राजनीतिक हलकों में यह एक स्वयंसिद्ध बन गया है कि भारत के लोग प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को चुनते हैं और जब उन्हें मुख्यमंत्रियों को चुनने की बात आती है तो अलग-अलग मतदान करते हैं. यानी जब मोदी अपने लिए वोट मांगते हैं तो मतदाता इस बारे में दोबारा नहीं सोचते हैं और उन्हें ही वोट देते हैं, लेकिन जब वे राज्यों में अपने प्रत्याशियों के लिए वोट मांगते हैं, तो वही मतदाता चौकस होते हैं और ज़रूरी नहीं कि वे उनकी बातें मानें और उनकी बातों पर ध्यान दें और वोट देनें का उपकार करें.
मतदान के व्यवहार में अंतर तब से लोगों को दिखा जब दिसंबर 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा, लेकिन महज़ पांच महीने के बाद लोकसभा चुनाव में उन्होंने पीएम मोदी को दूसरा कार्यकाल देने के लिए बीजेपी को भारी बहुमत दिया. आम धारणा की पुष्टि ऐसे सर्वेक्षणों से भी होती है जो बताते हैं कि राज्यों में बीजेपी की हार के बावजूद मोदी की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है.
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के शनिवार के फैसले पर आम प्रतिक्रिया उसी पैटर्न का पालन करती है—कि इसका मतलब 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए कुछ भी नहीं है. मुख्य तर्क यह है कि कर्नाटक के लोगों ने 2023 के विधानसभा चुनाव में चाहे किसी को भी वोट दिया हो, उन्होंने लगातार लोकसभा चुनावों में बीजेपी को वोट दिया है—इसने 2004 में 18 सीटें, 2009 में 19 सीटें, 2013 में 17 और 2019 में राज्य की कुल 26 में से 25 सीटें हासिल कीं, लेकिन यह तर्क पिछले चार चुनावों के लिए ही सही है—एक बार जब अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह पीएम थे और दो बार जब मोदी पीएम के पद पर रहे.
2004 से पहले, तीन विधानसभा और लोकसभा चुनावों में एक पार्टी का वर्चस्व देखा गया था—1999 में कांग्रेस, उससे पहले जनता दल और 1989 में फिर से कांग्रेस. यहां तक कि तीन विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भी यह रुझान बना रहा, क्योंकि लोगों ने 1984 के लोकसभा और 1985 के विधानसभा चुनावों में अलग-अलग तरीके से मतदान किया था—पहले में कांग्रेस के लिए और दूसरे में जनता पार्टी के लिए.
यहां जो मैं कहने की कोशिश कर रहा हूं वह यह है कि यह मानना तो ठीक है कि कर्नाटक के लोगों ने पिछले चार लोकसभा चुनावों में भाजपा को वोट दिया, तो वे 2024 में पांचवीं बार भी ऐसा कर सकते हैं. यह बिलकुल सही है, खासकर तब जब सभी सर्वेक्षण लगातार मोदी की लोकप्रियता के बारे में बार-बार पुष्टि करते हैं.
लेकिन, इस धारणा का विरोध किए बिना, हम कुछ बिंदुओं पर ध्यान दे सकते हैं. कर्नाटक के लोगों ने 2018 और 2019 में अलग-अलग मतदान नहीं किया. 2018 के विधानसभा चुनाव में, उन्होंने भाजपा को लगभग सत्ता में ला दिया, जिससे वह बहुमत से केवल नौ सीट दूर रही. इसका वोट शेयर भी 2013 की तुलना में काफी अधिक था. एक और ध्यान देने वाली बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में, ‘मोदी लहर’ के दौरान, कर्नाटक पर शासन करने वाली कांग्रेस ने 28 लोकसभा सीटों में से 9 पर जीत हासिल की थी. अब जब इसने विधानसभा चुनावों में शानदार जीत हासिल कर ली है, तो यह 2024 के लिए बेहतर स्थिति में है.
जहां तक लोगों के अलग-अलग मतदान करने की धारणा की बात है, अगर सर्वेक्षणों को छोड़ दिया जाए, तो ज़रूरी नहीं कि 2019 के चुनाव का उदाहरण 2024 के लिए भी सही साबित हो. सिर्फ इसलिए कि बालाकोट हवाई हमले ने 2019 में देश का मिजाज़ बदल दिया था. पाकिस्तानी पक्ष को हुए नुकसान के सबूत के लिए विपक्षी नेताओं की मांगों ने इसके चुनावी प्रभाव को और गहरा कर दिया.
इसलिए, एक बार अगर हम 2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों पर बालाकोट स्ट्राइक के प्रभाव से सहमत हैं, तो हम समझ सकते हैं कि पीएम मोदी को 2024 के बारे में क्यों चिंतित होना चाहिए. यह सच है कि कर्नाटक में बीजेपी सरकार के बारे में लोग निराश थे. विपक्ष ने अपनी ‘पेयसीएम’, ‘40% कमीशन सरकार’ और अन्य अभियानों के साथ सफलतापूर्वक बोम्मई सरकार के खिलाफ एक अविश्वास का माहौल बनाया, जो कथित कुशासन के आसपास केंद्रित था. लोकनीति-सीएसडीएस के चुनाव के बाद के सर्वेक्षण से पता चला है कि लोग जब मतदान करने गए तो उस समय सात में से एक के दिमाग में बोम्मई सरकार थी. पांच में से एक मतदाताओं के मन में राज्य और केंद्र दोनों सरकारों के कार्य थे. बोम्मई सरकार के प्रदर्शन से 42% मतदाता “कुछ हद तक असंतुष्ट” और “पूरी तरह असंतुष्ट” थे; केंद्र सरकार के मामले में यह 41 प्रतिशत थी.
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BJP की मशीनरी अब बेअसर
तो, बीजेपी ने टीपू सुल्तान, हिजाब, हलाल और ‘लव जिहाद’ सहित अन्य ध्रुवीकरण के मुद्दों पर चुनाव क्यों लड़ा? 2019 में सीएम बनने के बाद और 2021 में पद छोड़ने के बाद भी बी.एस. येदियुरप्पा को अपमानित करते रहना किसका विचार था? जगदीश शेट्टार और लक्ष्मण सावदी को टिकट न देना और लिंगायतों के जख्मों पर नमक छिड़कना किसका विचार था? आरक्षण कोटा में बदलाव का विचार किसका था जिसने हर समुदाय को असुरक्षित और भ्रमित कर दिया? भाजपा आलाकमान को जिसने भी ये विचार दिए, निश्चित रूप से उसे कर्नाटक के मतदाताओं की नब्ज़ का पता नहीं था.
लेकिन यहां समस्या है: अगर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा अपने गृह राज्य हिमाचल प्रदेश में मतदाताओं की नब्ज़ को नहीं पकड़ पाए, तो पीएम मोदी दूसरों से बेहतर जानने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? यदि बसवराज बोम्मई सरकार लड़खड़ा रही थी, तो यह सभी के सामने थी. भाजपा आलाकमान इसे देखने में कैसे विफल रहा? और इसे ठीक करने के लिए कुछ भी क्यों नहीं किया गया? और अगर आलाकमान बोम्मई के शासन से खुश था, तो पार्टी ने इसे पूरी तरह से अनदेखा क्यों किया और मोदी और उनके शासन को केंद्रीय मुद्दा बनाया? सवाल बहुत हैं लेकिन जवाब कोई नहीं.
पीएम मोदी को इसी बात की चिंता होनी चाहिए, क्योंकि हिमाचल प्रदेश में भी कुछ ऐसा ही हुआ था. भाजपा ने पूर्वोत्तर में अपनी सफलता का जश्न मनाया लेकिन तथ्य यह था कि वह मुश्किल से त्रिपुरा में सत्ता बनाए रखने में कामयाब रही. अगर प्रद्योत देबबर्मा की तिपरा मोथा पार्टी (टीएमपी) नहीं होती, तो बीजेपी त्रिपुरा में सत्ता खो देती, जैसा कि दिप्रिंट ने बताया है.
बीजेपी ने मेघालय और नागालैंड में अपनी सफलता का जश्न मनाया, लेकिन हकीकत यह थी कि पार्टी को इन दो राज्यों में भी बहुत कम फायदा मिला, इसने मेघालय में 2 और नागालैंड में 12 सीटें जीतीं – जैसा कि उसने पांच साल पहले किया था जब बीजेपी दोनों राज्यों में सरकार में शामिल हुई थी.
ये कहने का कोई कारण नहीं है, लेकिन यह समझ में आता है कि भाजपा इस परिणाम को बढ़ा-चढ़ाकर क्यों पेश कर रही थी, क्योंकि उसे विपक्ष का मनोबल गिराने और अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने के लिए अपराजेयता का संदेश देना था. लेकिन पीएम मोदी को हकीकत पता होगी. वह जानते हैं कि पिछले साल गुजरात की जीत सिर्फ उन्हीं की थी. हिमाचल के नतीजे निराशाजनक रहे. दो महीने पहले पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में हुए चुनावों के नतीजे आत्मविश्वास बढ़ाने वाले नहीं थे और अब, कर्नाटक का झटका! नवंबर-दिसंबर में पांच राज्यों में अगले दौर के चुनाव के बारे में ही नहीं बल्कि 2024 के लोकसभा चुनावों के बारे में भी पीएम मोदी के चिंतित होने के कई कारण हैं.
उन्हें पता है कि उनकी पार्टी लड़खड़ा रही है. उन्हें अब यह अहसास हो रहा होगा कि भाजपा की बहुप्रचारित सांगठनिक मशीनरी अगर वह खुद असरदार नहीं रहे तो बेअसर हो जाती है. चंद्रगुप्त के सफल होने पर, क्रेडिट साझा करने के लिए कई चाणक्य हैं, लेकिन अगर मोदी का जादू विधानसभा चुनावों में काम नहीं करता है, तो यही चाणक्य हार का ठीकरा दूसरों पर फोड़ने की कोशिश करते हैं.
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बीजेपी को नए नैरेटिव की ज़रूरत
विपक्षी दलों को एक नया नैरेटिव गढ़ने की आवश्यकता के बारे में हमेशा बहस होती रही है. विपक्ष सत्ता विरोधी लहर के इर्द-गिर्द एक नया नैरेटिव गढ़ने की कोशिश कर रहा है. यह भाजपा है जिसे अब नए नैरेटिव की ज़रूरत है. वहीं ध्रुवीकरण की रणनीति, हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, अंधराष्ट्रवाद का वही प्रचार और अपने करिश्माई और कल्याणकारी शासन के माध्यम से वोट देने के लिए पीएम मोदी पर निर्भरता- 2014 से भाजपा के लिए कुछ भी नहीं बदला है. भाजपा की चुनावी रणनीतियों का आज अनुमान लगाया जा सकता है. ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, या डीके शिवकुमार जैसे स्मार्ट, सोच वाले प्रतिद्वंद्वी होने पर उनकी भेद्यता उजागर हो जाती है.
तो, पीएम मोदी भाजपा में बहाव को कैसे ठीक कर सकते हैं? सबसे पहले, वह राजनीतिक और चुनावी चूकों के लिए जवाबदेही तय करें. वे भाजपा की चुनावी रणनीति पर फिर से विचार करना चाह सकते हैं, जो इतनी थकी हुई है कि इसका अंदाजा पहले से ही लगा लिया जाता है. उन्हें इस आलाकमानवादी संस्कृति पर रोक लगानी होगी और उन नेताओं को बढ़ावा देना शुरू करना होगा जो पार्टी के विकास में योगदान दे रहे हैं – जैसे योगी आदित्यनाथ, हिमंत बिस्वा सरमा, और देवेंद्र फडणवीस – न कि उन लोगों को जो अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा देने के लिए उनकी लोकप्रियता को आगे बढ़ा रहे हैं.
पार्टी सुधार एक तरफ, मोदी को यह पता लगाने की जरूरत है कि लोग डबल इंजन के विकास के उनके वादे को अब और क्यों नहीं भाव दे रहे हैं. 2001 में जब तक वे गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं बने, दशकों तक उन्हें अपने इर्द गिर्द हो रहे बदलावों के बारे में जानकारी होती थी और वो जागरूक होते थे.
इसे एक मुख्यमंत्री या एक पीएम की बाध्यताओं पर दोष मढ़ें, वे काफी हद तक अलग-थलग हो जाते हैं और उन्हें दूसरों की फीडबैक पर निर्भर रहना पड़ता है, जो जाहिर तौर पर उन्हें एक अच्छी अच्छी बातें और खूबसूरत पिक्चर दिखाते हैं. पीएम के कार्यालय को नौ साल में जमीन पर क्या हो रहा है, इस पर अपडेट की जरूरत है. उन्हें पार्टी और सरकार में अपने सहयोगियों को समझाने की जरूरत है कि वे अपने ही प्रोपेगेंडा पर विश्वास करना बंद कर दें- कि सब ठीक है और हर कोई खुश है.
मोदी के देश की बागडोर संभालने के बाद से देश में जनसांख्यिकीय और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का पता लगाने के लिए जनगणना 2021 को तत्काल आयोजित करने की आवश्यकता है. सरकार प्रवासियों के लिए इतनी सहानुभूति दिखाती है लेकिन पलायन के बारे में कोई ठोस डेटा नहीं चाहती जो एक जनगणना प्रदान करे. सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्य कुछ अल्पसंख्यक समुदायों के बढ़ने और समग्र विकास में बाधा डालने की बात करते हैं, लेकिन वे इसे प्रमाणित करने के लिए कोई ठोस डेटा नहीं चाहते हैं. वे अपने द्वारा बनाए गए घरों की संख्या के बारे में बात करते हैं, लेकिन वे यह नहीं जानना चाहते कि और कितने लोगों को अभी भी उनकी आवश्यकता है. वे इस बारे में बात करते हैं कि मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के कल्याणकारी उपायों से आम आदमी का जीवन कैसे बदल गया है, लेकिन वे अपने दावों को तथ्यों के साथ आंकने के लिए कोई डेटा नहीं चाहते हैं. वे नहीं चाहते कि घरेलू उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण हमें बताए कि असमानता कितनी बढ़ी या घटी है, लोग मासिक रूप से भोजन या गैर-खाद्य पदार्थों पर कितना खर्च कर रहे हैं, वे कौन सा अनाज खा रहे हैं, लोग किराए या शिक्षा पर कितना खर्च कर रहे हैं , ऊपर के 5 प्रतिशत की तुलना में नीचे के 5 प्रतिशत कैसे कर रहे हैं, लोग खाना पकाने या प्रकाश व्यवस्था के लिए किन ऊर्जा स्रोतों का उपयोग कर रहे हैं, इत्यादि.
सरकार ने तथाकथित गुणवत्ता के मुद्दों पर 2017-18 के व्यय सर्वेक्षण के परिणामों को खारिज कर दिया, जिसके कारणों के बारे में कोई भी आश्वस्त नहीं है. यह स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया गया था क्योंकि निष्कर्ष मोदी सरकार के बड़े-बड़े दावों से मेल नहीं खाते थे. 2022-23 के लिए एक और सर्वेक्षण के निष्कर्ष तैयार होंगे, लेकिन सरकार 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें सार्वजनिक करने के लिए अनिच्छुक है, जैसा कि द इंडियन एक्सप्रेस ने रिपोर्ट किया है.
यही कारण है कि जब भाजपा ने बड़े-बड़े दावे करते हुए एक जोरदार अभियान की शुरुआत करता है कि कैसे इसने नागरिकों के जीवन को बदल दिया है, तो भीड़ में कई ऐसे होते हैं जो ठगा हुआ और उपेक्षित महसूस कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में उन बदलावों को नहीं देखा होगा. यह कहना कि भाजपा बोम्मई के कुशासन के कारण ही कर्नाटक में हार गई, यह पूरी सच्चाई नहीं है. जब मैं और मेरे साथी कर्नाटक में लोगों के साथ बात कर रहे थे, तो हमने देखा कि उनमें एलपीजी सिलेंडर, डीजल, पेट्रोल और घरेलू सामानों की कीमतों को लेकर बहुत नाराजगी थी.. उनमें से कुछ को यह भी याद था कि कैसे नोटबंदी से काले धन का अंत होना था. वे अमृत काल के बारे में भी नहीं जानते थे, जो उनके लिए “अभूतपूर्व अवसर” लेकर आया है जैसा कि प्रधानमंत्री कहते हैं.
हां, उन्हें अब भी पीएम मोदी पर भरोसा है. लेकिन इन दावों पर निर्मित एक कहानी जो आम पुरुषों और महिलाओं ने स्वयं अनुभव नहीं की है, धीरे-धीरे प्रतिकूल साबित हो रही है. कर्नाटका के लोगों ने इस विधानसभा चुनाव के माध्यम से यही संदेश दिया है. भाजपा में जिन लोगों ने मोदी का गुणगान गाकर अपना भाग्य बनाया है, उन्हें यह नहीं दिख सकता है. लेकिन पीएम मोदी जानते हैं कि कर्नाटक ने उन्हें क्या संदेश दिया है.
डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. व्यक्ति विचार निजी हैं.
(संपादन:पूजा मेहरोत्रा)
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