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Saturday, 21 December, 2024
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जयशंकर को पठान देखना चाहिए. वह दक्षिण एशिया के नेता बनने की मोदी की महत्वाकांक्षा पर काम कर रहे हैं

शाहरुख खान की पठान भारत-पाकिस्तान संबंधों पर एक और नज़र डालने की एक नायाब कोशिश है. फिल्म की सफलता केवल भारत की सॉफ्ट पावर को प्रदर्शित करती है.

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शाहरुख खान की पठान को विभिन्न रूप से भारतीय मुस्लिम की वापसी के रूप में दिखाया गया है, जो भारत में जिंदगी के “जियो और जीने दो” वाले फलसफे को बयां करता है और एक हिंदुत्व ग्रुप्स को चुभने वाला जवाब है जिनका मानना है कि उपमहाद्वीप में जो कुछ भी गलत हुआ है, उसका पर्याय “पाकिस्तान” है.

लेकिन तथ्य यह है कि ब्लॉकबस्टर हिट पठान वास्तव में एक अफ़पाक फिल्म है. अफपाक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के लिए एक संक्षिप्त नाम जो कि भारत की पश्चिमी सीमा से लगे हुए देश हैं. और वास्तव में उस बात को हाइलाइट करता है जो सप्ताहांत में जयशंकर की पुस्तक के मराठी अनुवाद में कहा गया है.

उन्होंने कहा, “पांडव [अपने] रिश्तेदारों को नहीं चुन सकते थे, हम अपने पड़ोसियों को नहीं चुन सकते.” उन्होंने आगे कहा कि उन्हें उम्मीद थी कि पाकिस्तान में सद्बुद्धि आएगी, लेकिन यह कहने में गुरेज़ नहीं कि यह सिर्फ “एक उम्मीद है.”

लेकिन पठान केवल सामान्य रूप से केवल ह्यूमिनिटी की बात नहीं करता है, बल्कि दो और चीजों के बारे में है. पहला, न केवल यह कि भारत अपने पड़ोसियों का चयन नहीं कर सकता, बल्कि यह कि अपने पड़ोसियों के साथ भारत का संबंध लोगों के बीच है, सरकारों के बीच नहीं.

पठान में शाहरुख खान का कैरेक्टर एक अनाथ का है, एक अफगान गांव को एक मिसाइल अटैक – संभवतः दक्षिणी अफगानिस्तान में जहां बहुसंख्यक आबादी पश्तून, या पठान एथनिसिटी की होगी – से बचाने के बाद फिल्म में उसे ‘पठान’ नाम मिलता है जिसका अर्थ है कि अब वह परिवार का हिस्सा है. बाद में बुरे लोगों को खत्म करने के इस अच्छे आदमी के मिशन में अफगानिस्तान का यह गांव काफी मदद करता है.

बेशक बुरे लोग पाकिस्तानी हैं, जिसका नेतृत्व एक क्रूर जनरल कर रहा है जो चाहता है कि कश्मीर में पाकिस्तान का झंडा फहराया जाए. लेकिन फिर रुबाई मोहसिन भी है, जो कि लंबी टांगों वाली आईएसआई एजेंट है, जिसे समय रहते ही एहसास हो जाता है कि उसके खुफिया संगठन के प्रति उसकी वफादारी मानवता के प्रति उसके कर्तव्य को कम नहीं कर सकती. और फिर वह पठान के मिशन में शामिल हो जाती है. जॉन एफ. कैनेडी को सदियों पहले के विचार: यह मत पूछिए कि आपका देश आपके लिए क्या कर सकता है, बल्कि यह पूछें कि आप अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं- को ठीक उस समय में शाहरुख जीवंत कर रहे हैं.

मुझे नहीं पता कि मंत्री जयशंकर ने पठान फिल्म देखी है या नहीं, लेकिन क्या है और क्या नहीं होना चाहिए के आधार पर नीति बनाने के मामले में सभी राजनयिकों की तरह, वह नरेंद्र मोदी सरकार की भारत की दक्षिण एशिया का नेता बनने की गहरी बैठी महत्वाकांक्षा को लागू कर रहे हैं खासकर तब जब भारत जी-20 का नेतृत्व करता है.

दक्षिण एशिया का नेतृत्व करने की तरफ भारत का स्वाभाविक झुकाव रहा है. हर सरकार इसके लिए प्रयासरत रहती है. हर सरकार यह भी जानती है कि “जनता” आधिकारिक संबंधों का विस्तार करती है या कम करती है. इसलिए अटल बिहारी वाजपेयी ने 1999 में पाकिस्तान के लिए बस यात्रा की और 2004 में फिर से वहां गए. मनमोहन सिंह की सरकार ने 2005 में नेपाल के माओवादियों और अन्य राजनीतिक दलों के बीच बातचीत की, जिसे 12- प्वाइंट एग्रीमेंट के रूप में जाना जाता है.

जब चीजें खराब होने लगती हैं, तो वही लोग सबसे पहले दुखी होते हैं. जब मनमोहन सिंह सरकार तत्कालीन विपक्षी भाजपा के ताने सह नहीं सकी तो उसने 2012 में फिल्म कॉकटेल के संगीत लॉन्च के लिए चार पाकिस्तानी गायकों को वीजा देने से इनकार कर दिया. पठानकोट, उरी और पुलवामा हमलों के मद्देनजर, मोदी सरकार ने पूरी तरह से रिश्ता खत्म कर दिया. उसके बाद से पाकिस्तानी नागरिकों को बहुत कम वीजा जारी किए गए हैं.


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पठान और विदेश मंत्रालय के लिए सबक

अब थोड़ा बहुत संबंध सामान्य हुए हैं लेकिन न के बराबर. शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक के लिए पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी को निमंत्रण भारत द्वारा 1960 की सिंधु जल संधि को “संशोधित” करने की मांग के साथ ही आया है. पाकिस्तान ने शिकायत की थी कि सिंधु बेसिन में भारत द्वारा बांध बनाए जाने की वजह से उसे पर्याप्त पानी नहीं मिल रहा है. विश्व बैंक की मध्यस्थता में 1960 में की गई यह संधि काफी लंबे समय तक स्वीकार्य रही. अब मोदी सरकार द्वारा इस बात पर विचार कर रही है कि क्या अब इसकी उपयोगिता समाप्त हो गई है.

हाल के दिनों में मोदी सरकार की अपने अन्य पड़ोसियों तक पहुंच काफी दिलचस्प रही है. जयशंकर ने जनवरी के अंत में मालदीव और श्रीलंका की यात्रा की थी. श्रीलंका में, उन्होंने कोलंबो की ऋण पुनर्गठन सुविधा के लिए भारत के समर्थन की घोषणा की, और मालदीव में उन्होंने देश के उत्तरी भाग में नई परियोजनाओं का उद्घाटन किया.

निश्चित रूप से, भारत चिंतित है कि राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह और स्पीकर मोहम्मद नशीद के बीच मनमुटाव इस साल के अंत में होने वाले देश के चुनावों को प्रभावित करेगा. सोलिह ने अपने अधिक करिश्माई प्रतिद्वंद्वी नशीद के खिलाफ पार्टी प्राथमिक जीत हासिल की है.

इस बीच, विदेश सचिव विनय मोहन क्वात्रा ने चौथे राजा, जिग्मे सिंगे वांगचुक और प्रधानमंत्री लोटे त्शेरिंग से मिलने के लिए भूटान की यात्रा की. क्वात्रा की थिम्पू यात्रा भूटानी अधिकारियों द्वारा दोनों देशों के बीच सीमा वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए तीन-चरणीय रोडमैप में भाग लेने के लिए दक्षिणी चीनी शहर कुनमिंग की यात्रा के कुछ दिनों बाद हुई है. भूटान और भारत के बीच घनिष्ठ संबंध हैं, लेकिन नई दिल्ली निश्चित रूप से थिम्फू और बीजिंग के बीच विकसित होते संबंधों को करीब से देख रही होगी, खासकर 2017 के डोकलाम संकट के मद्देनजर.

क्या इन सबका मतलब यह है कि 2023 भारत का दक्षिण एशिया वर्ष बन सकता है? सच्चाई यह है कि सार्क के रिवाइव होने के बारे में किसी को इंतजार करने की जरूरत नहीं है. सार्क एक बहुपक्षीय संगठन है जिसने 1985 से कुछ क्षेत्रीय मुद्दों को जिंदा रखा है.

पठान की सफलता के बावजूद, राजनीति की मांग है कि पाकिस्तान के प्रति कठोर एप्रोच को जारी रखा जाए. यहां तक कि प्रसिद्ध कर्नाटक संगीतज्ञ टी.एन. कृष्णा की इस साल पाकिस्तान में संगीत का कार्यक्रम करने से संबंधित ट्वीट भी कहीं खो गया. उन्होंने श्रीलंका में वित्तीय संकट के वक्त भी जाफना में संगीत का कार्यक्रम किया था.

और फिर भी इन दिनों कुछ भी संभव है. 2016 की फिल्म ऐ दिल है मुश्किल (जिसमें अनुष्का शर्मा पाकिस्तान से हैं, लंदन में एक भारतीय लड़के, रणबीर कपूर से प्यार हो जाता है) को याद करें, और कैसे बीजेपी के ट्रोल्स ने करण जौहर को माफी मांगने और एक कार्यक्रम का स्थान लाहौर से लखनऊ बदलने के लिए मजबूर किया?

जौहर अब पाकिस्तानी अभिनेताओं का उपयोग नहीं करते हैं जैसे उन्होंने एक बार किया था, लेकिन तथ्य यह है कि पठान कम से कम आंशिक रूप से भारत-पाकिस्तान संबंधों पर एक और नज़र डालने का एक नायाब प्रयास है. फिल्म की आश्चर्यजनक सफलता न केवल भारत की सॉफ्ट पावर को प्रदर्शित करती है – एक ऐसा विषय जिस पर विदेश मंत्रालय में काफी चर्चा होती है – बल्कि विदेश मंत्रालय को इससे कुछ चीजें सीखने को भी मिल सकती है.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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