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Monday, 24 June, 2024
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सीरिया में फिर पैर पसार रहा है ISIS, महाशक्तियों के बीच जारी गतिरोध है जिम्मेवार

2019 में अमेरिकी राष्ट्रपति ने एक नक्शा दिखाया जिसमें इराक और सीरिया में आईएसआईएस खिलाफत की तबाही दिखाई गई थी. एक छोटा सा निशान जो रह गया था, उसके लिए उन्होंने कसम खाई कि वो ‘आज रात तक चला जाएगा’.

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रक्का में पैरेडाइज़ स्क्वेयर के ऊपर लेज़र लाइट्स चल रही हैं, जिससे रात का आसमान जगमगा रहा है और उसमें चमकीले लाल गुब्बारे और चमकते खिलौने अपनी छटा बिखेर रहे हैं. गोलचक्कर के कैफे पर परिवारों और युवा जोड़ों के कहकहे गूंज रहे हैं, जिनके साथ पूल्स के अंदर पानी के छींटे मारते बच्चों की आवाज़ें भी आ रही हैं. गोलचक्कर की बाड़ पर कभी कटे हुए सर सजाए जाते थे, जिन्हें इस्लामिक स्टेट के जल्लाद कीलों पर भेदकर रखते थे. स्थानीय निवासी जिनमें बच्चे भी होते थे, यहां जमा होकर पीड़ितों को सूली पर चढ़ते या पत्थरों से मारे जाते हुए देखते थे, जब पश्चिमी जिहादी रेड बुल की चुस्कियां ले रहे होते थे.

रक्का से इस्लामिक स्टेट को निकाल दिए जाने के पांच साल बाद, वहां नरक का फिर से निर्माण शुरू हुआ है- अल-हॉल बंदी शिविर के भीतर, जहां अनुमानित 56,000 कैदी बंद हैं.

इसी महीने क़ुर्बानी के दिवस ईद-ए-अज़हा पर विश्वासघात के खिलाफ चेतावनी स्वरूप एक आदमी का सर तन से कलम कर दिया गया. एक महिला की सर कटी हुई लाश फुटबॉल मैदान में पाई गई, जबकि एक और शव को सीवर से निकाला गया.

संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि जनवरी 2021 के बाद से 100 से अधिक लोगों को फांसी पर चढ़ाया जा चुका है. पत्रकार लज़ग़ीन याक़ूब ने खबर दी है कि इनमें से बहुत सी फांसियों को इस्लामिक स्टेट के महिला दस्तों ने अंजाम दिया है, जिन्हें कैंप के अंदर शरिया कानून लागू करने का जिम्मा मिला हुआ है.

2019 के शुरू में अमेरिकी राष्ट्रपति ने एक नक्शा दिखाया था, जिसमें इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट खिलाफत की तबाही दिखाई गई थी. एक छोटा सा निशान जो रह गया था, उसके लिए उन्होंने कसम खाई कि वो ‘आज रात तक चला जाएगा’. अफगान तालिबान की तरह- जो 9/11 के बाद उन्हें तबाह कर दिए जाने के बावजूद पिछले साल काबुल में कब्जा किया था- इस्लामिक स्टेट भी अपने आपको लचीला साबित कर रहा है. जिहादी समूह ने इराक और सीरिया दोनों में बमबारी और हिट एंड रन ऑपरेशंस बढ़ा दिए हैं और बड़े हमले करने की अपनी क्षमता को दिखा दिया है.

इस महीने संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी कि इस्लामिक स्टेट और अल-कायदा जैसे प्रतिस्पर्धी जिहादी समूहों ने खुद को क्षेत्रीय संघर्षों में उलझाकर ताकत हासिल कर ली है. उनकी रिपोर्ट में कहा गया, ‘जब तक इनमें से कुछ संघर्षों का कामयाबी के साथ समाधान नहीं हो जाता, तब तक निगरानी टीम को अपेक्षा है कि उनमें से कोई एक या उससे अधिक के अंदर, बाहरी परिचालन की क्षमता पैदा हो सकती है’. उसमें आगे कहा गया, ‘इस मसले को संभालने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को और अधिक करते रहना होगा’.

हालांकि समाधान निकालने के लिए संयुक्त राजनीतिक और राज्य-निर्माण प्रयासों की जरूरत है- जिसके लिए भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में विभाजित दुनिया सक्षम नज़र नहीं आती.


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सीरियाई जिहादियों का उदय

इस्लामिक स्टेट का विचार इराक और सीरिया में इस संगठन के उदय से बहुत पहले का है. इतिहासकार हन्ना बतातू ने दर्ज किया है कि 1937 से शहरी व्यापारियों, दस्तकारों और धार्मिक नेताओं के एक वर्ग ने मध्य पूर्व में उठ रही धर्मनिरपेक्ष-राष्ट्रवादी लहर के खिलाफ लामबंद होना शुरू कर दिया था. इस वर्ग की आवाज़ मुस्लिम ब्रदरहुड ने 1954 में मांग उठाई कि एक ‘ऐसी सदाचार नीति कायम की जाए जो इस्लाम के नियमों और शिक्षाओं का पालन करेगी’. मुख्य रूप से धर्मगुरुओं की अगुवाई में ब्रदरहुड, सीरिया पर राज कर रही धर्मनिरपेक्ष बाथ पार्टी के कठोर विरोधी के रूप में उभर कर सामने आया.

एक कृषि विज्ञानी और हामा के एक छोटे से कृषि उद्यमी के बेटे मरवान हदीद की अगुवाई में ब्रदरहुड के कट्टर सुधारवादियों ने 1968 में अपने आंदोलन के सैन्यीकरण की प्रक्रिया शुरू कर दी, जब उन्होंने फलस्तीन के आतंकवादी समूह अल-फतह के साथ हाथ मिलाया.

मौजूदा राष्ट्रपति बशर अल-असद के पिता सैन्य शासक हाफिज़ अल-असद का शासन, जिसने 1979 में सत्ता हासिल की थी, शुरू में ब्रदरहुड के आम लोगों का विश्वास जीतने में कामयाब हो गया. लेकिन जल्द ही, अरब तेल राजशाहियों से होने वाली आमदनी में कमी, महंगाई और शहरीकरण के दबावों ने एक संकट पैदा कर दिया.

1976 के बाद से ब्रदरहुड, शासन के खिलाफ तेज़ी से हिंसक होती सिलसिलेवार लामबंदियों में हिस्सा लेने लगा. तीन साल बाद, अलेप्पो की सैन्य अकादमी में 83 कैडेट्स का संहार कर दिया गया, जो सब अल्पसंख्यक पंथ अलवी के सदस्य थे, जिससे अल-असद का ताल्लुक था. स्कॉलर ब्रिंजार लिया की दलील है कि इन हत्याओं का मकसद ब्रदरहुड को अल-असद के साथ टकराव में धकेलना था. उन्हें शानदार ढंग से कामयाबी मिली और ब्रदरहुड ने शासन के खिलाफ औपचारिक रूप से जिहाद का ऐलान कर दिया.

ब्रदरहुड की विचारधारा स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक थी, जो अलवी शासन को अल्पसंख्यक करार देते हुए उसकी निंदा करती थी. 1980 के उसके चुनावी घोषणापत्र में दलील दी गई, ‘सीरिया में नौ या दस प्रतिशत आबादी, बहुमत पर हावी नहीं हो सकती’. उसमें आगे कहा गया कि अलवी ‘अल्पसंख्यक खुद को भूल गए हैं और इतिहास के तथ्यों की अनदेखी कर रहे हैं’.

सैन्य शासन ने बर्बर जवाबी हिंसा के साथ पलटवार किया और अकेले हामा शहर में 5,000 से 25,000 तक की संख्या में शहरियों की हत्या कर दी. 1982 तक ब्रदरहुड की जिहादी चुनौती की आग को बुझा दिया गया.


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आतंक की दूसरी पीढ़ी

जो लीडर राज्य की कार्रवाई में बच गए थे, वो नए पनपते वैश्विक जिहादी आंदोलन में घुस गए. उनमें सबसे प्रमुख था अलेप्पो में जन्मा मुस्तफा नस्र बिन अब्दुल क़ादिर- जिसे अबु मुसाब अल सूरी के उपनाम से भी जाना जाता था- जो अल-क़ायदी चीफ ओसामा बिन लादेन के सबसे भरोसेमंद सहायकों में से एक बन गया. देश निकाला दिए जाने पर नस्र पहले स्पेन और फिर लंदन चला गया, जहां उसने एक जिहादी पत्रिका शुरू की. लंदन जिहादी आंदोलन का एक प्रमुख अड्डा बन गया, जहां मिस्र, सऊदी अरब और सीरिया से इस्लामिक लीडर आते रहते थे.

पत्रकार और लेखक अब्दल बारी अतवान ने लिखा है कि लंदन से होने वाले ऑपरेशंस को- जिसे मज़ाक़ में ‘लंदनिस्तान’ कहा जाने लगा था- युनाइटेड किंग्डम की खुफिया सेवा का समर्थन हासिल था, जो जिहादियों को मध्य-पूर्व में सोवियत संघ के खिलाफ एक औज़ार के रूप में देखती थी.

जिहादी आंदोलन में नस्र का स्थायी योगदान था 1,600 पन्नों का एक लेख- दि ग्लोबल इस्लामिक रेज़िस्टेंस कॉल, जिसमें एक नेतृत्व-विहीन जिहाद की बात की गई थी- जो संक्षेप में, लोन वुल्फ अटैक यानी अकेले दम पर घातक हमले की रणनीति थी, जिसे किताब लिखे जाने के एक पीढ़ी के बाद इस्लामिक स्टेट ने पूरे पश्चिम में अपनाया था.

नई सहस्राब्दी से, अपने पिता की मौत के बाद बशर अल-असद ने आर्थिक और राजनीतिक उदारीकरण की एक सतर्क नीति पर अमल किया- इस उम्मीद में कि बरसों के अमेरिकी प्रतिबंध के बाद उनका देश आर्थिक गतिहीनता से मुक्त हो जाएगा. कुछ समय तक लगा कि उनकी नीतियां काम कर रही हैं. 2001 में केवल 111 मिलियन डॉलर से 2006 तक आते-आते विदेशी निवेश बढ़कर 1.6 बिलियन डॉलर पहुंच गया.

लेकिन, रेमंड हिनेसबुश ने लिखा है कि मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था में दाखिल होने से शासन के संरक्षण नेटवर्क्स खत्म हो गए और शहरी गरीबों के बीच उसका समर्थन कम हो गया.

राज्य ने जो जगह खाली की थी, उसमें बड़ी संख्या में इस्लामिक स्कूल तथा धर्मार्थ संगठन खड़े हो गए, जिनमें बहुत से नव-कट्टरपंथी नेटवर्क्स भी थे. शासन के भीतर धार्मिकता के दिखावटी प्रदर्शन को लेकर चिंता बढ़ने लगी और 2009 में उसने दमिश्क यूनिवर्सिटी की छात्राओं के हिजाब पहनने पर उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की. लेकिन इस्लामिक लीडर इसका विरोध करने में कामयाब रहे और उन्हें महत्वपूर्ण स्वायत्तता हासिल हो गई.

2003 के बाद से, जब अमेरिकी हमले ने पूरे इराक में अराजकता फैला दी, तो हुकूमत ने भी घटनाओं को प्रभावित करने और सौदेबाज़ी की अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए जिहादियों को अपने इलाके से गुजरने की इजाज़त दे दी. इस नीति से जिहादी नेटवर्क्स को मजबूती मिल गई, जिन्होंने जल्द ही अपना रुख शासन की ओर ही मोड़ दिया.


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इस्लामवादियों का तुष्टिकरण

2011 में सरकार-विरोधी विस्फोटक जन प्रदर्शनों के नतीजे में- जिन्हें अमेरिका का समर्थन हासिल था- सरकार ने अपने पक्ष को बचाने की कोशिश शुरू कर दी. उन गर्मियों में सरकार ने जेलों में बंद मुस्लिम ब्रदरहुड के तमाम सदस्यों को क्षमादान देते हुए रिहा कर दिया. जो रिहा किए गए उनमें से बहुतों ने आगे चलकर जिहादी गुटों की अगुवाई की. स्कॉलर ईकैटरीना सेपोई ने दर्ज किया है: हसन अबूद ने अहरार अल-शाम की सह-स्थापना की, ज़हरान अलूश जायश अल-इस्लाम का एक कमांडर बन गया और अहमद एइसा अल-शेख़ सुक़ूर अल-शाम का कमांडर बना. अली मूसा अल-हाविख़ आगे चलकर इस्लामिक स्टेट का एक प्रमुख लीडर बना.

हुकूमत द्वारा जेल में रखे गए जिहादी आपस में नेटवर्क करके, एकजुट होकर एक वैचारिक बल बन गए और अपनी जेल के नाम पर खुद को ‘सैयदना ग्रेजुएट्स’ कहने लगे. नस्र भी, जिसे अमेरिका ने 9/11 के बाद अफगानिस्तान से गिरफ्तार किया था और फिर सीरिया के हवाले कर दिया था, रिहा किए जाने वालों में था.

विशेषज्ञ रफेल लेफेवरे लिखते हैं कि हुकूमत की तरह ही मुस्लिम ब्रदरहुड ने भी खुद को जिहादियों की नई पीढ़ी के सामने अभिभूत पाया और घटनाओं में उनकी सिर्फ एक सीमित भूमिका रह गई.

रूस के उनके पक्ष में दखलअंदाज़ी करने से पहले तक जिहादियों की श्रेष्ठ शक्ति के सामने घिसटते हुए राष्ट्रपति अल-असद ने अल-क़ायदा के खिलाफ इस्लामिक स्टेट का समर्थन करने की कोशिश की. उन्होंने इस्लामिक स्टेट के नियंत्रण वाले इलाकों में काम कर रहे सरकारी बैंकों के ज़रिए, उसे तेल बेचने की अनुमति दे दी. अपनी ओर से तुर्की ने अल-क़ायदा से जुड़े समूहों का समर्थन किया और उन्हें अपनी सेना के विरुद्ध काम कर रहे क़ुर्दिश राष्ट्रवादी विद्रोहियों के खिलाफ एक औज़ार की तरह देखा. अमेरिका अपनी आतंकवाद-विरोधी प्रतिबद्धताओं और अल-असद को सत्ता से हटाने की कोशिशों के बीच झूलता रहा और अंत में उसने जिहादियों को मज़बूत कर दिया.

महाशक्तियों और प्रतिस्पर्धी क्षेत्रीय हितों के बीच गंभीर गतिरोध जारी है. अंतर्राष्ट्रीय संकट समूह ने चेतावनी दी है कि जमीन पर फैली अराजकता और राज्य का ढांचा स्थिर न होने से इस्लामिक स्टेट सीरिया के कुछ हिस्सों में खुद को फिर से स्थापित करने में कामयाब हो गया है. क़ुर्दों की अगुवाई वाली सीरियन डेमोक्रेटिक फोर्सेज़, तुर्की की ओर से खतरे को लेकर ज़्यादा चिंतित हो गई हैं, जबकि रूस और सीरिया के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वो बादिया के विशाल रेगिस्तानी इलाके की प्रभावी ढंग से चौकसी कर सकें.

इस्लामिक स्टेट से लड़ने के लिए उससे मुकाबला कर रहे देश-राज्यों को पहले आपस में लड़ना बंद करना होगा और एक न्यायसंगत राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में काम करना होगा, जो उन सांप्रदायिक और जातीय दरारों को भर सके, जिनसे वो अस्थिरता पैदा हुई थी जिसमें जिहादी आंदोलन परवान चढ़ा.

(लेखक दिप्रिंट के नेशल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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