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Friday, 29 March, 2024
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मोदी बनाम केजरीवाल मैच में किसने कितने गोल दागे, यह गिनना मुश्किल है

गुजरात के निर्विवाद बादशाह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने गढ़ पर जबरदस्त दबदबा रखते हैं; मगर अरविंद केजरीवाल ने उनके गढ़ में घुसपैठ करने की कोशिश करके उन्हें परेशान कर दिया है.

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पॉपकॉर्न का ठोंगा लेकर अपनी सीट पर बैठ जाइए, और मोदी बनाम केजरीवाल मुक़ाबले के अगले दौर का इंतजार कीजिए. इसे आप हाथी बनाम चींटी, या दहाड़ते शेर को परेशान कर रहे मच्छर के बीच का मुक़ाबला कह सकते हैं. यह रस्साकशी दिल्ली और गुजरात की सड़कों पर चल रही है.

इसकी शुरुआत 2014 में वाराणसी में हुई थी मगर अरविंद केजरीवाल बनाम नरेंद्र मोदी मुक़ाबला हमारे पड़ोस में भी चल रहा है. यह कहना मुश्किल है कि ‘अजेय’ शत्रु के खिलाफ केजरीवाल कोई प्रतीकात्मक बढ़त ले रहे हैं या नहीं, या कि वे धीरे-धीरे पिसते जा रहे हैं. लेकिन इस मुक़ाबले में वे छोटे क्षेत्रीय दलों के निरंतर विस्तार के रास्ते को छोड़कर मोदी का पीछा करके सुर्खियां बटोर रहे हैं.

गुजरात के निर्विवाद बादशाह प्रधानमंत्री मोदी अपने गढ़ पर जबरदस्त दबदबा रखते हैं; मगर केजरीवाल ने उनके गढ़ में चुनावी दौड़ में उतरकर उन्हें परेशान कर दिया है. इसके जवाब में मोदी ने लड़ाई दिल्ली के मुख्यमंत्री के अपने मैदान में छेड़ दी है. सबसे पहले तो मोदी ने शब्दशः उनके पर कतरे (उन्हें सिंगापुर न जाने देकर), और उसके बाद “रेवड़ी संस्कृति” पर, जो कि केजरीवाल की कार्यशैली रही है, कटाक्ष करके उन पर हमला किया, इसके बाद हाल में आम आदमी पार्टी के पोस्टर फड़वा दिए.

‘रेवड़ी संस्कृति’ वाले कटाक्ष के जवाब में केजरीवाल पलटवार करते हुए सोमवार को कहा, ‘गुजरात की जनता मुफ्त बिजली और बेहतर स्कूल तथा अस्पताल चाहती है. जनता परिवर्तन चाहती है. अगर नेता लोग मुफ्त बिजली ले सकते हैं तो जनता को भी यह मुफ्त मिलनी चाहिए. इसे मुफ्त रेवड़ी नहीं कहना चाहिए.’

दो साल पहले, दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद जब वोटों की गिनती हो रही थी तब आप के दफ्तर के बाहर एक आदमी एक पोस्टर लेकर खड़ा था जिस पर लिखा था—‘2024 में केजरीवाल बनाम मोदी’. यानी 2014 के वाराणसी लोकसभा चुनाव की पुनरावृति.

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यह कोई संयोग नहीं है. वह शख्स कोई केजरीवाल से सम्मोहित उनका पक्का समर्थक नहीं था, जो यह उम्मीद कर रहा था कि केजरीवाल देश का नेतृत्व करेंगे. यह अपने बारे में केजरीवाल का वह सपना था जो वे तब से देखते आ रहे हैं जब वे लोकपाल बिल की मांग करते हुए एक असंतुष्ट आइआरएस अधिकारी के रूप में अण्णा हज़ारे के साथ रामलीला मैदान में धरने पर बैठे थे. देखा जाए तो केजरीवाल कई तरह से नियति की देन हैं, बहुत कम समय में बहुत बड़ी कामयाबी पाने वाले. भारतीय राजनीति के मैदान में वे इतने नये हैं कि उनका दुस्साहस मोदी को जरूर परेशान करता होगा. आखिर मोदी सत्तर के दशक से संघ के कार्यकर्ता/स्वयंसेवक के रूप में शुरू करके दशकों की कड़ी मेहनत के बाद शिखर तक पहुंचे हैं और यही उनकी पूंजी रही है.


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गुजरात से भावनात्मक लगाव

जाहिर है, गुजरात चुनाव को लेकर मोदी भावुक हैं. याद कीजिए, 2017 के विधानसभा चुनाव में एक्जिट पोल ने जब काँग्रेस की भारी बढ़त बताई थी तब वे किस तरह जी-जान से प्रचार में जुट गए थे. और 2017 में ही अहमद पटेल के राज्यसभा चुनाव में किस तरह दलबदल, खरीद-फरोख्त का खेल चला था और चुनाव आयोग ने दो बागी काँग्रेस विधायकों के वोट रातोरात रद्द कर दिए थे तब पटेल जीत पाए थे.

मोदी ने पाटीदार नेता और पूर्व कांग्रेस नेता हार्दिक पटेल को भाजपा में शामिल करवा लिया. भाजपा विरोधी दूसरी आवाज़ जिग्णेश मेवानी गिरफ्तार कर लिये गए. मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि किसी कुढ़न से कैसे निबटा जाए. इसलिए, जबसे केजरीवाल ने गुजरात पर नज़र डाली है, मोदी ने उनकी दिक्कतें बढ़ाने का जिम्मा खुद संभाल लिया है. यह सिलसिला केजरीवाल के सिंगापुर दौरे की अनुमति न देने से शुरू हुआ है.


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दो मॉडलों की टक्कर

सिंगापुर के हाइ-कमिश्नर ने केजरीवाल को ‘वर्ल्ड सिटीज़ समिट’ में इसलिए आमंत्रित किया था कि वे शासन के ‘दिल्ली मॉडल’ बारे में बताएं. इसने मोदी की दुखती रग को जरूर छुआ होगा क्योंकि वे तो बस यही चाहेंगे कि भारत अगर किसी मॉडल के बारे में जाना जाए तो वह ‘गुजरात मॉडल’ ही हो. वैसे भी मोदी विदेश यात्राएं के प्रति अपने मोह के लिए बदनाम हैं. उन्होंने विदेश मंत्री का काम लगभग अपने हाथ में समेट लिया है. इसलिए, जब दिल्ली के उप-राज्यपाल वी.के. सक्सेना ने जब इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए केजरीवाल को अनुमति नहीं दी तब किसी को आश्चर्य नहीं हुआ.

लेकिन केजरीवाल भी इसे चुपचाप बर्दाश्त करने वाले नहीं थे. उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर याद दिलाया कि उन्होंने ही राजनीतिक मतभेदों को परे रखने का वादा किया था कि ‘दुनिया के सामने हम आपसी मतभेद भुलाकर राष्ट्रीय हित को आगे रखेंगे.’ इसके साथ ही उन्होंने प्रधानमंत्री को याद दिलाया कि 2005 में किस तरह वे खुद ऐसी स्थिति से मुक़ाबिल हुए थे जब उन्हें अमेरिका की जमीन पर पैर रखने से रोक दिया गया था. यह रोक 2002 के गुजरात दंगों में उनके खिलाफ लगाए आरोपों के कारण लगाई गई थी. इस तरह केजरीवाल ने मोदी की एक और दुखती रग पर हाथ रख दिया.

अगर आप यह सोच रहे हों कि एक-दूसरे को अपमानित करने का यह खेल अब खत्म हो गया है तो आप गलत साबित हो सकते हैं. यह खेल तो अभी शुरू ही हुआ है. दिल्ली के उप-राज्यपाल ने दिल्ली सरकार और खासकर उसके उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के खिलाफ उसकी नयी आबकारी नीति की सीबीआई जांच का आदेश दे दिया है.

जाहिर है, इस नयी आबकारी नीति के जरिए दिल्ली सरकार के आला राजनीतिक नेतृत्व ने बड़े शराब व्यवसायियों को कथित तौर पर ‘भारी’ वित्तीय लाभ पहुंचाया है. आप ने इन आरोपों का तुरंत खंडन किया. पार्टी प्रवक्ता एवं विधायक सौरभ भारद्वाज ने कहा कि यह जांच सिर्फ इसलिए कारवाई जा रही है क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी अरविंद केजरीवाल से और पंजाब में पार्टी की राजनीतिक जीत के कारण ‘ईर्ष्या’ करते हैं.

यह ईर्ष्या अब दबी-छिपी नहीं रह गई है. रविवार को वन महोत्सव के तहत दिल्ली के असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य में पौधा रोपण कार्यक्रम के पोस्टरों को कथित तौर पर दिल्ली पुलिस ने फाड़ डाला. आप का दावा है कि यह केंद्र सरकार के इशारे पर किया गया. अगर यह दावा गलत भी हो, तो तथ्य यह है कि उस मौके पर मोदी के बड़े पोस्टर लगाए गए जबकि केजरीवाल के पोस्टरों को फाड़ कर फेंक दिया गया. ऐसा लग रहा है कि हम दो बच्चों के बीच का कोई बड़ा झगड़ा देख रहे हों.

इसके बाद हम खुद मोदी के मुंह से यह कटाक्ष सुनते हैं कि गुजरात की जनता को 300 यूनिट मुफ्त बिजली देने के केजरीवाल का वादा ‘रेवड़ी संस्कृति’ ही है, जिससे देश का कोई भला नहीं होने वाला.

केजरीवाल और मोदी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं और कार्यशैली इतनी मिलती-जुलती हैं कि ऐसा लगता है मानो वे दोनों एक ही सांचे में ढले हों. जिस तरह मोदी ने उन्हें शिखर तक पहुंचने में मदद करने वालों को धोखा दिया उसी तरह केजरीवाल ने सत्ता की सीढ़ी चढ़ते हुए उस शुरुआती समर्थक समूह को खारिज किया जिसके सदस्य केजरीवाल से ज्यादा लोकप्रिय थे, चाहे वे प्रशांत भूषण रहे हों या योगेंद्र यादव या मेधा पाटकर या फिर कुमार विश्वास.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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