लोकतंत्र का इतिहास बताता है कि राष्ट्रवाद और बहुसंख्यकों के धर्म का मेल एक ऐसा फॉर्मूला है, जिसे कोई मात नहीं दे सकता. इस बारे में दिल्ली के चुनाव नतीजे क्या रोशनी डालते हैं? हम जरा बात को और विस्तार देकर देखें. इसमें अगर आप समाजवाद को भी बड़ी कुशलता से शामिल कर दें तब तो यह फॉर्मूला मानो टाइटेनियम जैसे सबसे सख्त धातु में ढाला गया साबित होगा. इसे कोई भी तोड़ना तो क्या, चुनौती भी नहीं दे पाएगा. इस वास्तविकता में हम 2014 के बाद मोदी-शाह दौर में जीते आ रहे हैं.
इसने तमाम खेमों के पंडितों को अचंभे में डाल रखा है. अरुण शौरी की मशहूर उक्ति याद कीजिए, उन्होंने भाजपा को कांग्रेस+गाय कहा था. मेरे एक विख्यात मित्र ने, जो कोलकाता में रहते हैं और वाम राजनीति पर दशकों से नज़र रख रहे हैं, ताजा बजट के बाद इस उक्ति को इस तरह प्रस्तुत किया है कि नरेंद्र मोदी और कुछ नहीं बल्कि प्रकाश करात+सीएए हैं.
अब आपको समझ में आ गया होगा कि कांग्रेस के मुक़ाबले भाजपा की जीत का रिकॉर्ड 90 प्रतिशत का (मई 2019 में जीती गई सीटों के मुताबिक) क्यों है और वह कांग्रेस से 23 प्रतिशत ज्यादा वोट क्यों लाती है. जब राहुल गांधी मंदिर-मंदिर घूमते है तब वह एक अविश्वसनीय तमाशा लगता है और इससे भी बुरा यह कि वह बचाव का प्रयास लगता है. मानो वे कह रहे हों कि देखो, मैं भी हिंदू हूं. पश्चिम बंगाल में वामदल इसीलिए खत्म हो गए. इसके अलावा, कांग्रेस नेता बालाकोट में सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांगते हैं, अनुच्छेद 370, तीन तलाक, सबरीमाला पर दोहरी जबान में बोलते हैं और मोदी को ‘चोर’ बताते हैं.
ममता बनर्जी ने उनके लोकलुभावन समाजवाद को अपना लिया और उनके विपरीत, किसी भी धर्म के त्योहारों पर उनके रंग में रंगने, हिजाब तक पहनने को राजी दिखती हैं. यही नहीं, वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तरह राष्ट्रवादी भी बनने को तैयार हैं. भारत की पुरानी पार्टियां या तो खुद को इस तरह बदलने में असमर्थ हैं या इस हकीकत को कबूल करने के लिए तैयार नहीं हैं.
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तो फिर, ‘आप’ जैसी छोटी और नई पार्टी इन चुनौतियों को धता बताते हुए दिल्ली में दूसरी बार विपक्ष का सफाया करते हुए सत्ता में कैसे आ जाती है, जबकि सिर्फ नौ महीने पहले मई 2019 के लोकसभा चुनाव में वह भाजपा और कांग्रेस से नीचे तीसरे नंबर पर रही थी?
क्योंकि, राष्ट्रवाद+धर्म के मेल में समाजवाद को भी शामिल करना चुनाव के लिए सबसे मारक दांव होता है, लेकिन यह आपके विरोधियों की पहुंच से भी दूर नहीं होता. भारत माता, भगवान राम, रामचरितमानस, या समाजवाद/जनकल्याणवाद/लोकलुभावनवाद आदि किसी पर किसी पार्टी का एकाधिकार नहीं है. जीत के बाद केजरीवाल और उनकी पार्टी के प्रमुख नेताओं के भाषणों पर गौर कीजिए. उनमें भारतमाता की जय, वंदे मातरम, हनुमानजी के प्रति श्रद्धा सब कुछ मिलेगा, और ये नेता बिना तामझाम और शोर शराबे के मंदिरों की यात्रा भी करते दिखेंगे. महीनों से केजरीवाल और उनकी पार्टी को जेएनयू प्रकरण (जिसके बाद राहुल वहां गए), जामिया मिल्लिया, शाहीन बाग, सीएए जैसे कई मसलों और अपनी ‘तीर्थयात्रा स्कीम’ पर चुप्पी साधे रखने के लिए उलाहना का सामना करना पड़ा है. उनकी सफलता इस बात में है कि उन्होंने अपना धैर्य बनाए रखा. अगर वे उदारवाद/धर्मनिरपेक्षता के, ट्विटर द्वारा स्थापित मानदंडों पर खरे साबित होने के लिए इस दबाव के आगे जरा भी झुके होते तो अमित शाह उन्हें मिठाई का डिब्बा ही नहीं बल्कि हलवाई की पूरी दुकान ही भेज देते.
और तब वे भगवान और राष्ट्र, दोनों को गंवा चुके होते और उन्हें भाजपा का ही एकाधिकार बने रहने देते. उन्होंने न केवल इससे इनकार किया, बल्कि केजरीवाल ने तो टीवी पर हनुमान चालीसा इस गंभीरता के साथ पढ़ी मानो वे हिंदू देवी-देवता के सच्चे भक्त हों, न कि दो सदस्यीय सत्ताधारी जमात के. अगर आप कट्टर, ईश्वरभीरु हिंदू नहीं है, जैसा कि बड़ी संख्या में हिंदू हैं, तो यह धार्मिकता या आस्था की आक्रामक, क्रुद्ध मुद्रा में ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाने से ज्यादा विश्वसनीय अभिव्यक्ति है और, इससे आप मुसलमानों समेत दूसरे धर्मों को अपमानित नहीं करते. जिस तरह किसी मुसलमान के बारे में आप इसलिए कोई फैसला नहीं कर सकते कि वह मुसलमान जैसा दिखता, बोलता या इबादत करता है, उसी तरह यह भी अपनी धार्मिकता की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते किसी हिंदू की सिर्फ एक छवि भर है. दोनों ही दूसरों के लिए कोई आचार संहिता नहीं तय कर रहे हैं और न ही यह दबाव डाल रहे हैं कि इसका पालन करो वरना तुम्हारी नागरिकता भी जा सकती है.
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और राष्ट्रवाद के मामले में, याद कीजिए कि केजरीवाल सरकार ने शहीद होने वाले फ़ौजियों के परिवारों के लिए भारत में अभूतपूर्व सहायता राशि देने की सबसे पहले घोषणा की थी. अनुच्छेद 370 पर उसने भाजपा सरकार के साथ वोट दिया, और बालाकोट में सर्जिकल स्ट्राइक का स्वागत करते हुए फौज के दावों पर कोई संदेह नहीं जाहिर किया. जनकल्याण के मामले पर उसने नरेंद्र मोदी और उनकी उज्ज्वला स्कीम आदि की तर्ज पर अपनी स्कीम बनाई और उन्हें कुशलता से लागू करने का प्रबंध किया. इस तरह राष्ट्रवाद+जनकल्याणवाद+धर्म का मिश्रण तैयार हो गया. सबसे मार्के की रणनीति इन मसलों पर मोदी या भाजपा पर हमला न करने की रही.
इस चुनाव की सबसे बड़ी बात यह है कि मोदी-शाह के फार्मूले पर से उनका एकाधिकार तोड़ लिया गया है और उसे कोई भी अपना सकता है. मोदी को भाजपा से तो कोई छीन नहीं सकता, न ही आज ऐसा कोई नेता उभरता नज़र आ रहा है, जो 2024 में भी मोदी को चुनौती दे सके. लेकिन उनके विजयी फार्मूले पर से उनके विशेषाधिकार को तो तोड़ा ही जा सकता है और मुक़ाबले को एकतरफा बनने से रोका जा सकता है.
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