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Wednesday, 20 November, 2024
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अक्षम नेहरू, संदेही मेनन, विभाजित सेना– भारत के सैनिक इतिहास की अविश्वसनीय कहानियां

जयराम रमेश ने उस वीके कृष्ण मेनन की बेहतरीन जीवनी लिखी है जो कि ‘1962 के खलनायक’ के रूप में भाजपा-आरएसएस के लिए निंदा और अपमान के पात्र हैं.

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भारत में 1950-60 के दशक के दूसरे सर्वाधिक ताकतवर नेता वीके कृष्ण मेनन को लेकर बहुत सारे किस्से मौजूद हैं. खास कर भाजपा-आरएसएस के नज़रिए से, वे निंदा और अपमान के पात्र, ‘1962 के खलनायक’ रहे हैं. इसलिए ये अच्छा है कि अब हमारे पास कांग्रेस नेता जयराम रमेश द्वारा लिखी गई मेनन की शोधपरक जीवनी उपलब्ध है.

वह एक देवदूत थे या फिर शैतान? दोनों ही नहीं, जैसा कि रमेश की सटीक नाम वाली 725 पृष्ठों की किताब ‘ए चेकर्ड ब्रिलियंस’ में मौजूद जानकारियों से मालूम पड़ता है. वह एक ही साथ उत्कृष्ट भी हो सकते थे, जैसा कि वह कश्मीर मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र में दिखे; बेहद कुशल भी, जैसा कि 1955 में उन्होंने चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन-लाई को कोरियाई युद्ध में बंदी बनाए गए अमेरिकी वायु सैनिकों को लौटाने के लिए राज़ी करने में साबित किया; और साथ ही वह ‘क्षुद्रतम और निकृष्टतम’ मानसिकता का भी प्रदर्शन कर सकते थे जैसा कि उन्होंने भारत के अब तक के सर्वाधिक विवादास्पद रक्षा मंत्री के रूप में सेना के जनरलों को लेकर प्रदर्शित किया था.

अत्यंत अभिमानी, अहंकारी और आत्मदयापूर्ण असुरक्षा भाव से भरे कृष्ण मेनन के 1930 के दशक से ही जवाहरलाल नेहरू के विश्वस्त सहयोगी बन जाने की बात जगजाहिर है.


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यह भी आश्चर्यजनक है कि वे परस्पर कितनी बातें साझा करते थे. उदाहरण के लिए, 1939 में नेहरू ने मेनन को व्यथित करने वाला एक लंबा पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने अपने गिरते शारीरिक स्वास्थ्य की चर्चा की थी. हालांकि, उन्होंने ये भी लिखा कि उनका सामान्य स्वास्थ्य बढ़िया है और इसके बल पर वह इस संकट से उबर सकते हैं लेकिन जिस बात पर वह अधिक चिंतित थे, वो थी उनके मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति. रमेश का अनुमान है कि ये वो समय रहा होगा जब इंदिरा ने उन्हें फिरोज गांधी से शादी करने की अपनी इच्छा बताई होगी.

पर हमारे जैसे 1960 के दशक में पले-बढ़े लोगों, और आज की पीढ़ी के लिए किताब का सर्वाधिक दिलचस्प खंड वो है जिसमें रक्षा मंत्री और नेहरू के मंत्रिमंडल के दूसरे सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति के रूप में मेनन के पांच वर्षों (1957-62) की चर्चा है.

रमेश ने ‘क्षुद्रतम और निकृष्टतम’ जैसे विशेषण का उपयोग खास कर इस बात को रेखांकित करने में किया है कि कैसे मेनन ने सेना के दूसरे वरिष्ठतम अधिकारी ले. जन. पीएन थापर को अपने ही सेना प्रमुख केएस थिमैया के ऊपर आरोप लगाने (गोपनीय सूचनाएं लीक करने, प्रधानमंत्री के बारे में अनाप-शनाप बोलने, और हथियार के दलालों से संपर्क रखने समेत 13 आरोप) और थिमैया का पसंदीदा उत्तराधिकारी माने जाने वाले ले. जन. एसपीपी थोरट के खिलाफ पांच बिंदुओं का ‘चार्जशीट’ लाने दिया.

उनके नाम, एक बॉस तो दूसरा समकक्ष, अपने पत्रों में थापर ने उल्लेख किया था कि उनके इस कदम की जानकारी प्रधानमंत्री को भी है, और वह इस बारे में उनका पक्ष भी जानना चाहेंगे. रमेश का निष्कर्ष, जिसे मैं बिल्कुल सही मानता हूं, ये है कि थिमैया को नापसंद करने वाले मेनन ने ही थापर से ये सब कराया था, और उन्होंने इस बारे में नेहरू को भी विश्वास में ले रखा था.

आपस में ही परस्पर साजिशें तेज हो रही थीं. ये सोचकर कि मेनन उनके पसंदीदा अधिकारी थोरट के नाम को आगे नहीं बढ़ने देंगे, थिमैया ने अपनी सिफारिश सीधे सर्वोच्च कमांडर राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को भेज दी. उन्होंने तुरंत इस पर अपनी स्वीकृति भी दे दी. भारतीय गणतंत्र की निर्माण प्रक्रिया अभी खत्म भी नहीं हुई थी, और किसी को भी राष्ट्रपति की शक्तियों की पर्याप्त समझ नहीं थी. खुद प्रसाद को भी नहीं. नेहरू और मेनन ने एकजुटता दिखाते हुए सिफारिश को ठुकरा दिया.

यदि इस प्रकरण के बाद भी युद्ध से पहले सेना के बंटे होने पर कोई संदेह रह जाता हो, तो अभी और भी साजिशें सामने आ रही थीं. पहले, थिमैया ने चिट्ठी लिखकर शिकायत की कि उन्हें एक अन्य ले. जन. एसडी वर्मा के बारे में कतिपय ‘संदेहास्पद’ सूचनाएं मिली हैं. फिर, जब वर्मा पर दंडात्मक कार्रवाई हो गई तो थिमैया ने मेनन को आकर बताया कि उनसे भूल हो गई थी. वर्मा के बारे में एकमात्र ‘संदेह’ ये था कि वह अधिक लोकप्रिय नहीं थे. मेनन ने इसे नेहरू को लिखे अपने नोटों में दर्ज किया है.

अगली बारी एक और शीर्ष अधिकारी सैम मानेकशॉ की थी. वह तब वेलिंगटन, तमिलनाडु स्थित डिफेंस सर्विसेज़ स्टाफ कॉलेज के प्रमुख थे. यहां भी बात ‘कच्ची ज़बान’ की, और अंग्रेजपरस्ती की थी, इस हद तक कि मानेकशॉ ने अपने कार्यालय में ‘वॉरेन हेस्टिंग्स और रॉबर्ट क्लाइव की तस्वीरें टांग रखी थी’. उनका करिअर भी लगभग खत्म ही होने वाला था क्योंकि मेनन ने उन्हें हाशिये पर डालते हुए जांच का आदेश दे दिया था. जांच में उन्हें दोषमुक्त पाया गया, वरना 1971 का इतिहास शायद कुछ और होता.

उस काल के बड़े प्रकरणों में से इस एक ने अगले कुछ दशकों में थिमैया-बनाम-नेहरू, सेना-बनाम-नेता जैसे किस्सों का रूप ले लिया, और नरेंद्र मोदी ने कर्नाटक में अपने चुनाव अभियान के दौरान इसे स्थानीय नायक थिमैया का नेहरू द्वारा अपमान किए जाने के रूप में पेश किया था.

रमेश द्वारा जुटाए गए दस्तावेज़ों में तीन चौंकाने वाली जानकारियां हैं: सर्वप्रथम, स्टेट्समैन अख़बार ने 1959 में थिमैया के इस्तीफे की खबर ब्रेक की थी. इसे महेश चंद्र के नाम से प्रकाशित किया गया था. पर रमेश ने ये साबित किया है कि जनरल जेएन चौधरी (जो बाद में सेना प्रमुख बने) ने तत्कालीन ब्रितानी स्वामित्व वाले स्टेट्समैन के लिए सैन्य संवाददाता के रूप में चुपके-चुपके एक दशक से भी अधिक समय तक काम किया था. उन्हें इस इस्तीफे की अंदरूनी जानकारी थी पर चूंकि वह खुद ये खबर नहीं लिख सकते थे, इसलिए दूसरे को दे दिया. जरा सोचकर देखें, एक सेवारत शीर्ष सैनिक अधिकारी गुप्त रूप से एक प्रमुख अखबार के लिए सैन्य संवाददाता का काम कर रहा था.

दूसरी चौंकाने वाली बात तत्कालीन ब्रितानी उच्चायुक्त मैल्कम मैकडोनाल्ड के निजी दस्तावेज़ों से निकलकर आई है कि कैसे थिमैया उनसे सारी बातें साझा करते थे— मेनन और नेहरू के साथ अपनी समस्याओं की, इस्तीफे की योजना की, और बहुत-सी गोपनीय सूचनाएं. जैसे थिमैया का ये सोचना कि मेनन ने जान-बूझकर पाकिस्तान को भारत का मुख्य शत्रु और खतरा घोषित कर रखा था और चीन से खतरे को कम करके पेश किया था. और, मैकडोनाल्ड ये सारी सूचनाएं पूरी कर्तव्यनिष्ठा के साथ लंदन स्थित अपने अधिकारियों को प्रेषित करते थे.


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और तीसरी बात, जैसा कि आगे चलकर माना जाने लगा था, यदि नेहरू और मेनन ने थिमैया की सुनी होती तो भारत को 1962 के उस युद्ध में पराजित नहीं होना पड़ता. लेकिन इस वजह से नहीं कि थिमैया इतने उत्कृष्ट थे कि वह जीत दिला देते बल्कि इसलिए कि उन्हें पूर्वाभास था और वह ज़ोर देकर कहते रहे थे– यहां तक कि अपनी सेवानिवृत्ति के पांच महीने बाद भी– कि सेना किसी भी हालत में चीन से भारत की रक्षा नहीं कर सकती है. और ये दायित्व नेताओं और राजनयिकों का था.

संदेही और साजिशी सिद्धांतों पर यकीन करने वाले मेनन की सलाह पर चलने वाले अक्षम नेहरू के बारे में कही जाने वाली सारी बातें सही हैं. पर पुस्तक में इस धारणा को एक घटिया मिथक साबित किया गया है कि यदि जनरलों पर छोड़ दिया जाता तो भारत उस युद्ध में कहीं बेहतर प्रदर्शन कर सकता था. उस दौर के जनरल आपस में ही लड़ने में इतने अच्छे और व्यस्त थे कि उन्हें चीन के बारे में सोचने की फुर्सत कहां थी. और हमने अभी ले. जन. बीएम कौल नामक एक अन्य शीर्ष सैनिक अधिकारी का उल्लेख तक नहीं किया है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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