भारत की उत्तरी सीमाओं पर इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास में नरेंद्र मोदी सरकार के तहत भारी उछाल आया है, खासकर सड़कों के निर्माण और हवाई अड्डों के आधुनिकीकरण के मामले में. सीमाओं पर सड़कों को चीन की सड़कों के बराबर के स्तर का बनाने की शुरुआती योजना काँग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 2007 में ही बनाई थी लेकिन 2014 में आई वर्तमान सरकार ने इसके लिए बड़ा बजट निश्चित किया और वह इन सड़कों को आगे बढ़ाकर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) तक ले जाने की इस योजना को लागू करने में ज़ोरशोर से भिड़ गई. अप्रैल-मई 2020 में चीनी सेना की घुसपैठ और इसके बाद सेना की भारी तैनाती ने इसे और जरूरी बना दिया.
गौरतलब है कि सेना की एहतियातन तैनाती के बिना एलएसी तक सड़कों के निर्माण ने अप्रैल-मई 2020 में चीनी सेना द्वारा हमले की पहल को कामयाब बनाया और भारत को लद्दाख में 1,000 वर्गकिलोमीटर से ज्यादा जमीन पर अपना नियंत्रण गंवाना पड़ा.
बॉर्डर रोड्स संगठन के महानिदेशक ले.जनरल राजीव चौधरी ने उम्मीद जताई है कि भारत अपग्ले तीन-चार साल में सड़कों के मामले में चीन की बराबरी कर लेगा. लेकिन ‘इंडिया टुडे’ ने सीमा पर दोनों देशों के इन्फ्रास्ट्रक्चर का जो तुलनात्मक आकलन किया है उसके मुताबिक हमें अभी बहुत दूर का सफर तय करना है. मेरा अपना आकलन है कि युद्ध का स्वरूप मुख्यतः ‘प्रीसीज़न गाइडेड म्यूनिशंस’ (पीजीएम) और ड्रोनों पर जिस तरह निर्भर होता जा रहा है उसके मद्देनजर हम स्थायी रक्षापंक्ति और संभारतंत्र के इन्फ्रास्ट्रक्चर की सुरक्षा को मजबूत करने में पिछड़ रहे हैं.
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युद्धक्षेत्र की पारदर्शिता और पीजीएम
उपग्रह, विमान, ड्रोन, रडार, इलेक्ट्रोनिक दखल, आदि के रूप में निगरानी और टोही व्यवस्था के जो आधीनीक साधन हैं वे युद्धक्षेत्र में सेना को लक्ष्य के बारे में स्पष्ट रूप से बता देते हैं. इन लक्ष्यों को हवा में या जमीन पर तैनात पीजीएम या ड्रोनों के द्वारा 90 फीसदी कामयाबी के अंदाज के साथ निशाना बनाया जा सकता है. कमांड और कंट्रोल को नाकाम करने के लिए उन्हें इलेक्ट्रोनिक और साइबर साधनों के जरिए जाम किया जा सकता है. गोलाबारी के साधनों और मिसाइलों आड़े के जरिए खतरों को और कम किया जा सकता है.
तकनीक का युद्धक्षेत्र कैसा है, उसका एक अच्छा उदाहरण रूस-यूक्रेन युद्ध प्रस्तुत कर रहा है. लेकिन मसला सापेक्ष किस्म का है और सभी तरह के खतरों के खिलाफ सक्रिय और परोक्ष जवाबी कार्रवाई की जा सकती है. ऐसे माहौल में, अच्छी तरह से सुरक्षित बचाव पक्ष उस आक्रमणकर्ता से साफ बढ़त ले सकता है, जिसे जमीन पर कब्जा करने के लिए खुली कार्रवाई करने को मजबूर किया गया हो. तकनीक के मामले में दोनों पक्षों के बीच बड़ा अंतर न हो तो अकेले तकनीक तुलनात्मक रूप से कमजोर बचाव पक्ष को परास्त करने की गारंटी नहीं दे सकती.
सैन्य मामलों में भारत और चीन के बीच फर्क मुख्यतः साइबर और इलेक्ट्रोनिक युद्ध और पीजीएम, ड्रोन, मिसाइल आदि के स्तर और उनकी संख्या को लेकर है. भारत जब तक इस फर्क को मिटा नहीं देता तब तक चीन को ‘शह देने’ के लिए सामरिक आक्रमण की क्षमता बनाए रखते हुए रणनीतिक स्तर पर सक्रिय रक्षात्मक रणनीति में भरोसा करना ही बेहतर होगा.
यहां यह दोहराना उपयुक्त होगा कि परमाणुशक्ति संपन्न देशों के बीच निर्णायक युद्ध अब नामुमकिन है, बल्कि सीमित युद्ध की संभावना भी बहुत कम है. लेकिन परमाणु शक्ति के उपयोग से पहले सीधी टक्कर न लेते हुए, हवा या जमीन पर तैनात पीजीएम, ड्रोन, मिसाइल का अलावा इलेक्ट्रोनिक और साइबर हमलों का इस्तेमाल की काफी संभावना हो सकती है. फिलहाल, संख्या और स्तर के लिहाज से जवाबी कार्रवाई की भारत की क्षमता चीन के बराबर नहीं है.
ऐसे में, अच्छी तरह सुरक्षित रक्षापंक्ति, और जमीन के नीचे तैनात सैन्य साजोसामान चीन की बढ़त को काफी हद तक नाकाम कर सकते हैं.
सुरंग युद्ध
सुरंग युद्ध 4,000 साल पुराना है और इस तरीके का इस्तेमाल हमला करने और बचाव करने के लिए भी किया जाता है. पिछले 200 साल में, पहले घोड़ों की वजह से और बाद में यंत्रों अथवा विमान/हेलिकॉप्टर की वजह से रफ्तार की सुविधा ने सुरंगों में की गई तैनातियों को निष्प्रभावी कर दिया. इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण यह है कि विश्वयुद्ध-2 में जर्मनी के तूफानी हमलों ने फ्रांस में भारी सुरक्षा से लैस मैगीनॉट लाइन की उपेक्षा कर दी थी.
लेकिन, बचाव पक्ष अपने दुश्मन की हवाई तथा जमीनी गोलाबारी हमलों की क्षमता को नाकाम करने के लिए सुरंग युद्ध का तरीका अपनाते रहे हैं. चीन सुरंग युद्ध में उस्ताद रहा है और उसने 1937-45 में चीन-जापान युद्ध के दौरान इस तरीके को नयी जीवन प्रदान किया था. तब उसने हेबे प्रांत के रांझूयांग गांव में, जो आज सैलानियों का आकर्षण केंद्र है, युद्धक्षेत्र में 15 किमी लंबी सुरंग खोदी थी और मांदों को घरों से जोड़ दिया था ताकि वह जापानी सैनिकों पर पीछे से हमला कर सके. जापान ने यह युद्धकला चीन से सीकिह, और इसका इस्तेमाल प्रशांत सागर में द्वीपों के युद्धों में किया. पेलेलु और इवो जिमा द्वीपों, जिन्हें अमेरिकी नौसैनिकों ने बड़ी कीमत चुका कर जीता था, की लड़ाई इसका उल्लेखनीय उदाहरण है.
1950-53 के कोरियाई युद्ध में, उत्तरी कोरिया और चीन की सेनाओं ने अमेरिका के हवाई और तोप हमलों से बचने के लिए पहाड़ी जैसे क्षेत्र में भूमिगत अड्डे बनाए थे. मोर्चे पर प्रति मील (1.6 किमी) के बीच दो मील लंबी सुरंग बनाई थी यानी कुल 300 मील लंबी सुरंगे बनाई थी.
वियतनाम में, वियतकोंग छापामारों ने सुरंग युद्ध को कला के रूप में बदल लिया था. सैगोन के पास कु ची इलाके में वियतकोंग के सुरंगों से बेखबर अमेरिकी सेना ने उनके ऊपर 1,500 एकड़ में सैन्य अड्डा बना लिया था, जहां 4,500 सैनिक टिकाए गए थे. सुरंगों से निकली काली आकृतियों ने बड़ी संख्या में सैनिकों का सफाया कर दिया. अड्डे को छोड़ना पड़ा और अमेरिकी वायुसेना को उसे बम से उड़ाना पड़ा और फिर भारी नुकसान के बाद उसकी सफाई करनी पड़ी. आज के आतंकवादी भी अफगानिस्तान, सीरिया, इजरायल-फिलसतीं सीमा पर छापामार हमलों के लिए सुरंगों का इस्तेमाल कर रहे हैं.
मैंने इतिहास से ये उदाहरण इस बात पर ज़ोर देने के लिए दिए हैं कि सुरंग बचाव के लिए कितने कारगर हैं, क्योंकि वे पीजीएम की क्षमता की पोल खोल देते हैं, और देशों को अक्सर बेहद विनाशक उपाय करने के लिए मजबूर करते हैं, जैसे वियतनाम में बी-52 बमवर्षकों, अफगानिस्तान में ‘बमों के बाप’ जीबीयू-43 मैसिव ऑर्डनान्स एअर ब्लास्ट, इजरायल पर भारी हवाई हमले के लिए. फिर भी, भूमिगत अड्डों के बारे में कम शोध किया गया है, उसे अच्छी तरह नहीं समझा गया है, और अक्सर कमतर आंका गया है. नमारी उत्तरी सीमा की रक्षा के के लिए यहां एक अहम सबक है.
हमारी रक्षापंक्ति का हाल
हमारे पहाड़ों की रक्षापंक्ति छोटे हथियारों और गैर-पीजीएम तोपों के हमलों का सामना करने में सक्षम है लेकिन उलटी ढलान वाली रक्षपंक्ति के कारण उनकी ताकत कमजोर पड़ती है. ऊपरी चोटियों पर रक्षपंक्ति पारंपरिक गोलाबारी को झेल सकती है और बचाव पक्ष को हमलावर से बढ़त मिली होती है, जो खुले में होता है और ऑक्सीजन की कमी वाले इलाके में चढ़ कर हमला करना होता है.
पहाड़ की चोटी पर खड़े अंगूठे जैसी रक्षपंक्ति का यह स्वरूप करीब एक सदी से जस का तस बना हुआ है. ऐसे रक्षपंक्ति ड्रोन समेत हवाई या जमीनी मार करने वाले पीजीएम के आगे ध्वस्त हो सकती है. ठेठ नजदीकी लड़ाई बीती बात हो गई. चीनी सेना पीएलए प्रतिकूल इलाके में ‘नजदीकी लड़ाई’ से दूर रहकर, ऊंची चोटी पर ‘बढ़त के साथ तैनात रक्षपंक्ति’ को नाकाम कर सकती है. अगर वह जमीन पर कब्जा करने के लिए ताकत का प्रयोग करने का फैसला करती है तब वह पीजीएम, साइबर और इलेक्ट्रोनिक युद्ध का भारी सहारा लेकर आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल से करेगी. खून से लथपथ करीबी लड़ाई का रोमानी स्वरूप पिछली सदी की बीती बात हो गई. सैन्य चौकियों और संभारतंत्र के विनाश का दंडात्मक तरीका चुना जा सकता है जिसमें करीबी लड़ाई शामिल न हो. खुले में स्थापित संभारतंत्र पीजीएम के लिए आसान निशाना साबित होते हैं.
साइबर और इलेक्ट्रोनिक युद्ध में पीएलए की महारत और आक्रमण तथा सुरक्षा के पीजीएम, ड्रोन, मिसाइलों जैसे साधनों के स्तर और उनकी संख्या में बराबरी करने में लंबा समय लगेगा क्योंकि हमार रक्षा बजट वैसा नहीं है और उसमें जल्दी वृद्धि की भी उम्मीद नहीं है. सुरंग युद्ध गतिरोध को तोड़ने और भौतिक तथा स्टैंड-ऑफ हमलों के लिए एक अंतरिम समाधान हो सकता है.
आगे का रास्ता
ताजा रिपोर्ट बताते हैं कि पीएलए संभतः संभारतंत्र, संचार केन्द्रों, परमाणु हथियारों, ऊंचे हेडक्वाटर्स कमान पोस्ट आदि के वास्ते एलएसी से 60-70 किमी दूर डीबीओ सेक्टर के सामने भूमिगत ठिकाने बना रही है. मुझे पूरी उम्मीद है कि भारतीय सेना ने सही सबक सीखा है— स्थायी रक्षापंक्ति, संभारतंत्र, संचार केंद्र, कमांड पोस्ट, और हवाई अड्डों आदि के साथ स्थायी रक्षापंक्ति के निर्माण के लिए सुरंग युद्धकला को अपनाने का.
मेरा आकलन है कि अटकलों के बावजूद, भारतीय सेना ने सामरिक अवधारणा के रूप में सुरंग युद्ध को औपचारिक रूप से अपनाया नहीं है. ऊंचे इलाके सुरंग युद्ध के लिए उपयुक्त होते हैं. सेना को पहाड़ी क्षेत्रों में हमारी स्थायी रक्षपंक्ति के वास्ते सुरंग युद्ध की संभावनाओं का विस्तृत अध्ययन करना चाहिए. आर्मी इंजीनियरों को दक्षि कोरिया में 38वें पैरलल के साथ बनाई गई रक्षपंक्ति जैसे मॉडलों का अध्ययन करना चाहिए, और उन्हें ऊंचे इलाकों में रहने और युद्ध करने के मॉडल के रूप में अपनाना चाहिए. इसी तरह, संभार तंत्र से संबंधित ठिकाने भी भूमिगत बनाए जाएं, फिलहाल वे जिस स्थिति में हैं उसमें वे 24-48 घंटे के युद्ध से ज्यादा देर तक नहीं टिक पाएंगे.
सुरंग युद्ध की कला का सफल प्रयोग संसाधनों तथा तकनीक के मामले में फर्क को नाकाम करने में किया जा चुका है, और मुझे कोई संदेह नहीं दिखता कि भारतीय सेना भी ऐसा क्यों नहीं कर सकती.
(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (आर) 40 वर्षों तक भारतीय सेना में सेवा की. वह सी उत्तरी कमान और मध्य कमान में जीओसी थे. रिटायरमेंट के बाद, वह सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य भी रहे हैं.)
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