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Wednesday, 4 December, 2024
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वो चार कारण जो बता रहे हैं कि कर्नाटक की चुनावी हवा कांग्रेस के पक्ष में चल रही है

अब बड़े बिलबोर्डस् लगे दिखाई नहीं देते. ना ही दीवारों पर चुनावी इश्तहार लिखे हैं. इधर-उधर चंद फ्लेक्स लगे जरूर नजर आ जायेंगे लेकिन चुनाव-प्रचार करती हुई कोई गाड़ी शायद ही देखने को मिले. कर्नाटक चुनाव मानो एकदम से भूमिगत हो चला है.

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कर्नाटक में चुनावी क्षेत्रों के दौरे के दौरान आखिरकार मुझे एक मतदाता ऐसा मिला जो कांग्रेस से छिटककर भारतीय जनता पार्टी की तरफ मुड़ रहा था. हमलोग बंगलुरु के बाहरी इलाके से लगते एक निर्वाचन-क्षेत्र येलहंका में थे. बीते कुछ दिनों में चिकमंगलूर से बहुत आगे तक निकलकर वहां से वापसी के बाद हमलोग येलहंका पहुंचे थे. चुनावी क्षेत्रों का जायजा लेने निकली हमारी टोली में अजीम प्रेमजी युनिवर्सिटी के प्रोफेसर ए. नारायण राव शामिल हैं जिन्हें कर्नाटक की राजनीति का चलता-फिरता विश्वकोष कहना ठीक होगा.

ऐसे ही हमारी टोली में कलम के धनी कन्नड़ पत्रकार एन.ए.एम.इस्माइल, एद्देलु कर्नाटका अभियान के कुछ सहकर्मी तथा स्वभाव से मिलनसार, गैर-कन्नड़भाषियों के लिए दुभाषिया का काम कर रहे, तेज-तर्रार संकेत नागराज अंगडी शामिल हैं. हमारी यह टोली वही काम कर रही है जो करना मुझे चुनावों के वक्त सबसे ज्यादा पसंद है, यानी बिना कोई योजना बनाये या मंजिल तय किये लगातार घूमते रहना, बीच में जगह-जगह रुकना और जो कोई बात करने में रुचि दिखाये उससे बोलना-बतियाना.

इस यात्रा में अभी तक हमारी भेंट कई किस्म के संभावित मतदाताओं से हो चुकी है: इनमें बहुत से कांग्रेस, बीजेपी या फिर जनता दल (सेक्युलर) के निष्ठावान मतदाता हैं. कुछ ऐसे भी मतदाता मिले जो इस बार पाला बदलकर कांग्रेस को वोट देने का मन बना रहे हैं और कुछ ऐसे जिन्होंने जनता दल(सेक्युलर) को वोट डालने का सोचा है. कुछ ऐसे भी मतदाताओं से भेंट हुई जो बताना ही नहीं चाहते कि आखिर वे किस पार्टी के उम्मीदवार को वोट डालेंगे. लेकिन, अपनी यात्रा में अब तक हमें एक भी ऐसा मतदाता नहीं मिला था जिसने पिछले चुनाव में कांग्रेस को वोट डाला हो और इस बार के चुनाव में बीजेपी को वोट डालने की योजना बना रहा हो. ‘साफ संकेत हैं कि इस चुनाव में हवा चल रही है`- मैंने अपने सहकर्मियों से कहा.


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कांग्रेस की `हवा`

कर्नाटक की चुनावी तासीर का जायजा लेने निकली हमारी टोली की इसी बीच उस आदमी से भेंट हुई — उसकी उम्र होगी यही कोई 40 के आस-पास. एक ट्रान्सपोर्टर के पास नौकरी कर रहा यह शख्स उस वक्त अपने दो साथियों के साथ गली के नुक्कड़ पर कॉफी की चुस्कियां ले रहा था. हमने इस शख्स की टूटी-फूटी हिन्दी से जो अनुमान लगाया था, संकेत ने उसकी पुष्टी कर दीः वह सचमुच ही बीजेपी को वोट डालने का मन बना चुका था.

हमारे लिए यह कुछ ऐसा था मानो जंगल का पूरा चक्कर काट लेने के बाद सफर के आखिरी मुकाम पर अचानक बाघ दिख गया हो. मैंने उससे पूछा कि आपको बीजेपी से क्या उम्मीदें हैं. ‘बीजेपी गरीब को मार देगा’ उस शख्स का हिन्दी में यह बेधड़क जवाब था. मैं कुछ हैरान हुआ और उससे पूछा कि आपको मौजूदा मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया की तुलना में कैसा जान पड़ते हैं. इस बार उस शख्स ने कन्नड़ में जवाब दिया: ‘आप दोनों के बीच तुलना की बात सोच भी कैसे सकते हैं, सर?’ उसने अपने हाथ की भाव-मुद्रा में सिद्धरमैया को बहुत ऊपर कर रखा था और हमें उसके कहे के अनुवाद की जरूरत नहीं पड़ी.

तो फिर, यह आदमी पाला क्यों बदल रहा है? वह मुस्कुराया और उसने अपने इलाके के एक नेता का नाम बताया जो पिछले माह कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आ गया था. `यह नेता हमेशा हमारे सुख-दुख में हमारे साथ खड़ा रहा तो अब हमें भी उसका साथ देना चाहिए`— उसने पाला बदलने की अपनी वजह बतायी. इस बार अगर किसी ने कांग्रेस से छिटककर बीजेपी को वोट डालने का मन बनाया है तो उसके साथ स्थिति लगभग ऐसी ही है— हमें इस बात-चीत से जान पड़ा.

एक पार्टी को छोड़कर किसी दूसरे को वोट डालने का मन बनाने वाले जितने मतदाता मिले वे इस बार बीजेपी या जेडी (एस) की जगह कांग्रेस को वोट डालने का सोच रहे हैं. एक शख्स ऐसा भी मिला जिसने इस बार कांग्रेस की जगह जेडी (एस) को वोट डालने का मन बनाया है.

जाहिर है, इस बार हवा साफ-साफ कांग्रेस की बह रही है. साल 2018 के चुनाव में कर्नाटक में कांग्रेस का वोटशेयर बीजेपी से दो प्रतिशत ज्यादा था (हालांकि पार्टी को इस वोटशेयर की तुलना में कहीं कम सीटें मिलीं). मैंने इस बार जितने भी भरोसेमंद प्री-पोल सर्वे (चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण) देखे हैं — सबमें यही नजर आया कि कांग्रेस और बीजेपी के बीच वोटशेयर का अन्तर और ज्यादा बढ़ने जा रहा है.

इस साल जनवरी में सिसरो ने जो सर्वेक्षण किया था उसमें दोनों पार्टियों के वोटशेयर के बीच 4 प्रतिशत के अन्तर की बात कही गई जबकि सी-वोटर ने हाल के अपने चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण में बताया है कि कांग्रेस का वोटशेयर बीजेपी से 6 प्रतिशत ज्यादा रहेगा. लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे में भी इसी से मिलती-जुलती बात कही गई है जबकि eedina.com के सर्वे में बीजेपी पर कांग्रेस की 10 प्रतिशत वोटशेयर की बढ़त का अनुमान लगाया गया है.

सत्ता-विरोधी सोच

कांग्रेस की तरफ चल रही हवा का सीधा रिश्ता मौजूदा बोम्मई सरकार के प्रति लोगों के बीच बन चली सोच से है. हमें बीजेपी को वोट डालने जा एक भी मतदाता ऐसा नहीं मिला जो बोम्मई सरकार को लेकर बहुत उत्साहित हो. जैसे ही हम बोम्मई सरकार के कामकाज के बारे में पूछते हैं, हमें जवाब में एक संकोच भरी चुप्पी मिलती है या फिर एक कुटिल मुस्कान. बीजेपी को वोट डालने जा रहे मतदाताओं से ज्यादातर यही सुनने को मिला किः “ हमलोग उनको(बोम्मई को) वोट नहीं दे रहे. हमलोग मोदी को वोट दे रहे हैं.” बीजेपी के किसी भी मतदाता ने बोम्मई सरकार पर लगे ‘चालीस पर्सेन्ट सरकारा` (यानी एक ऐसी सरकार जो हर प्रोजेक्ट पर 40 प्रतिशत की वसूली करती हो) के आरोप का बचाव नहीं किया. वे पलटवार करते हुए पूछते हैं: “तो ये कौन सी नई बात है? कौन सी सरकार भ्रष्ट नहीं होती? क्या कांग्रेस भ्रष्ट नहीं है?”

अलग-अलग स्रोत से आये सर्वे डेटा से भी इस मनोभाव की झलक मिलती है. सर्वेक्षण आधारित शोध-कार्य करने के अपने दिनों में मैंने देखा है कि वोट डालने की मंशा का पता करना हो तो सबसे अच्छा होता है एक सीधा सा सवाल ये पूछना कि क्या मौजूदा सरकार को एक बार और मौका देना चाहिए? पिछली बार, जब कांग्रेस चुनाव हार गई थी, कांग्रेस को एक और मौका देने के सवाल पर हां और ना कहने वाले 1:1 के अनुपात में थे. इस बार इसी सवाल का उत्तर `ना` में देने वालों की तादाद `हां` में उत्तर देने वालों की तुलना में हर सर्वेक्षण में ज्यादा बतायी गई है— सीएसडीएस के सर्वे में यह अनुपात 1.7:1 का है और ई-दिना के सर्वेक्षण में 2:1 का.

अगर बीजेपी कुछ सीटों पर अब भी आगे दिखायी दे रही है तो इसलिए कि कुछ विधायकों ने स्थानीय स्तर पर अच्छा काम कामकाज किया है. ई-दिना के सर्वेक्षण का एक निष्कर्ष यह है कि सत्ताधारी पार्टी के विधायकों के प्रति मतदाताओं में विरोध-भाव राज्य सरकार की तुलना में कहीं कम है. कर्नाटक में सत्ताधारी पार्टी को मतदाता दशकों से सत्ता से बेदखल करते आये हैं और यह चुनाव इस रूझान का अपवाद नहीं होने जा रहा.


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क्लास-डिवाइडेड

आप ज्यों-ज्यों गरीब से गरीबतर लोगों के बीच पहुंचते हैं, कांग्रेस की तरफ बह रही चुनावी हवा की रफ्तार आपको तेज होती लगती है. कोई भी गरीब मतदाता बीजेपी को अच्छा नहीं बताता. जैसा कि मैंने पिछले हफ्ते के लेख में कहा था, कर्नाटक में गरीब और अमीर मतदाता के बीच पार्टीगत पसंद को लेकर खाई ज्यादा चौड़ी है. मतदाता जितने ज्यादा अमीर हैं, कांग्रेस की बढ़त उनके बीच उतनी ज्यादा कम है. इसी तरह मतदाता जितने ही ज्यादा गरीब हैं, कांग्रेस की बढ़त उनके बीच उतनी ही ज्यादा है. यह बात जमीनी तौर पर साफ दिखती है.

जैसे ही आप गरीब लोगों से बात करते हैं वे आपको रोजमर्रा की उन चीजों की फेहरिश्त गिनाने लगते हैं जिन्हें खरीद पाना उनके बूते से बाहर की बात हो गई है. उनकी फेहरिश्त की ऐसी चीजों में गैस-सिलेंडर सबसे ऊपर होता है. “पहले हम जलावन की लकड़ी से काम चलाते थे. फिर उन लोगों ने गैस दिया. हम फिर से जलावन की लकड़ी के इस्तेमाल की तरफ नहीं लौट सकते. और, ना ही गैस-सिलेंडर ही खरीद सकते हैं–” हमें एक मतदाता ने बताया.

तकरीबन सब ही की शिकायत थी कि कांग्रेस के शासन के समय में 10 किलो चावल प्रति व्यक्ति प्रति माह मुफ्त मिलता था जबकि अब इसमें कटौती करके 5 किलो चावल कर दिया गया है. इसके बाद नंबर आता है पेट्रोल और डीजल की कीमतों का. किसानों को शिकायत है कि खाद महंगा मिल रहा है. वे किसान सम्मान निधि का मजाक उड़ाते कहते हैं: “ उन लोगों ने हमें 2000 रूपये दिये और हमारी जेब से इससे कहीं ज्यादा निकाल लिया .” हमारी-आपकी उम्मीद से कहीं ज्यादा लोग जीएसटी के बारे में जानते हैं और वे इसे ऊंची कीमतों का जिम्मेदार मानते हैं.

ऐसी बात नहीं कि गरीब मतदाता बीजेपी को वोट नहीं देने जा रहे लेकिन ऐसे मतदाताओं का वोट किसी स्थानीय उम्मीदवार को मिलने जा रहा है या फिर इस नाते कि जिस नेता ने सुख-दुख में साथ निभाया उसे वोट करना उनका फर्ज बनता है. गरीब लोगों में जो बीजेपी को वोट डालने का मन बना चुके हैं वे भी बीजेपी को अपनी पार्टी नहीं मानते. इस रूझान का एक अपवाद कर्नाटक का तटीय इलाका है जहां बीजेपी ने अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं.

सिद्धरमैया गरीबों के पसंदीदा नेता हैं. बेशक किसी को `गरीब` मानना एक हद तक अपनी-अपनी सोच पर निर्भर करता है, हम ये मानकर नहीं चल सकते कि गरीब सिर्फ वही है जो आधिकारिक तौर पर निर्धारित गरीबी-रेखा से नीचे हो. गरीब जनता में हम गांव की तीन चौथाई और शहरों की लगभग आधी आबादी को शामिल मान सकते हैं. गरीबों के मन से उतरने का मतलब है मतदाताओं की एक बहुत बड़ी तादाद का समर्थन खो देना.

सांप्रदायिकता का जोर नहीं

आखिर में एक बात यह कि कर्नाटक में कांग्रेस की तरफ चल रही चुनावी हवा की राह रोकने के लिए इस बार सांप्रदायिकता की दीवार खड़ी नहीं हो पायी है. कर्नाटक में चल रही दैनंदिन की राजनीतिक चर्चाओं में हिन्दू-मुस्लिम तनाव का जिक्र नहीं आता. जबतक किसी से जोर डालकर पूछ ना लिया तबतक वह हिन्दू-मुस्लिम का मुद्दा खड़ा नहीं करता. एक ऐसे राज्य के बारे में यह बात विचित्र जान पड़ेगी जो लगातार ही गलत वजहों जैसे हिजाब, अजान, लव-जिहाद और अब बजरंग दल को लेकर सुर्खियों में बना रहा. बहरहाल, यह मानना कि कर्नाटक में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के दिन लद गये, हड़बड़ी का फैसला कहलाएगा. जो कोई भी इस सूबे को जानता-पहचानता है वह आपको बताता मिलेगा कि सांप्रदायिक पूर्वग्रह और दुष्चिन्ताएं यहां लोगों के मन-मानस में बहुत गहरे तक पेवस्त हो गई हैं. फिर भी एक बात पक्की है: कर्नाटक के मतदाता इस मुद्दे (सांप्रदायिकता) को अपने आगे रखकर नहीं चल रहे.

साल 2022 में हुए उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान ऐसे ही घूमते-घामते लोगों के मुंह से जो बात मैंने सुनी थी. यहां स्थिति उसके एकदम उलट है. तब उत्तर प्रदेश में हर हिन्दू मतदाता, चाहे उसने समाजवादी पार्टी ही को वोट क्यों ना डाला हो, सुरक्षा की बात कह रहा था और उसके ऐसा कहने से झलक उठता था कि बात हिन्दू-मुस्लिम तनाव की हो रही है.

कर्नाटक में मुसलमान मतदाता तक, जो राज्य-प्रेरित धार्मिक कट्टरता का शिकार है, ऐसी बातें नहीं कहता मिलता. हां, ऐसे मतदाताओं में एक अबोली-सी चिन्ता जरूर दिखायी देती है— जान पड़ता है वे अपने राष्ट्रवाद को साबित करने, सांप्रदायिक सौहार्द्र के माहौल को रेखांकित करने के दबाव में हैं. जहां तक हिन्दू मतदाताओं का सवाल है—सांप्रदायिकता का मुद्दा उनकी प्राथमिकताओं की सूची में बहुत नीचे खिसक गया है; जबकि मुस्लिम मतदाताओं ने मानो फैसला कर रखा है कि इस मुद्दे को दबाकर रखना है. मुझे नहीं लगता कि माहौल को सांप्रदायिक रूप से गरम करने की बीजेपी की जानी-पहचानी बेताबी कर्नाटक के मतदाताओं के इस बुनियादी मनोभाव को चुनाव से ऐन पहले के हफ्ते में बदल पाने में कामयाब होगी.

कर्नाटक में होने जा रहे चुनाव से तुरंत पहले के इस वक्त में सड़कों पर आपको बड़ा खालीपन महसूस होगा. बड़े बिलबोर्डस् लगे दिखायी नहीं देते. ना ही दीवारों पर चुनावी इश्तहार लिखे दिखायी देते हैं. इधर-उधर चंद फ्लेक्स लगे जरूर नजर आ जायेंगे लेकिन चुनाव-प्रचार करती हुई कोई गाड़ी शायद ही देखने को मिले आपको. चुनाव मानो एकदम से भूमिगत हो चला है और यह भी लगता है कि पहले के किसी भी समय की तुलना में इस बार का चुनाव ज्यादा खर्चीला साबित होने जाने रहा है.

कर्नाटक में लोग आपको यह कहते मिल जायेंगे कि ‘अमुक’ ने 10 करोड़ रूपये विधान-सभा का चुनाव हारने के लिए फूंक दिये. यहां सीट पर जीत दर्ज करने के लिए आपको कम से कम 20-40 करोड़ रूपये खर्च करने होते हैं. कोई भी पार्टी रूपये खर्चने के इस खेल में पीछे नहीं. हां, बीजेपी इस खेल में कांग्रेस के कहीं ज्यादा आगे है. गली-मुहल्लों की गप्प-गोष्ठियों में लोग कहते मिलते हैं कि ‘अमुक` को इस या उस ने खरीद लिया है या यह कि फलां आदमी पाला बदलकर इस या उस तरफ चला गया है अथवा ये कि कौन किसके वोट काटने जा रहा है. जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं, ये बातें उसके रोजमर्रा का हिस्सा हैं.

फिर भी एक अदृश्य हाथ या कह लें ऐसे चार हाथ पंखा हांक रहे हैं और एक हवा चल रही है जो झुलसाती हुई तपिश के इन दिनों में बंगलुरू की सुबह की ताजादम ठंडी बयार की तासीर लिये हुए है. सारे संकेत यही कह रहे हैं कि कर्नाटक में इस बार का जनादेश प्रभुत्वशाली सत्ता के विरुद्ध जाने वाला है. कहते हैं ना कि विरोध पानी की तरह होता है—वह अपना रास्ता खोज लेता है.

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से हैं. उनका ट्विटर हैंड @_YogendraYadav है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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