scorecardresearch
Monday, 18 November, 2024
होममत-विमतदक्षिण बनाम उत्तर की बहस नहीं बल्कि केंद्र की 'एक राष्ट्र, एक नीति' विभाजनकारी है

दक्षिण बनाम उत्तर की बहस नहीं बल्कि केंद्र की ‘एक राष्ट्र, एक नीति’ विभाजनकारी है

भारत में लोकतांत्रिक मॉडल संघीय है, लेकिन एक शक्तिशाली संघ की ओर थोड़ा झुका हुआ है, जो राज्यों के अधिकारों की कीमत पर और भी अधिक शक्ति अर्जित करता है.

Text Size:

एक दशक या उससे अधिक पहले सोशल मीडिया पर तीखी नोंक-झोंक और बहस काफी मज़ेदार हुआ करती थी. अब, एक साइड को सपोर्ट करके दूसरे को टारगेट करने वाले, संगठित तरीके से ‘अटैक’ और बॉट्स ने सोशल मीडिया के हाथ में काफी मजबूज हथियार दे दिया है. कोई भी कुछ भी कहता है तो दूसरे पक्ष की ओर से रोष उत्पन्न हो सकता है. और जिनसे हमारी असहमित हो सकती है उनके साथ सद्भावनापूर्ण तरीके से जुड़ने के बजाय, अब किसी व्यक्ति को जानबूझकर शरारती तरीके से बनाए गए आक्रोश की बाढ़ का सामना करना पड़ेगा. कांग्रेस नेता प्रवीण चक्रवर्ती ने हाल के विधानसभा चुनावों के बारे में अपनी पोस्ट के बाद उस बदसूरत सच्चाई का अनुभव किया, जिससे एक्स पर आक्रोश फैल गया.

जिस दिन मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के राज्य विधानसभा चुनाव परिणाम घोषित हुए, उस दिन उन्होंने मेरी किताब साउथ वर्सेज नॉर्थ: इंडियाज ग्रेट डिवाइड के कवर की एक आंशिक तस्वीर पोस्ट की थी. आक्रोश फैलाने वाली फ़ैक्टरी ने इस पोस्ट को लोगों को बांटने वाला कहा, जिसकी वजह से चक्रवर्ती ने अंततः इसे हटा दिया.

मतदाता के व्यवहार में मौजूदा अंतर की ओर इशारा करना विभाजनकारी के अलावा कुछ भी नहीं है. जैसा कि स्वास्थ्य, शिक्षा और अर्थव्यवस्था के आंकड़ों से पता चलता है, भारतीय राज्य बेहद असमान और अलग-अलग हैं. समाज में मौजूदा खाईयों का विश्लेषण करने से ही हमारी राजनीति और नीति निर्माण में सुधार होता है.

स्वास्थ्य पर आंकड़ों से पता चलता है कि सबसे अच्छे और सबसे खराब राज्यों के बीच का अंतर उतना ही बड़ा है जितना ओईसीडी देशों और उप-सहारा अफ्रीका के बीच है. जब शिक्षा की बात आती है, तो यह विभाजन उतना ही व्यापक है जितना कि मध्यम-आय वाले देशों और निम्न-आय वाले देशों के बीच. आर्थिक संभावनाओं के मामले में, बेहतर स्थिति वाले राज्य दो से तीन गुना अधिक अमीर हैं. कुल मिलाकर, दक्षिण भारत देश के मध्य और उत्तरी हिस्सों से काफी अलग जगह है.

भारत के राज्यों की समस्याओं का समाधान अक्सर उनके विकास पथ को देखते हुए एक-दूसरे के लिए रूढ़िवादी होते हैं. उदाहरण के लिए, दक्षिणी राज्यों को शिक्षा में आउटपुट मैट्रिक्स पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, जबकि उत्तरी राज्यों को बच्चों को स्कूल में लाने और उन्हें वहां बनाए रखने की आवश्यकता है. दक्षिणी राज्यों को उनकी जनसांख्यिकी और वर्तमान उपलब्धियों को देखते हुए गंभीर स्वास्थ्य मुद्दों और संभवतः बुजुर्गों की देखभाल पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, जबकि उत्तरी राज्यों को प्रसव पूर्व और प्रसव के बाद स्वास्थ्य देखभाल पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है. ये मतभेद सार्वजनिक नीति के लगभग सभी क्षेत्रों में व्याप्त हैं और किसी भी केंद्रीकृत नीति को असंभव बना देते हैं.


यह भी पढ़ेंः बच्चों को क्लासमेट से पिटवाने वाले टीचर्स यूपी की ध्वस्त स्कूली शिक्षा व्यवस्था का नतीजा हैं


ज़ीरो-सम गेम

दक्षिणी राज्य भी एक अजीब बंधन में फंस गए हैं: वे अच्छा कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने सुशासन के माध्यम से स्थिर आबादी हासिल की है, लेकिन इससे राजस्व हस्तांतरण में वित्त आयोग द्वारा जनसंख्या के उपयोग के माध्यम से परिसीमन और संसाधन आवंटन के जरिए उनकी राजनीतिक शक्ति छीनने का खतरा है. और यह खतरा ठीक ऐसे समय में आया है जब नागरिक अपने राज्यों से अपेक्षाकृत अच्छी सरकारी सेवाओं की अपेक्षा करने लगे हैं और उन्हें अपनी बदलती ज़रूरतों के अनुसार और भी अनुकूलित करने की कोशिश कर रहे हैं.

तेलंगाना पर विचार करें: राज्य का कर राजस्व 2020-21 में उसके सकल राज्य घरेलू उत्पाद का 7.7 प्रतिशत था, जबकि केंद्रीय हस्तांतरण जीएसडीपी का केवल 2.5 प्रतिशत था. राज्य को अपनी बजटीय मांगों को पूरा करने के लिए केंद्र से इतना कम मिलता है कि उसे राज्य स्तर पर अपने नागरिकों पर अधिक कर लगाने के लिए मजबूर होना पड़ता है. दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों में, जीएसडीपी के प्रतिशत के रूप में एक राज्य का राजस्व लगातार उच्च रहता है क्योंकि वहां जनसंख्या वृद्धि और गरीबी की दर अपेक्षाकृत कम है.

दूसरे शब्दों में, इन राज्यों में लोगों पर दूसरों की तुलना में अधिक कर लगाया जाता है क्योंकि वित्त आयोग के आवंटन जिस तरह से काम करते हैं, उसके कारण नागरिकों द्वारा भुगतान किए जाने वाले केंद्रीय करों को ज्यादातर अन्यत्र भेज दिया जाता है. और यह केंद्र द्वारा कुछ करों को उपकर के रूप में छिपाने के बाद है, जिससे इन राज्यों पर कर का बोझ और बढ़ जाता है.

भारत का लोकतांत्रिक मॉडल संघीय ढांचे वाला है में जो कि एक शक्तिशाली संघ की ओर थोड़ा सा झुका हुआ है. यह राज्यों के अधिकारों की कीमत पर और भी अधिक शक्ति अर्जित करता है. एक विविध देश में शासन के लिए इस तरह का एकात्मक दृष्टिकोण, जहां विभिन्न राज्य विकास के विभिन्न चरणों में हैं, अधिकांश राष्ट्रव्यापी नीतियों को कमतर बनाता है. इस केंद्रीकृत दृष्टिकोण ने पहले ही राज्यों को संसाधन आवंटन समस्याओं पर ज़ीरो-सम गेम के लिए मजबूर कर दिया है.

लेकिन संघ सरकारें ‘एक राष्ट्र, एक नीति’ की घोषणा करने से शक्ति प्राप्त करती हैं. और यह गंगा के मैदानी इलाकों के राज्यों के लिए उपयुक्त है क्योंकि इस प्रक्रिया में उन्हें बेहतर डील मिलती है.

दिल की बात

भारत में अपने लिए बेहतर स्थिति को लेकर बातचीत करने के मामले में दक्षिण भारत को बारहमासी दुविधा का सामना करना पड़ता है; बिना किसी आसान उत्तर के. यथास्थिति उन्हें टैक्स हस्तांतरण में कम प्राप्त करने, करों में अधिक देने और राजनीतिक शक्ति का त्याग करने के लिए मजबूर करती है; सब इसलिए क्योंकि वे सफल रहे हैं. दक्षिणी राज्य भाषाई और सांस्कृतिक रूप से भी भिन्न हैं, जो राजनीतिक जटिलता का एक नया आयाम जोड़ता है.

इसलिए, यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि तेलंगाना और अन्य दक्षिणी राज्यों में कई मतदाता हिंदी पट्टी के मतदाताओं से अलग व्यवहार करते हैं. बेशक, मतदाता वोट देने के लिए बुद्धि का प्रयोग नहीं करते. हम दिल से वोट करते हैं. और दिल की उस गिनती में, जो पार्टी इस समय सबसे अधिक गठबंधन में है, जिसके साथ वे ज़ीरो-सम गेम में लगे हुए हैं, उन्हें जीतने के लिए सबसे कठिन काम करना होगा.

यदि इस देश के राजनीतिक परिदृश्य कोई संकेत देता है, तो भाजपा ने सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों के दिलों और दिमागों को जीत लिया है. और इसके स्वाभाविक परिणाम के रूप में, उसे दक्षिण भारत में वोट जीतने के लिए सबसे कड़ी मेहनत करनी होगी. जब विकास के पैमाने की बात आती है तो ये राज्य भाजपा को संदेह की दृष्टि से देखते हैं.

दक्षिण बनाम उत्तर एक ऐसा प्रश्न है जिससे भारत के प्रत्येक विचारशील नागरिक को अवश्य जुड़ना चाहिए. यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसका कोई आसान उत्तर नहीं है. मैंने अपनी पुस्तक में समाधान के रूप में सरलीकृत प्रत्यक्ष लोकतंत्र का प्रस्ताव रखा था. एक ऐसी प्रणाली बनाकर जहां हम लोगों की इच्छा की संचरण दक्षता में सुधार करते हैं जो प्रत्यक्ष लोकतंत्र पर निर्भर करती है लेकिन पर्याप्त सुरक्षा के साथ ताकि यह बहुसंख्यकवादी अत्याचार की स्थिति न उत्पन्न हो. लेकिन कोई भी कुछ भी लेकर आए, उसकी ठीक-ठाक कीमत चुकानी पड़ेगी.

(नीलकांतन आरएस एक डेटा वैज्ञानिक और साउथ वर्सेज़ नॉर्थ: इंडियाज़ ग्रेट डिवाइड के लेखक हैं. उनका एक्स हैंडल @puram_politics है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः भारतीय कृषि क्षेत्र की एक समस्या है, हम बहुत कम खर्च में बहुत अधिक खेती करते हैं


 

share & View comments