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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतकर्नाटक चुनाव दिखाता है कि 2024 में BJP को हराने के लिए किसी जादू की छड़ी की जरूरत नहीं

कर्नाटक चुनाव दिखाता है कि 2024 में BJP को हराने के लिए किसी जादू की छड़ी की जरूरत नहीं

कांग्रेस की जीत से बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर हराने का दरवाजा खुलता है और उस तक पहुंचने की राह निकलती है. विपक्ष को इस राह पर डटे रहना है.

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एक्जिट पोल से उन्हीं चीजों की पुष्टी हुई है जो कर्नाटक में बिल्कुल साफ दिख रही थीं: वहां इस बार कांग्रेस की जीत होने जा रही है. हां, सीटों की संख्या के बारे में जो अनुमान लगाया गया है उससे कुछ आशंका जागती है क्योंकि ज्यादातर एक्जिट पोल दिखा रहे हैं कि कांग्रेस को 110-115 सीटें मिलेंगी यानी यानी कांग्रेस के साथ “ऑपरेशन कीचड़ ” का खतरा बरकरार रहने वाला है. लेकिन, मुझे अब भी विश्वास है कांग्रेस को अच्छा खासा  बहुमत मिलेगा और यह भी हो सकता है कि पार्टी भारी-भरकम बहुमत हासिल कर ले. इस बार इंडिया टुडे एक्सिस माय इंडिया के अनुमान लीक से अलग नजर आ रहे हैं और मुझे ये ही अनुमान सही लग रहे हैं. इनमें कांग्रेस को 122-140, बीजेपी को 62-80 और जेडीएस को 20-25 सीटें मिलती बतायी गई हैं जो eedina.com के कराये एक बड़े चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण के निष्कर्षों मेल खाता है. संभावना यह भी है कि इन दोनों ही सर्वेक्षणों में कांग्रेस को मिलने जा रही सीटों की जो अधिकतम सीमा(140 सीट) बतायी गई है, पार्टी की सीटों का आंकड़ा उसके भी पार चला जाये.

अगर यह मोटा आकलन एकदम से गलत नहीं तो फिर यहां इस आकलन के आधार पर एक बड़ा सवाल पूछना बनता है कि : क्या कांग्रेस की इस जीत से कोई ऐसा नक्शा निकलता है जो अन्य राज्यों और 2024 के लोकसभा चुनावों की राह बता सके?  अगर आप राजनीति के बाजार में खड़े हैं तो आपको इन तीन सवालों के जवाब पता होने चाहिए: एक तो यह कि आखिर आपके पास देने के लिए कौन सा संदेश है? दूसरे ये कि आप ठीक-ठीक किन लोगों को यह संदेश सुनाना चाहते हैं यानी आपका लक्ष्य-श्रोता कौन है ? और, तीसरा सवाल ये कि आप अपने लक्ष्य-श्रोता तक पहुंचेंगे कैसे और किस तरह अपने संदेश पर उसका विश्वास हासिल करेंगे? क्या कर्नाटक का चुनाव कांग्रेस को ऐसा कोई नक्शा दे पायेगा जिसकी सुझायी राह पर चलते हुए पार्टी इन तीन सवालों का जवाब खोज ले ?

आने वाले 13 मई को जब चुनाव-परिणाम आयेंगे तो टीवी के पर्दे पर जिन बहसों का बोलबाला रहेगा, उनमें जाहिर है इन सवालों की गूंज आपको सुनने को नहीं मिलने जा रही. आपको टीवी के पर्दे पर 13 मई के दिन ज्यादातर तो यही सवाल सुनायी देने वाला है कि जीत का श्रेय किसे दिया जाना चाहिए और हार का जिम्मेवार किसे माना जाय. बीजेपी की जीत होती तो दरबारी एंकर इस जीत का सेहरा मोदी के सिर पर बांधते नहीं अघाते लेकिन अब वे ही एंकर प्रधानमंत्री की छवि की सुरक्षा में ढाल बनकर खड़े होंगे और दोष का ठीकरा बीजेपी के स्थानीय नेतृत्व के सिर पर फोड़ेंगे. ऐसे ही, कांग्रेस नेतृत्व सूबे में अपनी जीत का श्रेय पार्टी के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं— संभवतया पार्टी अध्यक्ष खड़गे और राहुल गांधी को देगा और दावा करेगा कि इस बार उसके सारे तीर निशाने पर बैठे.

इन दोनों ही किस्म की प्रतिक्रियाओं में एक हद तक सच्चाई का अंश है – बीजेपी के स्थानीय नेतृत्व को दोष बेशक दिया जाना चाहिए और इसी तरह कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व को श्रेय भी मिलना चाहिए— लेकिन इतने भर से कहानी पूरी नहीं होती. और फिर, जिसकी नजर सीधे 2024 के चुनाव पर हो उसके लिए दोष देने और श्रेय लेने का यह पूरा खेल ही बेमानी है.

शायद आपको ये हल्ला भी सुनने को मिले कि कर्नाटक में बीजेपी की हार पूर्वाभास करा रही है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन कैसा रहने वाला है. कांग्रेस के समर्थक शायद ऐसा हड़बड़िया ऐलान करते मिलें आपको कि यह बीजेपी के खात्मे की शुरूआत है. एंकर और बीजेपी के प्रवक्ता-गण(दरअसल, दोनों के बीच फर्क करना बड़ा कठिन हो चला है) आपको कहते मिलेंगे कि राज्य में हुए चुनावों का गणित लोकसभा के चुनावों पर लागू नहीं होता. यह बात सच है कि कर्नाटक के चुनाव-परिणाम शेष भारत तो क्या पड़ोसी तेलंगाना के मतदाताओं को भी शायद ही प्रभावित कर पायें. और, इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि विधान-सभा के चुनावों के रूझान लोकसभा के चुनाव तक जारी रहेंगे, भले ही वह राज्य खुद कर्नाटक ही क्यों ना हो.

साल 2024 में होने जा रहे चुनाव का मैदान फिलहाल  खुला है , उस दौड़ में अभी से किसी की जीत तय नहीं मानी जा सकती— कर्नाटक के चुनावी जनादेश का असल महत्व यही बताने में है. अगर सत्ताधारी बीजेपी कर्नाटक में दोबारा से जीतकर सरकार में आये तो इसका मतलब होगा, विपक्षी पार्टियां मनोवैज्ञानिक रूप से 2024 के चुनावी जंग से पहले ही हार गईं और मैच शुरू होने से पहले ही बीजेपी को वॉकओवर मिल गया. वहीं कर्नाटक में कांग्रेस की जीत से आड़े वक्त में यह जरूरी संदेश निकलेगा कि बीजेपी अराजेय कत्तई नहीं. इससे भारत जोड़ो यात्रा से पैदा हुई ऊर्जा जीवंत बनी रहेगी. कांग्रेस की जीत से पार्टी के कार्यकर्ताओं में यह भावना भी जागेगी कि मुकाबला मोदी बनाम राहुल का हो तो इसका मतलब ये कत्तई नहीं कि जीत हर बार मोदी की होनी है. कर्नाटक के चुनावी जनादेश का असल महत्व यही है—ना इससे कम और ना इससे ज्यादा.

साल 2024 के चुनाव के लिए मैदान खुला रखने के अलावा कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की जीत से विपक्ष को संभवतया जीत की राह दिखाता वह नक्शा भी मिल जाये जिसकी उसे जरूरत है. लेख में आगे एक्जिट-पोल से निकलने वाले कुछ मुख्य संदेशों का जिक्र है जिससे हमें इस दिशा में सोचने में मदद मिल सकती है.

सुशासन मायने रखता है.

पहली बात तो यह कि कर्नाटक के चुनाव ने सुशासन की अहमियत को रेखांकित किया है. कहीं कुशासन हो तो जनता उसे दंड देने के लिए तैयार बैठी है. अब यहां ये बात भी सच है कि अन्य राज्यों की तुलना में कर्नाटक के मतदाता सत्ताधारी पार्टी को सबक सिखाने में कहीं ज्यादा आगे हैं. ये भी लगता है कि बासवराज बोम्मई की सरकार पर निशाना साधना और उसे धूल चटाना आसान साबित हुआ. लेकिन यहां जरा ये भी सोचते चलें कि राजकाज के मामले में मोदी का रिकार्ड भी बेहतर नहीं है.

जरा याद करें नोटबंदी के वाकये को, कोविड-19 के दौरान प्रबंधन के मामले में हुई गड़बड़ियों को, सीमा पर चीन के साथ तनातनी के बीच हुए गड़बड़-झाले और रोजमर्रा के उन गड़बड़ घोटालों को जो लगातार सामने आते रहते हैं. अगर महंगाई बढ़ी है तो इसके जिम्मेदार बोम्मई नहीं बल्कि मोदी हैं और कर्नाटक में महंगाई के मुद्दे ने ही बीजेपी को सबसे करारी चोट दी है. जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है, गौतम अडाणी के गड़बड़-घोटाले का प्रकरण अब लोगों की रोजमर्रा की बातचीत का हिस्सा बन चला है और मोदी का जो आभामंडल बरसों से बना चला आ रहा था वह अब अपनी चमक खोने लगा है.

राजकाज का वास्तविक ट्रैक रिकार्ड नहीं बल्कि प्रचार प्रसार का जादू  केंद्र की मोदी सरकार और कर्नाटक की बोम्मई सरकार के बीच फर्क पैदा करता है. अगर विपक्ष इस छवि को दरका पाने का कोई तरीका खोज ले तो मोदी को हराया जा सकता है.


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सांप्रदायिकता तुरूप का पत्ता नहीं

दूसरी बात, एक्जिट-पोल जनादेश की जो तस्वीर पेश कर रहा है उससे साबित होता है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हर बार तुरूप का पत्ता साबित नहीं होता. कर्नाटक धर्मान्धता की राजनीति की परख की मानो कसौटी बन चला था क्योंकि बीजेपी ने इस सूबे को नफरत की प्रयोगशाला में तब्दील करने के लिहाज से कोई कोर-कसर  ना रख छोड़ा था—  यहां याद करें कि सूबे में हिजाब पहनने की बात पर कैसे हंगामा खड़ा किया गया या फिर किस तरह अजान पर अंकुश लगाने की बात उठी. प्रायोजित ढंग से भीड़-हत्या को अंजाम देने का मामला रहा हो या फिर लव-जिहाद का हौव्वा खड़ा करने से लेकर टीपू सुल्तान के बारे में मनगढ़न्त अफवाह फैलाने और राज्य की पाठ्यपुस्तकों के सांप्रदायीकरण का सवाल— इस कड़ी में कोई कितनी बातें  गिनाये ! खुद प्रधानमंत्री ने कर्नाटक के मतदाताओं को संबोधित करते हुए सांप्रदायिकता की जलती आग में आहूति डाली और बजरंग दल से बजरंग बली की तुक बैठाने जैसी फूहड़ बातें  की. चुनाव आयोग की दयादृष्टि के चलते  बीजेपी ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की तरकीबों को आजमाने में कोई कमी नहीं रखी.

इसके बावजूद मतदाताओं ने अपना मन नहीं बदला—मैंने इस स्तंभ के अंतर्गत अपने पिछले लेख में कहा भी था कि कर्नाटक में इस बार के चुनाव में सांप्रदायिकता का रंग हावी नहीं हो सका है. किसी भी एक्जिट-पोल के निष्कर्ष में ये बात नहीं कही गई कि मतदाताओं ने वोट डालने के लिए मुख्य रूप से जिन मुद्दों को महत्वपूर्ण माना उनमें हिन्दू-मुस्लिम का सवाल भी एक था. अगर ध्यान लगातार रोजमर्रा के मुद्दों जैसे महंगाई और बेरोजगारी पर टिकाये रखा जाये तो हिन्दू-मुस्लिम का सवाल निर्णायक चुनाव-मुद्दा नहीं बन पाता.

नजर कतार में खड़े सबसे आखिर के आदमी पर हो

तीसरा सबक ये है कि कांग्रेस को सामाजिक पिरामिड के सबसे निचले हिस्से पर नजर टिकाये रखनी होगी. इंडिया टुडे ने एक्जिट पोल के अपने आंकड़ों में बताया है कि कौन सी सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों ने किस पार्टी को वोट डाला. इससे पता चलता है कि लिंगायत समुदाय का बीजेपी से दामन छुड़ाकर कांग्रेस का पल्ला थामने की जो बात जोर-शोर से कही जा रही था, वैसा कुछ हुआ ही नहीं. बेशक वोक्कलिंगा समुदाय के मतदाताओं का बीजेपी को छिटपुट समर्थन मिला है लेकिन यह समुदाय मुख्य रूप से जेडी(एस) के साथ बना रहा. माना जा रहा था कि अनुसूचित जाति के लेफ्ट-राइट समुदाय (दलित समाज के भीतर ऊपरी और निचले तबकों के लिए कर्नाटक में यह नाम चलते हैं) के बीच बंट जायेंगे लेकिन एक्जिट-पोल से ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता. आशंका थी कि मुस्लिम समुदाय के वोट इधर-उधर छिटकेंगे लेकिन मुस्लिम मतदाता कांग्रेस के साथ एकजुट बने रहे.

एक्जिट-पोल से पता चलता है कि वर्ग और लिंग का महत्व बाकी बातों से कहीं ज्यादा है. वोटों के मामले में पुरूष मतदाताओं के बीच कांग्रेस को बीजेपी पर 5  प्रतिशत की बढ़त मिली लेकिन महिला मतदाताओं के बीच बीजेपी पर कांग्रेस की  यही बढ़त 11 प्रतिशत की है. जो लोग खाते-पीते वर्ग के कहलायेंगे (ऐसे लोग जो प्रतिमाह 20 हजार रूपये से ज्यादा की रकम कमाते हैं. इनकी तादाद कुल मतदाताओं में महज 16 प्रतिशत है) उनके बीच बीजेपी को कांग्रेस पर बढ़त हासिल है. लेकिन शेष 84 प्रतिशत लोगों के बीच कांग्रेस को बढ़त हासिल है. इससे ई-दिना के सर्वेक्षण से झलकते रूझान की पुष्टी होती है कि: मतदाता जितना ही गरीब है, कांग्रेस की पैठ उसके बीच उतनी ही गहरी है.

साफ है कि कांग्रेस ने चतुराई दिखाते हुए अपने मुख्य समर्थक आधार को जोड़े रखने की कोशिश में पांच गारंटियों का वादा किया. पांच गारंटियों में दो के केंद्र में महिलाएं हैं जबकि शेष तीन गारंटियां गरीबों के विभिन्न तबकों को ध्यान में रखकर तैयार की गई हैं. कांग्रेस अगर 2024 में बीजेपी को टक्कर देना चाहती है तो उसे कुछ ऐसा ही करना होगा. दरअसल, कर्नाटक के चुनाव से निकलता एक संदेश तो यह भी है कि कांग्रेस इस दिशा में कुछ और भी आगे जा सकती थी और अपने उम्मीदवारों के चयन में उसे अपने मतदाताओं की सामाजिक पृष्ठभूमि पर ज्यादा बारीकी से गौर करना चाहिए था.

बस टिके रहो, तुम्हारा बाकी काम बीजेपी कर देगी.

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से हैं. उनका ट्विटर हैंड @_YogendraYadav है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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