देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा एक बार में तीन तलाक देकर मुस्लिम महिला को बेसहारा और बेबस छोड़ने की कुप्रथा को अंसवैधानिक और गैरकानूनी करार देने के फैसले के दो साल बाद अब संसद ने इस कुरीति से मुस्लिम महिलाओं को आजादी दिलाने के लिये एक महत्वपूर्ण विधेयक को मंजूरी दी है. इस विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद यह कानून का रूप ले लेगा. लेकिन तीन तलाक तो महज़ एक शुरुआत है इसके सहारे निकाह हलाला और बहुविवाह जैसे मामले भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं.
मुस्लिम महिला- विवाह अधिकार संरक्षणः
विधेयक के कानून का रूप लेने के बाद मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक की दहशत के साथ ही अगर शौहर दुबारा उसे अपनाना चाहे तो इसके लिये निकाह हलाला से गुजरने की मानसिक यातनाओं से पूरी तरह निजात मिल जायेगी. मुस्लिम समाज, विशेषकर सुन्नी समुदाय में एक ही बार में तीन तलाक देने की प्रथा थी. इस कुप्रथा की शिकार शायरा बानो ने इसके खिलाफ आवाज बुलंद की और उसने 2016 में उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर की थी. इसके बाद, इस कुरीति के दंश की शिकार कुछ अन्य महिलायें भी शीर्ष अदालत पहुंची.
इस मानवीय समस्या की गंभीरता को देखते हुये ही प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इस पर विस्तार से विचार के बाद 23 अगस्त, 2017 को बहुमत के फैसले में मुस्लिम समाज में प्रलचित ‘तलाक-बिद्दत’ अर्थात एक बार में तीन तलाक देने की परंपरा को गैरकानूनी और असंवैधानिक करार दिया था.
वैसे तीन तलाक की शिकार हुयी महिला की मनःस्थिति और इसके बाद निकाह हलाल की वेदना से गुजरने वाली महिला तथा अपनी बीवी को आवेश मे आकर तलाक देने वाले पति की मानसिक स्थिति को समझना हो तो फिल्म अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी द्वारा बनायी गयी लघु फिल्म ‘मियां कल आना’ देखना ही पर्याप्त होगा. इस फिल्म को अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं. यह फिल्म बेहद संवेदनशील है और इसमेे आवेश में आकर तीन तलाक देने जैसे आवेश में उठाये गये अविवेकपूर्ण कदम के दुष्परिणामों को बेहद मार्मिक तरीके से दिखाया गया है. तलाक-ए-बिद्दत पर शीर्ष अदालत का फैसला आने के बाद अचानक ही छोटी-छोटी से बात पर तीन तलाक देने की घटनायें तेजी से सामने आने लगीं.
तीन तलाक देने के 574 मामले सामने आये
इन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम महिला संगठन मांग करने लगे कि सरकार शरिया के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ के बगैर ही अब मुस्लिम महिलाओं को उत्पीड़न से बचाने के लिये उचित कानून बनाये. लेकिन संसद से यह विधेयक मंजूर होने और जल्द ही कानून का दर्जा प्राप्त करने के बाद भी मुस्लिम महिलाओं की मानसिक वेदना का सिलसिला अभी खत्म नहीं हुआ है. मुस्लिम महिलायें अभी और भी कई कुप्रथाओं से निजात चाहती हैं. शीर्ष अदालत का फैसला आने के बाद अकेले 2017 में एक बार में तीन तलाक देने के 574 मामले सामने आये. मीडिया ने भी ऐसे तीन सौ से अधिक मामलों को उजागर किया था.
सरकार ने इस मुद्दे को गंभीरता से लिया और 2017 में ही मुस्लिम महिलाओं के हितों की रक्षा के कानून का मसौदा तैयार किया. राज्य सभा में अल्पमत में होने की वजह से 2017 में यह कानून नहीं बन सका था क्योंकि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों का रवैया सहयोगात्मक नहीं था. बहरहाल, अब संसद ने इस विधेयक को अपनी मंजूरी दे दी है. अब यह कानून की शक्ल ले लेगा. इसका मकसद तीन तलाक का शिकार हुयी मुस्लिम महिलाओं और उनके नाबालिग बच्चों के हितों की रक्षा करना है.
इसमे साफ तौर पर प्रावधान किया गया है कि यदि कोई मुस्लिम पति लिखित या किसी इलेक्टॅानिक तरीके सहित किसी भी रूप में अपनी पत्नी को एक बार में तलाक शब्द का तीन बार उच्चारण करता है, जिसके परिणाम स्वरूप यह अपरिवर्तनीय तलाक होता है, तो इस तरह की घोषणा गैरकानूनी और शून्य होगी. इस तरह से तलाक देने को संज्ञेय अपराध बनाया गया है. इस तरह से तलाक देने वाले पति के लिये तीन साल की कैद और जुर्माने की सजा हो सकेगी. हां, इस कानून में मजिस्ट्रेट की अदालत से जमानत का प्रावधान किया गया है लेकिन अदालत पीड़ित महिला का पक्ष सुने बगैर जमानत नहीं दे सकती.
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इसमें यह भी प्रावधान किया गया है कि इस तरह के तलाक की शिकार महिला अपने पति से अपने और अपने आश्रित बच्चों के लिये पर्याप्त गुजारा भत्ते की हकदार है और वह इसके लिये प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट की अदालत का दरवाजा खटखटा सकती है. जहां तक इस प्रकार से तलाक दी गयी महिला के अवयस्क बच्चों की हिफाजत और देखरेख का सवाल है तो उसे अपने बच्चों की सुपुर्दारी के लिये भी मजिस्ट्रेट की अदालत से अनुरोध करना होगा.
तीन तलाक देने की कुप्रथा का एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह भी है कि अगर शौहर ने आवेश में आकर अपनी पत्नी को एक ही बार में तीन तलाक दे दिया और अपनी गलती का अहसास होने पर वह उसे फिर से अपनाना चाहता है तो इसके लिये पत्नी को ही निकाह हलाला की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. इसके लिये किसी मौलवी या किसी अन्य व्यक्ति के साथ इस महिला का निकाह कराया जाता है और फिर उसका तलाक होता है.
मुस्लिम महिलाओं ने समाज में प्रचलित ‘निकाह हलाला’ की प्रथा की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुये उच्चतम न्यायालय याचिकायें दायर कर रखी हैं. यह मामला इस समय संविधान पीठ के पास लंबित है.
संविधान पीठ को सौंपी याचिकाओं में मुस्लिम महिलाओं के बुनियादी हकों की रक्षा करने साथ बहुविवाह प्रथा पर प्रतिबंध लगाने और निकाह हलाला को भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत बलात्कार घोषित करने का अनुरोध किया गया है. इनमें यह भी दावा किया गया है कि इन प्रथाओं से संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है.
एक महिला ने तो एक बार में तीन तलाक देने को भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के तहत क्रूरता और निकाह हलाला को बलात्कार का अपराध घोषित करने का अनुरोध किया है. मुस्लिम महिलाओं ने हालांकि तीन तलाक के खिलाफ एक जंग जीत ली है लेकिन उन्हें अभी कई अन्य कुप्रथाओं से निजात पाने के लिये संघर्ष करना है. स्थिति यह है कि इन महिलाओं ने कई अन्य कुप्रथाओं के खिलाफ याचिकायें दायर कर रखी हैं.
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इनमें ‘निकाह हलाला’ के साथ ही बहुपत्नी प्रथा को भी चुनौती दी गयी है. इनमें कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत बहुविवाह अपराध है परंतु मुस्लिम पर्सनल लाॅ की वजह से यह प्रावधान इस समुदाय पर लागू नहीं हो रहा है. इस वजह विवाहित मुस्लिम महिला के पास ऐसा करने वाले अपने पति के खिलाफ शिकायत करने का रास्ता नहीं है.
याचिका में मुस्लिम विवाह विच्छेद कानून, 1939 को असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 ओर 25 में प्रदत्त अधिकारों का हनन करने वाला घोषित करने का अनुरोध किया गया है. इन प्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाने वाली मुस्लिम महिलाओं का तर्क है कि मुस्लिम पर्सनल लाॅ में प्रदत्त इन तमाम किस्म की शादियों से उनके मौलिक अधिकारों का हनन होता है. एक याचिका में तो निकाह हलाला के साथ ही निकाह मुताह और निकाह मिस्यार को भी चुनौती दी गई है. ये दोनों प्रथायें अस्थाई निकाह हैं और इनके लिये पहले से ही इस रिश्ते की मियाद निर्धारित होती है.
शाहबानो मामले में न्यायालय का फैसला बदले जाने से मुस्लिम महिलाओं के साथ हुआ अन्याय तीन तलाक मामले में राहत देकर संसद ने मुस्लिम महिलाओं को अपमान और मानसिक यातनाओं की जिंदगी से मुक्ति दिलाने का काम किया है.
उम्मीद की जानी चाहिए कि सती प्रथा और देवदासी प्रथा तथा बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं पर अंकुश पाने के बाद मुस्लिम समुदाय की महिलाओं को पुरातनपंथी प्रथा के तहत मानसिक यातनाओं से मुक्ति दिलाने के प्रयास यहीं नहीं रुकेंगे. मुस्लिम महिलाओं के हितों की रक्षा के लिये शुरू हुआ यह संघर्ष जारी रहेगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.यह आलेख उनके निजी विचार हैं)