अब तक आपने पढ़ा कि किस तरह से अशराफ उलेमा और बुद्धिजीवियों ने कुरान की व्याख्या और नस्लवादी हदीसों के द्वारा नस्लवाद और जातिवाद को बढ़ावा देने का प्रयास किया है जबकि पैगंबर मुहम्मद के जीवन से यह पता चलता है कि वो जन्म आधारित भेदभाव के विरुद्ध थे. लेख के तीसरे और इस भाग में अशरा-ए-मुबशशिरा और खलीफा के चयन में एक नस्ल विशेष को वरीयता देने के सिद्धांत पर चर्चा करेंगें.
अशरा-ए-मुबशशिरा
अशरा का अर्थ संख्या दस है, मुबशशिरा का अर्थ होता है जिसे बशारत (खुशी, प्रसन्नता) सुनाई जा चुकी हो. इस्लामी इतिहास में ऐसे दस लोग जिनको पैगंबर द्वारा इसी संसार में स्वर्ग भोगने का परवाना (गारेंटी) दी जा चुकी है, अशरा-ए-मुबशशिरा कहलाते हैं. इस लिस्ट में भी सभी दस लोग केवल कुरैश (सैयद, शेख) जनजाति से ही सम्बंधित हैं, अन्य किसी कबीले या जनजाति के किसी भी व्यक्ति को इस सूची में जगह नही दी गई है, यहां तक कि ओवैस और खजराज़ जनजाति के लोगों तक का भी ज़िक्र नहीं है, जिनको मुहम्मद ने इस्लाम और उनके लिए दिए गए बलिदानों के आधार पर उनको मान सम्मान के साथ ‘अंसार’ (मदद करने वाला) नाम दिया था.
इस पर बात करने से पहले एक एतिहासिक तथ्य से परिचित होना ज़रूरी जान पड़ता है वो ये कि इस्लाम की पहली लड़ाई ‘बदर’ में मक्का के तीन क़ुरैश जनजाति के लोगो ने आगे आकर मुसलमानों को ललकारा जिसके जवाब में तीन अंसारी (ओवैस और खजराज) जनजाति के लोग आगे आये तो मक्का के क़ुरैश जनजाति के लोगो ने कहा कि इस जनजाति के लोग हमारे कूफ़ु (बराबर) नहीं हैं हम इनसे नही लड़ेंगे जिस पर पैगंबर मुहम्मद ने क़ुरैश जनजाति के अन्य तीन लोगों को उनके मुक़ाबिले के लिए भेजा.
इस्लाम की यह पहली लड़ाई थी, लेकिन इसकी चर्चा उस तरह से नही होती जिस तरह से मुहर्रम/ कर्बला की लड़ाई का हर साल बाकायदगी के साथ किया जाता है. शायद, इसकी एक बड़ी वजह यह प्रतीत होती है कि बदर की लड़ाई में इस्लाम के विरोध में अधिसंख्य कुरैश लोग थे और इस्लाम के पक्ष में कुछ कुरैश लोगों को छोड़ कर अंसार के लोगो ने बड़ी संख्या में भाग लिया और शहीद भी हुये थे. अगर इस लड़ाई की चर्चा हुई तो इसमें कुरैश की छवि खराब होगी और अंसार का महिमामंडन होगा, वहीं कर्बला की लड़ाई में सैय्यद जाति की श्रेष्ठता का बखान होता है.
यह भी पढ़ें: नस्लीय भेदभाव को अच्छे से समझते थे पैगम्बर मोहम्मद, इसलिए इसे खत्म करने की पूरी कोशिश की
कुरैश की ‘श्रेष्ठता’
हदीस की प्रसिद्ध किताब बुखारी में लिखा है ‘अल-अइम्मतू मेन अल-क़ुरैश” अर्थात नेतृत्वकर्ता (नेता,अमीर,खलीफा) क़ुरैश जनजाति (सैयद, शेख) में से ही है. ये हदीस तब प्रकाश में आया जब अल्लाह के रसूल के दुनिया से चले जाने के बाद खलीफा के लिए दो अंसारी सहाबियों (मुहम्मद के साथी) में होड़ मची और उनमें से एक साद बिन उबादा (र०) लगभग खलीफा चुन भी लिए गए, जिसकी सूचना अबु बकर (र०) को हुई, और वो अपने साथ अन्य दो क़ुरैश जनजाति के उमर फारूक (र०) और अबु उबैदा (र०) को लेकर लोगो के बीच पहुंचे और उक्त हदीस को उद्धरित करते हुए कहा कि अंसारी कैसे खलीफा हो सकता है ये तो क़ुरैश का हक़ है, आप लोग उमर या अबु उबैदा में से किसी को भी अपना खलीफा चुन लें.
जिसके जवाब में तुरन्त ही उमर (र०) ने आगे बढ़ के कहा, ‘ऐ अबु बकर (र०) आप के रहते मैं कैसे खलीफा हो सकता हूं, मैं आप के हाथ पर बैत करता हूं (अर्थात आप को खलीफा चुनता हूं).’ इस प्रकार अबु बकर इस्लाम के पहले खलीफा बनते हैं, जबकि अन्य दो अंसारी जाति के सहाबियों ने बैत नहीं किया और सभा से उठ के चले गए.
इसके इतर मुसलमानों का एक ग्रुप (शिया सम्प्रदाय) जो अली को पहला खलीफा मानता है उसका भी आधार नस्लीय है कि अली कुरैश जनजाति में मुहम्मद (स०) के वंश (हाशमी) से सबसे अधिक निकट है इसलिए खिलाफत उन्हीं का हक है, उनके साथ अन्याय हुआ है.
लेकिन एक अजीब बात है कि खिलाफत की इस बहस में अंसारी सहाबी साद बिन उबादा (र०) को पूरी तरह से भुला दिया गया है.
इसी हदीस के संबंध में अशरफ अली थानवी कहतें है कि- ‘खिलाफत कुरैशी के लिए है, गैर-कुरैशी बादशाह को सुल्तान कहा जायेगा लेकिन इताअत (आज्ञा-पालन) इसकी भी वाजिब (ज़रूरी) होगी.’
कुछ लोगों ने ये जो कहा है कि गैर-कुरैशी भी खलीफा हो सकता है तो यह नस (क़ुरआन/हदीस) के विरुद्ध है, इसलिए कि जब हज़रात अंसार पर यह नस पेश की गयी तो उन्होंने भी इसे स्वीकार कर लिया.
(पेज न० 52, मलफूज़ात हकीमुल उम्मत भाग-26, मुफ़्ती मो० हसन अमृतसरी, इदारा तालिफात-ए-अशरफिया, सलामत इक़बाल प्रेस, चौक फव्वारा,मुल्तान,पाकिस्तान)
इसलिए जैसे इस पर सहाबा (मुहम्मद के साथियों) का इज्मा (एक राय होना जिसे फिर इस्लाम का कानून मान लिया जाता है) हो गया. इसलिए जिन लोगो के क़ब्ज़े में सल्तनतें हैं वह अगर कुरैशी (सैय्यद, शेख) को जब कि उस में योग्यता हो, खलीफा ना बनाये तो मुजरिम होंगें.’
एक और हदीस है जिसे इब्न उमर (उमर का बेटा) वर्णित करते हैं ‘नेतृत्व क़ुरैश जाति में ही रहेगी जब तक कि उनमें दो आदमी भी बचे रहेंगे.’ (सहीह मुस्लिम, किताबुल इमारत पेज न० 109)
आप देखेंगे कि शुरुआत के खलीफाओं में सब के सब एक विशेष जनजाति यानि क़ुरैश से हुए हैं. जब कि इस्लाम के लिए त्याग और बलिदान में ओवैस और खजरज जाति (जिस से प्रभावित होके मुहम्मद ने अंसार नाम दिया था जिसका शाब्दिक अर्थ है मदद करने वाला) के लोगो ने क़ुरैश से ज़्यादा बढ़ चढ़ के हिस्सा लिया था.
शुरुआत के चारों बड़े खलीफा उसके बाद उमैय्या (बनू-उमैय्या क़ुरैश की एक उपजाति) और अब्बासी (बनू-अब्बास, क़ुरैश के एक अन्य उपजाति) जो वंशावली में मुहम्मद से ज़्यादा निकट है जिस कारण उनकी खिलाफत का दावा औरों के सापेक्ष सब से मज़बूत था). खलीफा क़ुरैश जाति से ही थे.
उसके बाद तुर्क जाति के उस्मानी पहले सुलतान फिर खिलाफत के तीनों प्रतीको अंगूठी, छड़ी और चोंगा (एक विशेष प्रकार का परिधान जो जैकेट की तरह कपड़े के ऊपर से डाल लिया जाता है.) को प्राप्त कर सर्वोच्च इस्लामी सत्ता, खिलाफत भी प्राप्त कर लिया.
तुर्क जनजाति के खलीफा का क़ुरैश होना तो दूर की बात है अरबी तक नहीं थे जिसके कारण अरब के लोग दिल से तुर्को को अपना खलीफा नही मानते थे. और जैसे ही प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मौका मिला ब्रिटिश और अमेरिका का साथ देकर तुर्की खिलाफत से छुटकारा पा लिया. आज भी तुर्की को अरब देशों की सरकार और लोग कम पसन्द करते हैं.
खलीफा की सैलरी/पारितोषिक का निर्धारण भी जाति और क्षेत्र आधारित था. क्योंकि क़ुरैश जनजाति के लोग अपना वतन मक्का छोड़ के यश्रीब (मदिनतुन्नबी= नबी/ईशदूत का मदीना/नगर, जो बाद में केवल मदीना के नाम से प्रसिद्ध हुआ) में आबाद हो गए थे और यही से इस्लाम का विस्तार हुआ. लेकिन पारितोषिक निर्धारण में मक्का के क़ुरैश जनजाति के सरदार के खर्च और रख रखाव के लिए बराबर रक़म तय का गई. अर्थात क्षेत्र और नस्ल दोनो को ध्यान में रखा गया.
(पेज न०198, जिल्द -3,तबक़ात इब्न सईद, पेज न० 9 निहायतुल अरिब फि गायतून नसब, मुफ़्ती शफी उस्मानी, जमीयतुल मुसलेहीन सहारनपुर.)
इस प्रकार इस्लामी इतिहास पर दृष्टि डालने पर पता चलता है कि मुहम्मद (स०) के जाने के बाद से ही कुरैश जनजाति (सैयद, शैख) की श्रेष्ठता को कानून के आधार पर इस्लामी आस्था का हिस्सा बना दिया गया.
(यह दिप्रिंट-इस्लाम डिवाइडेड में चार-भाग की श्रृंखला का तीसरा भाग है)
(र०= रजियल्लाहो ताला अनहो (ईश्वर उनसे प्रसन्न हो)-यह मुहम्मद (स०) के साथियों (सहाबी एक वचन है सहाबा बहुबचन है) के नाम लेते समय कहा जाता है.)
(स०= सल्लल्लाहो अलैहे वा सल्लम-(उन पर शांति हो) यह मुहम्मद(स०) का नामा लेते समय कहते है)
(लेखक, अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से चिकित्सक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
यह भी पढ़ें: कैसे अशराफ उलेमा पैगंबर के आखिरी भाषण में भ्रम की स्थिति का इस्तेमाल जातिवाद फैलाने के लिए कर रहे