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Monday, 6 May, 2024
होममत-विमतक्या नफरत पैदा करने वाले बयानवीरों से निबटना व्यवस्था के लिये बड़ी चुनौती है

क्या नफरत पैदा करने वाले बयानवीरों से निबटना व्यवस्था के लिये बड़ी चुनौती है

विधि आयोग ने बयानबाजी घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिये कानून के प्रावधानों को पूरी तरह पुख्ता नहीं पाया था और भारतीय दंड संहिता की धारा 153 और धारा 505 में नयी उपधारा जोड़ने और इन अपराधों को संज्ञेय तथा गैर जमानती बनाने का सुझाव दिया था.

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देश की राजधानी के कुछ हिस्सों में नागरिकता संशोधन कानून का विरोध और इसका समर्थन कर रहे लोगों के बीच हुयी हिंसक घटनाओं के बाद एक बार फिर नफरत फैलाने वाले भाषण सुर्खियों में आ गये. कटुता और उत्तेजना पैदा करने वाले भाषण देने वाले नेताओं और स्वंयभु धर्मगुरूओं के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत सख्त कार्रवाई की आवश्यकता है. सरकार और न्यायालय को अगर ऐसा लगता है कि मौजूदा कानून अधिक कारगर नहीं है तो भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता में नये प्रावधान जोड़ने में संसद को भी गुरेज नहीं करना चाहिए.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि उच्च न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय तक ने समाज में धर्म, जाति, भाषा और वर्ण आदि के आधार पर नफरत और कटुता पैदा करके अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास करने वाले बयानवीरों के रवैये पर कड़ा रूख ही नहीं अपनाया बल्कि हिंसा से निबटने में विफलता के लिये पुलिस को भी आड़े हाथ लिया.

सवाल  जिनके जवाब नहीं मिले

इसके बावजूद कुछ सवाल अभी भी अनुत्तरित है. इनमें यह भी महत्वपूर्ण है कि क्या धर्म निरपेक्ष होने का दावा करने वाले नेताओं का नफरत पैदा करने के भाषण देने वाले बयानवीरों की आलोचना करते समय ‘किन्तु-परंतु’ और ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ जैसे जुमलों का सहारा लेना उचित है?


यह भी पढ़ें: क्या नागरिकता संशोधन कानून के प्रावधानों को लेकर जान-बूझकर भ्रम पैदा किया जा रहा है


समाज में नफरत और कटुता पैदा करने वाले नेता, वे चाहें भी किसी दल या धर्म के हों, समाज के लिये बहुत ही घातक हैं. ऐसे तत्वों के प्रति समान रवैया अपनाना बहुत जरूरी है फिर चाहें वह कपिल मिश्रा हों, वारिस पठान हों या फिर भीम आर्मी के मुखिया चन्द्र शेखर आजाद ही क्यों नहीं हों. किसी न किसी तरह सुर्खियों में रहने के लिये आपत्तिजनक भाषण देने वाले तत्वों के प्रति किसी भी तरह की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहानुभूति देश के सांप्रदायिक सद्भाव के लिये नुकसानदेह ही है.

बयानवीर और आईपीसी की धारा 153-ए

वैसे तो नफरत पैदा करने वाले भाषण देने वाले बयानवीरों से निबटने के लिये वैसे तो भारतीय दंड संहिता की धारा 153-ए में प्रावधान है कि जो कोई भी धर्म, मूलवंश, जन्म स्थान, निवास स्थान और भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समुदायों और समूहों के बीच सौहार्द बिगाड़ने का अपराध करेगा तो उसे इसके लिये पांच साल तक की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती है.

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इसी तरह, जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 125 में भी प्रावधान है कि यदि कोई चुनाव के दौरान नागरिकों के बीच धर्म, मूलवंश, जाति, वर्ण, समुदाय या भाषा के आधार पर वैमनस्य या कटुता फैलाने का प्रयास करेगा तो इस अपराध के लिये ऐेसे व्यक्ति को तीन साल तक की कैद या जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है. इस अपराध के लिये दोषी व्यक्ति जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 के तहत चुनाव लड़ने के अयोग्य होगा.

राजधानी में हुयी इन हिंसक घटनाओं ने लोगों के दिलो दिमाग में 1984 के दंगों की याद ताजा कर दी. एक वर्ग ने इन घटनाओं का ठीकरा अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा और कपिल मिश्रा जैसे भाजपा नेताओं के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर मुकदमा चलाने की मांग कर डाली है. इन घटनाओं के पीछे अगर भाजपा नेताओं के नफरत पैदा करने वाले कथित भाषणों की भूमिका है तो इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के साथ ही इन पर त्वरित अदालत में मुकदमा चलना चाहिए.

लेकिन क्या इस हिंसा के लिये सिर्फ भाजपा के इन तीन नेताओं को जिम्मेदार ठहराना ही पर्याप्त है? शायद नहीं. आखिर भीम आर्मी के मुखिया की भूमिका को लेकर कोई भी सवाल क्यों नहीं उठा रहा? आखिर क्या वजह थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा की पूर्व संध्या पर नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में भारत बंद और जनता को जाफराबाद जैसे स्थानों पर एकत्र होने का आह्वान किया गया?

नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे लोगों के बीच अलग-अलग स्थानों पर तमाम मझोले स्तर के नेताओं से लेकर धार्मिक प्रवचन देने वाले जनता और मीडिया का ध्यान आकर्षित करने के लिये बढ़ -चढ़ कर ऐसे भाषण दे रहे थे जिनसे तनाव बढ़े. ऐसे भाषणों के जवाब में कानून के समर्थन में भी उत्तेजक भाषणों का सिलसिला शुरू हो गया था.

हमे यह ध्यान रखना होगा कि पिछले साल 15 दिसंबर से राजधानी के शाहीन बाग में नागरिकतता संशोधन कानून के विरोध में चल रहे धरना प्रदर्शन के दौरान कहीं कोई हिंसा नहीं हुयी. इस धरने प्रदर्शन की वजह से बंद हुयी सार्वजनिक सड़क खुलवाने के लिये लोग उच्चतम न्यायालय गये.

सीएए समर्थक और विरोधी आमने-सामने

न्यायालय ने भी यह टिप्पणी की कि लोगों को अपनी शिकायतों को लेकर धरना प्रदर्शन करने का मौलिक अधिकार है लेकिन इसके लिये किसी सार्वजनिक सड़क या स्थान को अनिश्चित काल के लिये अवरूद्ध करने दूसरे लोगों के लिये असुविधा पैदा करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है. फिलहाल यह मामला शीर्ष अदालत में विचाराधीन है.

फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि दिल्ली के कुछ अन्य इलाकों में बड़ी संख्या में नागरिकता संशोधन कानून के समर्थक और विरोधी आमने सामने आ गये?


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इस सवाल का जवाब जानने के लिये 20 से 22 फरवरी की घटनाओं की ओर ध्यान देना होगा. अचानक ही भीम आर्मी ने नागपुर में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के मुख्यालय के बगल में स्थित रेश्मी बाग मैदान में बैठक करने का फैसला किया जिसकी पुलिस ने अनुमति नहीं दी. लेकिन बंबई उच्च न्यायालय ने कड़ी शर्तो के साथ इस संगठन को 22 फरवरी को सिर्फ बैठक करने की अनुमति दी. शर्त यह भी थी कि बैठक के दौरान कटुता पैदा करने वाला कोई भाषण नहीं होगा.
लेकिन क्या ऐसा हुआ? नहीं. इसी बैठक से भीम आर्मी के मुखिया चन्द्र शेखर आजाद ने अमेरिकी राष्ट्पति डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा की पूर्व संध्या पर नागरकिता संशोधन कानून का विरोध करने के लिये 23 फरवरी से भारत बंद का आह्वान करने के साथ ही लोगों से जाफराबाद और दूसरे स्थानों पर एकत्र होने की अपील की थी. इस अपील के जवाब में जब कई स्थानों पर संशोधित कानून के विरोधियों ने मार्ग अवरूद्ध किया तो कानून के समर्थक भी मैदान में उतर आये.
भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने कथित रूप से चेतावनी दी कि अगर तीन दिन के भीतर यह रास्ते नहीं खुले तो हम इन्हें खुलवायेंगे. संभवतः इसी ने जनता को हो रही असुविधाओं के कारण सुलग रही आक्रोष की चिंगारी को भड़का दिया.
भारतीय दंड संहिता और जनप्रतिनिधित्व कानून में घृणा और वैमनस्य पैदा करने वाले भाषणों से निबटने के लिये कुछ प्रावधान हैं लेकिन इसके बावजूद नेताओं की बदजुबानी पर कोई कारगर अंकुश नहीं लगा.

इस स्थिति की गंभीरता को देखते हुये ही करीब छह साल पहले उच्चतम न्यायालय ने विधि आयोग से नफरत पैदा करने वाले भाषण को परिभाषित करने और इस तरह के अपराध पर सख्ती से काबू पाने के लिये उचित सुझाव देने का अनुरोध किया था.

विधि आयोग, बयानबाजी और दंडनीय अपराध

विधि आयोग ने 23 मार्च 2017 को इस अत्यंत महत्वपूर्ण मसले पर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी जो अभी भी धूल खा रही है. विधि आयोग ने इस तरह की घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिये कानून के प्रावधानों को पूरी तरह पुख्ता नहीं पाया था और इसी वजह से उसने भारतीय दंड संहिता की धारा 153 और धारा 505 में नयी उपधारा जोड़ने और इन अपराधों को संज्ञेय तथा गैर जमानती बनाने का सुझाव दिया था.

आयोग ने कहा था कि घृणा को बढ़ावा देने पर प्रतिबंध के लिये भारतीय दंड संहिता की 153-ख के बाद इसमे धारा 153-सी जोड़ी जाये. इसमें यह प्रावधान करने का सुझाव दिया गया था कि जो कोई व्यक्ति धर्म, मूलवंश,जाति या समुदाय, लिंग, लिंग पहचान, लैंगिक स्थिति, और भाषा आदि के आधार पर गंभीर रूप से धमकाने वाले बोले गये या लिखे गये शब्दों, संकेतों या दृश्यों का किसी व्यक्ति या समूह में भय पैदा करने के आशय से प्रयोग करता है या घृणा की वकालत करके हिंसा के लिये उकसाता है तो यह दंडनीय अपराध होगा और इसके लिये दो साल की कैद और पांच हजार रूपए जुर्माना होगा.

इसी तरह, आयोग ने भारतीय दंड संहिता में धारा 505-क जोड़ने का सुझाव दिया था जो कतिपय मामलों में भय पैदा करने, या खतरा पैदा करने अथवा गैरकानूनी तरीके से हिंसा के लिये उकसाने के अपराध से संबंधित था. इस अपराध के लिये एक साल तक की कैद और पांच हजार रूपए जुर्माने का प्रावधान करने का सुझाव दिया था.

यही नहीं, विधि आयोग ने संविधान के कामकाज के लिये अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी से संबंधित अनुच्छेद 19 को अनेक आधारों पर सीमित करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया था.

संविधान में 16वें संशोधन के माध्यम से इस अधिकार को सीमित करने के कुछ आधार जोड़े गये थे और इसमें दूसरे देशों के साथ मैत्रीपूर्ण रिश्तों, मानहानि या उकसाने के अपराध , भारत की एकता और प्रभुसत्ता, राज्य की सुरक्षा, शालीनता और न्यायालय की अवमानना को शामिल किया गया था. इस संशोधन के बाद भारतीय दंड संहिता में धारा 153-क, धारा 153-ख और धारा 295-क जोड़ी गयी थी.

घृणा और वैमनस्य पैदा करने वाले भाषण देने से सबंधित भारतीय दंड संहिता के ये प्रावधान धर्म से संबंधित अपराधों, सार्वजनिक शांति भंग करने और आपराधिक धमकी देने, अपमान और और पीड़ा पहुंचाने जैसे हर तरह के अपराध इसके दायरे में आते हैं.


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विधि आयोग की रिपोर्ट दिये गये इन सुझावों पर अमल के लिये केन्द्र सरकार को निर्देश देने के अनुरोध के साथ अब उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गयी है. चूंकि विधि आयोग ने शीर्ष अदालत के आग्रह पर ही घृणा फैलाने वाले भाषणों से उत्पन्न समस्यायें और चुनौतियों पर विचार किया था.

ऐसी स्थिति में उम्मीद की जानी चाहिए कि शीर्ष अदालत भी विधि आयोग की 267वीं रिपोर्ट में दिये गये सुझावों पर विचार करके कोई न कोई ऐसा न्यायिक रास्ता निकालेगा जिससे कि सरकार द्वारा कानून में अपेक्षित संशोधन किये जाने तक घृणा या वैमनस्य पैदा करने के भाषण देने वाले बयानवीरों पर कारगर तरीके से अंकुश लग सके और उनके खिलाफ दर्ज मुकदमों का तेजी से निबटारा सुनिश्चित किया जा सके.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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1 टिप्पणी

  1. Soniya Gandhi, is par Ya us par,

    Owaisi brothers, Kejriwal, amanatullah khan

    Priyanka Gandhi, Akhilesh Yadav etc ke bhi nam likhiye

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