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Tuesday, 23 April, 2024
होममत-विमतनस्लीय भेदभाव को अच्छे से समझते थे पैगम्बर मोहम्मद, इसलिए इसे खत्म करने की पूरी कोशिश की

नस्लीय भेदभाव को अच्छे से समझते थे पैगम्बर मोहम्मद, इसलिए इसे खत्म करने की पूरी कोशिश की

यह बात स्पष्ट है कि कुरान नस्लवाद/जातिवाद का समर्थन नहीं करता है लेकिन कुछ अशराफ उलेमा ने कुरान की व्याख्या में नस्लवाद की मिलावट करने का पूरा प्रयास किया.

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क़ुरान में ऐसी कोई पंक्ति (आयत) नहीं हैं जिसे जातिवाद के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सके बल्कि क़ुरान की एक बहुत ही प्रसिद्ध आयत (पंक्ति) है जिसमें ख़ुदा कहता है कि ‘मैंने तुम्हें पैदा किया एक पुरुष और एक स्त्री से और बना दी हैं तुम्हारी जातियां एवं प्रजातियां, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचान सको. वास्तव में, तुम लोगों में अल्लाह के समीप सबसे अधिक आदरणीय वही है, जो तुम लोगों में अल्लाह से सबसे अधिक डरता हो.’ (सुरह हुजुरात आयत न० 13)

इस आयत के आधार पर यह कहा जाता है कि इस्लाम नस्लवाद/जातिवाद का समर्थन नहीं करता और यह अंतर सिर्फ एक दूसरे को पहचानने के लिए बनाया गया है.

लेकिन क़ुरान की इस पंक्ति को आधार बनाकर अक्सर अशराफ उलेमा और बुद्धिजीवियों द्वारा जातिवाद के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि जातियां कभी भी ख़त्म नहीं हो सकती क्योंकि क़ुरान में लिखा है कि जातियां पहचान के लिए बनाई गईं हैं.

उक्त आयत (पंक्ति) की व्याख्या लिखते हुए कुछ अशराफ उलेमा (इस्लामी विद्वानों) ने लिखा है कि धर्म के अनुसार एक पुरुष किसी महिला से तभी श्रेष्ठ माना जाएगा जब वो तकवा (अल्लाह से डरने वाला/धार्मिक) वाला हो, एक अरबी (अरब का रहने वाला) को गैर-अरबी (non Arabian) पर इसी आधार पर श्रेष्ठता प्राप्त है. सैय्यद को भी अरबी और गैर-अरबी लोगों पर इसी तकवा के आधार पर श्रेष्ठ माना गया है. हालांकि, सामाजिक रूप से तो पुरुष, अरबी और सैय्यद को श्रेष्ठ होने की मान्यता है.


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फिर आगे लिखते हैं कि इस्लाम के अनुसार श्रेष्ठता का मुख्य आधार धार्मिक होना है लेकिन अगर कोई व्यक्ति धार्मिक है तो उसे अपने धार्मिक होने पर गर्व नहीं करना चाहिए. अतः जिस प्रकार धार्मिक होने पर गर्व करना मना किया गया है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि धार्मिक व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं हैं ठीक उसी प्रकार उच्च नस्ल/जाति पर भी गर्व करने से मना किया गया है तो इसका भी यह अर्थ नहीं है कि नस्ल/जाति उच्च/श्रेष्ठ ही नहीं है.

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प्रसिद्ध अशराफ आलिम अशरफ़ अली थानवी लिखते हैं, ‘नसब (वंश, नस्ल, जाति) पर गर्व नहीं करना चाहिए लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि शर्फ़ नसब (उच्च जाति) कोई चीज ही नहीं. देखो आदमी का सुंदर होना, बदसूरत या अंधा ना होना किसी के हाथ में नहीं है, और इस पर गर्व नहीं करना चाहिए. मगर क्या कोई कह सकता है कि सुंदर होना ईश्वर की कृपा भी नहीं है. यकीनन (पूर्ण विश्वास के साथ) यह ईश्वर की ओर से एक उच्च स्तर का उपहार है. इस तरह यहां समझो कि ऊंची जाति में पैदा होना किसी के बस में नहीं है, इसलिए इस पर गर्व नहीं करना चाहिए, लेकिन इसके ईश्वर का उपहार होने में शंका भी नहीं करनी चाहिए.

फिर लिखते हैं कि बराबरी और मसावात आखिरत (मरने के बाद का जीवन जहां स्वर्ग-नरक है) के लिए है. दुनिया में बहरहाल लोगों की जाति श्रेष्ठता और अस्मिता का ध्यान रखना जरूरी है, उच्च जाति में पैदा होना ईश्वर की एक बड़ी कृपा है.

मोहम्मद का व्यक्तित्व

अरब के अभिजात्य यहूदी मोहम्मद (स०) को उनकी नस्ल का ताना मारते हुए उनकी नबूवत (ईश दूत होना) का मजाक  उड़ाते हुए ईशदूत होने को यह कहकर अस्वीकार करते थे कि वो एक गुलाम महिला की संतान में से हैं भला उनमें कैसे कोई ईशदूत आ सकता है. ईशदूत तो यहूदियों* (बनी इस्राइल= इस्राइल के संतान) में होते आए हैं. ज्ञात रहें कि मोहम्मद के पूर्वज क़ुरैश और उनके पूर्वज इस्माइल थे जो इब्राहिम की पत्नी सारा की गुलाम हाजरा से उत्पन्न थे जिसे सारा ने इब्राहिम को दे दिया था जब उनसे संतान नहीं हो पा रहें थे.

मोहम्मद का व्यक्तित्व, उनका यहूदियों द्वारा नस्ली तिरस्कार एवं उनका नस्ल/जाति विरोधी रवैय्या जिसमें अपने ग़ुलाम ज़ैद की शादी अपने फूफी (बुआ) की लड़की से करवाना (अशराफ उलेमा इस शादी को, जो मोहम्मद (स०) के जीवनकाल में ही टूट गयी थी, को जातिवाद के पक्ष में प्रस्तुत करते हैं कि ज़ैद-ज़ैनब की शादी के टूटने का कारण गैर कूफु/गैर बराबरी में विवाह करना था), एक काले हब्शी शकरान (जो अंतिम संस्कार के समय मोहम्मद (स०)को कब्र में उतारने वालो में उनके परिवार के अतिरिक्त अकेले व्यक्ति थे) को अपने विशेष प्रिय लोगो में रखना, काले हब्शी बिलाल को अपने प्रिय और मुख्य उद्घोषक (मोअज़्ज़िन= जो प्रार्थना के लिए उद्धघोष करता है) के रूप में रखना, गुलाम पुत्र ओसामा को एक युद्ध विशेष के लिए सेनापति बनाना आदि से पता चलता है कि वो जातिवाद और नस्लवाद के विरोधी थे.

ऊपर विवरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कुरआन नस्लवाद/जातिवाद का समर्थन नहीं करता है लेकिन कुछ अशराफ उलेमा ने कुरान की व्याख्या में नस्लवाद की मिलावट करने का पूरा प्रयास किया. मोहम्मद (स०) स्वयं नस्ली भेदभाव के शिकार होने के कारण इस पीड़ा को समझते थे और अपने व्यवहार के द्वारा इसे समाप्त करने का पूरा प्रयास किया.

(लेखक, अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से चिकित्सक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

दिप्रिंट के में आने वाली 4 सीरीज में से यह पहली है- इस्लाम डिवाइडेड


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