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Saturday, 21 December, 2024
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क्या भारत में अब यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का वक्त आ गया है, अदालतें इस पर क्या सोचती हैं

वैवाहिक विवादों के निपटारे में बाधक विभिन्न समुदाय के पर्सनल लॉ देश में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता महसूस करा रहे हैं.

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नरेंद्र मोदी सरकार की मंत्रिपरिषद के विस्तार हो जाने और 19 जुलाई से संसद का मानसून सत्र शुरू होने से ठीक पहले एक बार फिर समान नागरिक संहिता का मसला सुर्खियों में है. इस बार यह मसला अचानक ही सुर्खियों में आने की वजह दिल्ली उच्च न्यायालय की वह टिप्पणी है जिसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार को संविधान के अनुच्छेद 44 के कार्यान्वयन की दिशा में कार्रवाई करनी चाहिए.

वैवाहिक विवाद से संबंधित एक मामले की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति प्रतिभा एम सिंह की यह टिप्पणी बेहद अहम है क्योंकि उनका कहना है कि समाज में जाति, धर्म और समुदाय से जुड़ी बंदिशें मिट रही हैं. ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार को अनुच्छेद 44 के क्रियान्वयन पर कार्रवाई करनी चाहिए.

संविधान के अनुच्छेद 44 के अनुसार, ‘शासन भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा.’

उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी तब की जब मीणा समुदाय से संबंधित पक्षकारों के बीच विवाह को हिंदू विवाह कानून, 1955 के दायरे से बाहर रखा गया था.

न्यायमूर्ति प्रतिभा सिंह ने सतप्रकाश मीणा बनाम अलका मीणा  प्रकरण में सात जुलाई को अपने आदेश में देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की हिमायत करते हुये कहा है कि भारतीय युवाओं को अब विवाह और तलाक से संबंधित विभिन्न पर्सनल लॉ के टकरावों के साथ जूझने के लिये बाध्य करने की आवश्यकता नहीं है. आधुनिक भारतीय समाज धीरे-धीरे सजातीय हो रहा है और धर्म, जाति तथा समुदाय के पारंपरिक बंधन खत्म हो रहे हैं. ऐसी स्थिति में समान नागरिक संहिता सिर्फ एक उम्मीद बनकर नहीं रह जानी चाहिए.

न्यायमूर्ति प्रतिभा सिंह ने हालांकि अपने आदेश में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के 1985 के शाह बानो प्रकरण का जिक्र किया है लेकिन साथ ही उन्होंने उचित कार्यवाही के लिये आदेश की एक प्रति भारत सरकार के कानून मंत्रालय के सचिव को भी भेजने का निर्देश दिया है.


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इसमे कोई संदेह नहीं है कि समान नागरिक संहिता बनाने संबंधी प्रावधान शुरू से ही संविधान में है लेकिन इसकी संवेदनशीलता तथा पारंपरिक विविधता को देखते हुए इसे मूर्तरूप देने की दिशा में अभी तक कोई कदम नहीं उठाया गया है.

इस संवेदनशील मुद्दे पर अप्रैल, 1985 में उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाई एस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम और अन्य प्रकरण में इस मुद्दे पर राय व्यक्त की थी. संविधान पीठ ने शाह बानो प्रकरण में ही तलाक और गुजारा भत्ता जैसे महिलाओं से जुड़े मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में समान नागरिक संहिता बनाने पर सुझाव दिया था.

उच्चतम न्यायालय की राय थी कि समान नागरिक संहिता देश में राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने में मददगार होगी.

इसके बाद श्रीमती सरला मुद्गल, अध्यक्ष बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य  प्रकरण में मई 1995 में हिंदू विवाह कानून के तहत पहली पत्नी के रहते हुए सिर्फ दूसरी शादी के लिए धर्मांतरण के बढ़ते मामलों के परिप्रेक्ष्य में भी उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता.

स्थिति यह हो गयी कि विवाह विच्छेद, गुजारा भत्ता और दूसरी शादी के लिये धर्मांतरण जैसे मामलों के समाधान के लिये न्यायालय समान नागरिक संहिता की आवश्यकता महसूस कर रहा है. इसकी एक वजह महिलाओं के हितों की रक्षा करना भी है.

लेकिन उच्च न्यायालय में तो वैवाहिक विवाद का मामला और भी दिलचस्प था. इसमें पति ने जब तलाक मांगा तो पत्नी ने यह कहते हुये ऐसा करने से इंकार कर दिया कि हिंदू विवाह कानून उस पर लागू नहीं होता है. पत्नी का तर्क है कि राजस्थान में मीणा समुदाय अधिसूचित अनुसूचित जनजाति में आता है और वह हिंदू विवाद कानून के दायरे में शामिल नहीं है.

अदालत ने पत्नी की इस दलील को अस्वीकार करते हुये कहा कि इसी तरह के मामलों के निपटारे के लिये सभी के लिये समान संहिता की आवश्यकता है ताकि इसके प्रावधान विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मुद्दों पर समाज के सभी वर्गों पर समान रूप से लागू हो सकें.

यह सही है कि उच्चतम न्यायालय ने अपने कई फैसलों में संविधान के मृतप्राय अनुच्छेद 44 को लागू करने की दिशा में उचित कदम उठाने का सुझाव दिया है. उच्च न्यायालयों की भी यही राय रही है. सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी भी इसकी पक्षधर रही है और उसने अपने चुनावी घोषणा पत्र में इसे शामिल किया था.


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नरेंद्र मोदी सरकार इस मामले में कोई भी कदम उठाने से पहले इस संवेदनशील विषय पर काफी तैयारी करना चाहती थी और इसी इरादे से उसने जून 2016 में इस विषय को विधि आयोग के पास भेजा था.

उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बलबीर सिंह चौहान की अध्यक्षता वाली विधि आयोग ने 31 अगस्त, 2018 को सरकार को भेजे अपने परामर्श पत्र में कहा था कि फिलहाल समान नागरिक संहिता की आवश्यकता नहीं है.

विधि आयोग का मत था कि समान नागरिक संहिता बनाने में कुछ बाधाएं हैं. आयोग ने इनमें पहली बाधा के रूप में संविधान के अनुच्छेद 371 और इसकी छठवीं अनुसूची की व्यावहारिकता का उल्लेख किया था.

अनुच्छेद 371(ए) से (आई) तक में असम, सिक्किम, अरुणाचल, नागालैंड, मिजोरम, आंध्र प्रदेश और गोवा के बारे में कुछ विशेष प्रावधान हैं जिनके तहत इन राज्यों को कुछ छूट प्राप्त हैं.

विधि आयोग की राय है कि हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी और समाज के विभिन्न धर्मों और समुदायों में प्रचलित कानूनों में महिलाओं को ही कई तरह से वंचित किया गया है. और यही भेदभाव तथा असमानता की मूल जड़ है. इस समानता को दूर करने के लिये संबंधित पर्सनल लॉ में उचित संशोधन करके इनके कतिपय पहलुओं को संहिताबद्ध किया जाना चाहिए.

इसके बाद से वैसे तो राजनीतिक हितों की खातिर समय-समय पर समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठता रहा है लेकिन इस दौरान भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने समान नागरिक संहिता बनाये जाने की आवश्यकता को लेकर कई याचिकाएं दायर की लेकिन उन्हें अभी तक कोई विशेष सफलता नहीं मिल सकी है.

अश्विनी उपाध्याय ने हाल ही में इस मुद्दे पर देश के प्रधान न्यायाधीश को एक पत्र भी लिखा था जिसमें विभिन्न समुदायों के पर्सनल लॉ को एक समान बनाने के लिये दायर याचिकाओं पर सुनवाई के लिए विशेष पीठ गठित करने का अनुरोध किया गया था. लेकिन उन्हें भी इसमें अभी तक सफलता नहीं मिली है.

दिल्ली उच्च न्यायालय के ताजातरीन आदेश में समान नागरिक संहिता संबंधी अनुच्छेद 44 के क्रियान्वयन की आवश्यकता पर जोर दिये जाने के बाद एक बार फिर यह मुद्दा चर्चा में है. इसका जहां भाजपा समर्थन कर रही है वहीं इसका विरोध भी हो रहा है.

उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायालय के निर्देश के बाद केंद्र सरकार इस मुद्दे पर ऐसे कदम उठायेगी जिससे विभिन्न धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के हितों के साथ भेदभाव करने वाले प्रावधान खत्म हों, उनके हितों की रक्षा हो और देश में सांप्रदायिक सद्भाव के साथ देश की सांस्कृतिक विविधता भी प्रभावित नहीं हो.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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