभागों में काम कर रहे लोग आपको बताएंगे कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं. लेकिन मध्य और आकांक्षी वर्ग जिसे सांप्रदायिक एजेंडे के साथ ‘विकास’ का नशीला पेय भ्रष्टाचार विरोध के तड़के के साथ पिलाया गया था, जमीनी हकीकत को नजरअंदाज करने को तैयार था.
मोदी ने बतौर मुख्यमंत्री केंद्र में लोकपाल बिल के समर्थन में अन्ना हजारे को एक खुली चिट्ठी लिखी, लेकिन वे गुजरात में लोकपाल नहीं चाहते थे. अन्ना हजारे की वाहवाही से मोदी और केजरीवाल दोनों को अपनी राजनैतिक पूंजी जुटाने में कामयाबी मिली. लेकिन अब वे दोनों जरूर जान गए होंगे कि प्रभावी लोकपाल बिल सपना बेचने के लिए तो अच्छा है मगर उस पर अमल करना मुश्किल है और उसका सामना करना तो और भी मुश्किल है.
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मध्य वर्ग से वीआईपी राजनीति तक
मोदी का सत्ता की राजनीति में करियर गुजरात में 2002 के सांप्रददायिक दंगों से शुरू होता है. कुछ साल तक वे आक्रामक और बगावती तेवर अपनाए रहे, तो विकास के एजेंडे के साथ नए दायरे में आए. केजरीवाल ने अपनी नाराज, पीड़ित, मध्यवर्गीय, गैर-वीआईपी छवि को खूव भुनाया. लेकिन उन्हें ऐसी राजनीति का लंबी अवधि में बेमानीपन का एहसास जरूर हो गया होगा, तो उन्होंने ऐसे नेता की छवि बनाई, जिसने आक्रामकता को छोड़ दिया है. मोदी की वोटरों पर लगातार प्रचार की बम वर्षा और करोड़ों सार्वजनिक रकम बहाने की रणनीति भी केजरीवाल को रास आई. इसलिए गुजराती अखबारों में दिल्ली और पंजाब सरकार की ‘उपलब्धियों’ के पूरे पेज के विज्ञापन भी छपते रहे.
बीजेपी के साइबर सेल से भी केजरीवाल को प्रेरणा मिली होगी. सोशल मीडिया पर आप की मौजूदगी भारी है. इतना फर्क अवश्य करना चाहिए कि आप की सेल बीजेपी के हैंडल की तरह लगातार झूठ और नफरत नहीं फैलाती है, लेकिन आप की हर आलोचना पर अमूमन उतनी ही तेजी से वार होता है, जिसमें झूठ, अर्धसत्य और नफरत में फर्क करना मुश्किल हो जाता है. मसलन, पंजाब के नवनियुक्त मुख्यमंत्री भगवंत मान की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई. उसमें पृष्ठभूमि में भीमराव अंबेडकर और भगत सिंह की फोटो लगी है. जब लोगों ने महात्मा गांधी की तस्वीर की गैर-मौजूदगी पर सवाल उठाया, जिनके नाम पर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाया गया, तो कई आप समर्थकों को यह नागवार गुजरा और सीधीसादी समज के बदले अपनी वफादारी ही दिखाई.
महात्मा गांधी के मामले में मोदी को उनकी तस्वीर और उनके उपदेशों को सुविधानुसार पेश करने में कोई परहजे नहीं है, जबकि काम उलटा ही करते हैं. उधर, केजरीवाल गांधी के प्रति हमदर्दी मगर सुरक्षित दूरी रखकर चलते हैं. मौजूदा मौजूदा परिदृश्य में कोई भी नेता यह भांप सकता है कि गांधी के और हिंदू-मुसलमान एकता की उनकी कोशिशों के बारे में बात करने से, ध्रुवीकरण का शिकार हो चूके काफी वोटर बड़ी संख्या में नाराज हो सकते हैं.
मोदी की रणनीति से कुछ उधार
मोदी अपने पहले के अवतार में ध्रुवीकरण के मुद्दों पर काफी मुखर रहे हैं. बाद में यह सब अपने पिछलग्गुओं पर छोड़ दिया और जब संवेदनशील मसलों पर उनसे बोलने की उम्मीद की जाती है तो मौन साध लेते हैं. केजरीवाल ने वही रणनीति ज्यादा कामयाबी से अपनाई. उन्होंने नागरिकता (संशोधन) कानून के खिलाफ 2019 में शाहीन बाग प्रदर्शनों और 2020 में पूर्वी दिल्ली दंगों पर कोई स्टैंड नहीं लिया. उससे आप एक ‘विचारधारा निरपेक्ष’ पार्टी हो गई. यह खुश-खुश रवैया लगता है, लेकिन पूरी तरह ध्रुवीकरण के मौजूदा माहौल में स्टैंड न लेना, अगर उसे अवसरवाद न कहें तो भी, एक स्टैंड ही है.
जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने तो तकरीबन आधा दर्जन दावेदार थे. समय के साथ पार्टी कई वरिष्ठ और युवा दावेदारों को किनारे लगा दिया. फिर, मोदी ने केंद्र में कामयाबी के साथ वही दोहराया. केजरीवाल का तरीका अलग है, लेकिन कार्यशैली अलग नहीं है. जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने, तो उनके आसपास कई नेक नीयत वाले योग्य लोग हुआ करते थे. लेकिन, जैसे वे अपने करियर में आगे बढ़ते गए, वे पार्टी में दूसरे योग्य लोगों को किनारे लगाने में सफल रहे. अब गुजरात में आप नहीं, केजरीवाल मौका मांग रहे हैं, जैसे बीजेपी वोटरों से मोदी के नाम पर वोट देने को कहती है.
सो, आश्चर्य नहीं कि केजरीवाल बीजेपी के चुनाव प्रबंधन की रणनीति से कुछ बातें अपनाएंगे. अलबत्ता आप ने अभी पन्ना प्रमुख नहीं बनाए हैं, उसकी हाइटेक, लो-प्रोफाइल चुनाव प्रबंधन टीम पूरी तरह पार्टी की राजनैतिक शाखा से अलग है, ठीक बीजेपी की तरह. चुनाव खर्च नेताओं के जरिए नहीं, बल्कि रणनीतिक टीम के जरिए होता है.
केजरीवाल ने गुजरात में मुफ्त बिजली (हर महीने 300 यूनिट तक), मुफ्त शिक्षा, बेरोजगारी भत्ता और बहुत कुछ का वादा किया है. आप चाहें तो इसे सब मिलाकर ‘अच्छे दिन’ कह सकते हैं.
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(उर्विश कोठारी अहमदाबाद स्थित वरिष्ठ स्तंभकार और लेखक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @urvish2020 है. विचार निजी हैं.)
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