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Monday, 4 November, 2024
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केंद्र-राज्य संबंधों को दुरुस्त करने का समय आ गया है, जिम्मेदारी केंद्र सरकार पर है

राज्य का कमाया हर रुपया केंद्र को चला जाता है, जिसे वित्त आयोग कुछ कसौटियों के आधार पर वापस करता है, यह रिश्ता कभी सुखद नहीं रहा.

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भारत के आर्थिक संघवाद का मुखिया पहले योजना आयोग था और अब नीति आयोग है. राजनैतिक संघवाद तो काफी कामयाब है, लेकिन केंद्र-राज्य वित्तीय रिश्ते में हमेशा खिंचाव बना रहा है, जिससे संघवाद पर आधारित लोकतंत्र की संवैधानिक गारंटी पर गंभीर चुनौती खड़ी हो रही है. नीति आयोग की गवर्निंग काउंसिल की हाल में बैठक के दौरान गैर-बीजेपी (भारतीय जनता पार्टी) शासित राज्यों के बॉयकॉट और तीखी आलोचना देखने को मिली. एक मुद्दे माल व सेवा कर (जीएसटी) के मुआवजे की व्यवस्था की मांग पर तो बीजेपी-शासित राज्यों ने भी विपक्ष के सुर में सुर मिलाया.

राज्यों की राजस्व बंटवारे को लेकर केंद्र से नाखुशी की कई वजहें हैं. आर्थिक राहत देने और जीएसटी उगाही में कमी की भरपाई की कोशिश में केंद्र ने 2020 में कर्ज उठाने के दो विकल्प मुहैया कराए, जिसका भुगतान जून 2022 की समय-सीमा तक मुआवजे की राशि मिलने पर किया जा सकता है. कुछ बीजेपी-शासित राज्य तो प्रस्ताव पर राजी हुए, मगर गैर-बीजेपी शासित राज्य ‘ऊंची ब्याज दर पर बाजार से कर्ज उठाने’ को तैयार नहीं हुए. दिलचस्प यह है कि राज्यों को राजनैतिक सत्ता का केंद्र से साझा तो नहीं करना पड़ता, मगर राज्यों का कमाया हर रुपया केंद्र के खजाने में जाता है, जिसे वित्त आयोग कुछ कसौटियों के आधार पर राज्यों को लौटाता है. यह वित्तीय रिश्ता कभी सुखद नहीं रहा.

पहले दिक्कतों को पहचानिए

केंद्रीकृत नियोजित अर्थव्यवस्था से बाजार अर्थव्यवस्था के इस संक्रमण-काल में संघीय राजनैतिक ढांचे में केंद्र और राज्यों दोनों के नीति-निर्माताओं की चुनौतियों की पहचान करना बहुत जरूरी हो गया है.

आर्थिक संघवाद और सरकार के हर स्तर पर समन्वित सुधार प्रक्रिया वृद्धि में तेजी लाने, गरीबी घटाने, गैर-बराबरी दूर करने, और मानव विकास में इजाफे के लिए मुख्य उपाय हैं. ऐसी कोशिश से नए और छोटे राज्यों की मजबूरियों और मुश्किलों को दूर करने में मदद मिलेगी.

छोटे राज्यों में बड़ी आदिवासी और वंचित आबादी, पहाड़ी इलाके जैसे कुछ अनोखे पहलू हैं. इससे संसाधनों की साझेदारी, कच्चा माल उपलब्ध कराने के लिए मुआवजा और बाजार तक पहुंच एक बराबरी का मैदान मुहैया होता है. इन सरोकारों को समझने में नाकामी से सिर्फ आर्थिक तकलीफें और राजनैतिक विवाद जैसे मुद्दे ही नहीं भड़कते, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के गंभीर खतरे भी पैदा होते हैं. आर्थिक गैर-बराबरी और लाभ बंटवारे की गलत व्यवस्था से सामाजिक तालमेल बिगड़ता है, जिससे राजनैतिक अस्थिरता और अलगाववाद तथा उग्रवाद के खतरे उभरते हैं. इन चुनौतियों का समाधान राजनैतिक और आर्थिक होने के अलावा राजनैतिक व्यवस्था में सोचे-समझे बदलाव से ही निकलेंगे.


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परोक्ष और प्रत्यक्ष वित्तीय खाई

संविधान की सातवीं अनुसूची में संघ और राज्यों की सूची में केंद्र और राज्यों के अधिकार और कामकाज का ब्यौरा है और जो विषय दोनों के साझा अधिकार क्षेत्र में हैं, उनका जिक्र समवर्ती सूची में है. केंद्र और राज्य सरकारों के वित्तीय अधिकारों का साफ-साफ बंटवारा है. वित्तीय व्यवस्थाएं मिली जुली अर्थव्यवस्था के ढांचे में केंद्रीय योजनाओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए अर्ध-संघीय व्यवस्था के रूप में उभरी. राजस्व के स्रोतों को केंद्र और राज्यों दोनों के वित्तीय संबंधों और जिम्मेदारियों के संदर्भ में साफ-साफ बांटा गया.

वित्तीय हस्तांतरण व्यवस्था की दो मुख्य चुनौतियां प्रत्यक्ष और परोक्ष असंतुलन को दूर करने की हैं. अभी तक साझा राजस्व से निकलने वाली राज्यों की हिस्सेदारी कमोवेश एक जैसी रही है और इस तरह प्रत्यक्ष संतुलन का ख्याल रखा गया है. जहां तक परोक्ष संतुलन का सवाल है, कुछ वित्त आयोगों ने बराबरी के मुद्दे को दुरुस्त की है. जीएसटी पर अमल के जरिए राजस्व उगाही और साझेदारी को और साफ किया है. फिर, राजस्व साझेदारी के लिए वित्त आयोग के पैमाने को लेकर भी चिंताएं हैं, जिसमें विभिन्न कटगरियों को दिया जाने वाला अपेक्षाकृत वजन मोटे तौर पर अस्थायी बनी हुई है. वैकल्पिक राजस्व साझेदारी के लिए उपयुक्त वजन तय करने के लिए अधिक तर्कसंगत व्यवस्था बनाने की तत्काल जरूरत है और अच्छा होगा कि यह राज्यों से सलाह के बाद किया जाए.

राज्य सरकारों, खासकर दक्षिण भारत की सरकारों का मनना है कि आबादी, जंगल क्षेत्र, गरीबी और बेराजगारी जैसी कैटगारिया वित्तीय आवंटन को तय करने के सही पैमाने नहीं हैं. तमिलनाडु ने सफलतापूर्वक परिवार नियोजन कार्यक्रम को लागू किया. लेकिन आबादी में गिरावट का नतीजा अब, कहिए, बिहार या पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के मुकाबले कम वित्तीय आवंटन में होगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हस्तक्षेप किया और सुझाया कि समाज कल्याण के कार्यक्रमों पर अमल में सफलता की कोशिशों को उचित वजन दी जानी चाहिए.

लेकिन बड़ा सवाल संसाधन आवंटन की प्रक्रिया में मूलभूत बदलाव लाकर टिकाऊ समाधान तलाशने की है. वित्त आयोग के गठन में भी अधिक सदस्यों और सलाहकार संस्थाओं को शमिल करके कुछ नया स्वरूप दिया जा सकता है. इसके अलावा, जीएसटी काउंसिल के अधिकारों में विस्तार किया जा सकता है, ताकि उसमें संसाधन आवंटन पर बहस हो और सुझाव दे, हालांकि ये सिफारिशें बाध्यकारी न हों.

दायित्व तो केंद्र सरकार का

मजबूत और स्थायी केंद्र सरकार के राजनैतिक फायदे के मद्देनजर यह संभव है कि केंद्र सरकार कई बार समवर्ती सूची के विषयों पर केंद्रीय खर्च को बढ़ाकर राज्य सरकारों को दरकिनार करने की लालच में आ जाए. इस खामी को दूर करने में राज्य लगभग कुछ नहीं कर सकते, सुधार करने का दायित्व केंद्र सरकार पर है. नई दिल्ली में एक के बाद एक सरकारों ने महसूस किया है कि विकेंद्रीकरण से अर्थव्यवस्था पर उसका नियंत्रण सीधे घट जाता है. चाहे नियंत्रित, खुली या मिलजुली, विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं का अनुभव यही है कि इसका उलटा ही सही है. चीन और इंडोनेशिया के मामले में राजनैतिक रूप से मजबूत केंद्र पिछले दो दशकों में अर्थव्यवस्था के अलावा हर मामले में अच्छा रहा है.

चीन को अपनी अर्थव्यवस्था को विकेंद्रित करना पड़ा और राज्यों से वित्तीय संबंधों को नया स्वरूप देना पड़ा. राज्यों के मुकाबले आर्थिक मुद्दों को हल करने के मामले में नई दिल्ली भी राजनैतिक रूप से मजबूत केंद्र सरकार विकेंद्रीत अर्थव्यवस्था के ढांचे को आजमा सकती है.

अब वक्त आ गया है कि केंद्र-राज्य संबंधों को नया रूप दिया जाए, या फिर हम भीमराव आंबेडकर के इस कथन को सही ठहराना चाहें कि ‘राजनीति में तो हम बराबर होंगे, और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में गैर-बराबर होंगे.’

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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