दशकों से इस क्षेत्र को और अपनी आबादी को आतंकित करती आ रही ईरान की इस्लामी हुकूमत को आखिर इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है. आतंक की उसकी रणनीति के दो औजारों में से एक, उसका परमाणु हथियार कार्यक्रम शायद नष्ट हो चुका है. इसके कुछ हिस्से को तो इज़रायल पहले ही बम से उड़ा चुका है, लेकिन इसके फोर्दो, नतांज, और इस्फहान जैसे अधिक सुरक्षित अड्डों को अमेरिकी हमलों का सामना करना पड़ा है.
बताया जाता है कि अमेरिका ने फोर्दो में पहाड़ के नीचे दफन परमाणु अड्डे पर बंकर तोड़ने वाले छह ‘जीबीयू-57 मैसिव ऑर्ड्नांस पेनिट्रेटर (एमओपी)’ बम गिराए. इन हमलों ने ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम को भारी झटका दिया है. इस कार्यक्रम के खिलाफ ऐसी सैन्य कार्रवाई का विरोध करने वालों को यह डर सताता रहा है कि ऐसी कार्रवाई ईरान के परमाणु बम के निर्माण में तेज़ी ला देगी, लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि उसके परमाणु कार्यक्रम को इतना कमजोर कर दिया गया है कि फिलहाल वह परमाणु हथियार बनाने में अक्षम हो चुका है.
इस हमले के साथ हिज्बुल्लाह और हमास जैसे ईरान के दूसरे रणनीतिक औज़ारों, उसके क्षेत्रीय आतंकी लड़ाकों को भी नाकाम कर दिया गया है. हाउदी कमजोर किए जाने के बाद भी भले अभी तनकर खड़े हैं, लेकिन लेबनान में उनके दूसरे समर्थकों को भी कमजोर कर दिया गया है. कुछ महीने पहले सिर्फ अपने कपड़ों में ही किसी तरह अपने मुल्क से भागने में सफल हुए इसके सहयोगी, सीरिया के तानाशाह बशर-अल-असद मॉस्को में छिपे बैठे हैं.
ईरान ने जोखिम मोल लिया
कई लिहाज़ से कमज़ोर होने के बावजूद ईरान दूसरों को धमकियां देता रहा है और गिर-जिम्मेदाराना हरकतें करता रहा है. तेल के बड़े खजाने के बावजूद उसकी अर्थव्यवस्था बुरी हालत में है और उसकी सेना बहुत कारगर नहीं है क्योंकि उसकी हुकूमत छद्म लड़ाकों पर ज़ोर देती रही है.
दरअसल, आतंकवादी रणनीति आपको यहीं तक पहुंचा सकती है. कुछ समय बीतने के बाद दूसरे पक्ष आपकी धमकियों से निबटने या खुद को इतना सक्षम बना लेने के तरीके ढूंढ लेते हैं कि आपके अंदर खौफ पैदा कर सकें. खासकर इज़रायल ने यही किया है. उसने हिज्बुल्लाह और हमास को काफी बेअसर कर दिया है और उसके नेताओं तथा लड़ाकों को चुन-चुनकर निशाना बनाने की बेहद कारगर ऐसी खुली और गुप्त कार्रवाई की है, जो हैरतअंगेज़ रूप से दुस्साहसपूर्ण थी और जिसे काफी सटीक तरीके से अंजाम दिया गया था.
अमेरिका, इज़रायल और उसके सहयोगी देशों पर बार-बार हमले करके ईरान लड़ाई का जोखिम मोल लेता रहा है. वह इस क्षेत्र में एक विस्तारवादी ताकत के रूप में काम करता रहा है. वह भूमध्यसागर क्षेत्र के लेबनान से लेकर अरब सागर में यमन तक से छद्म लड़ाकों को तैयार करके अस्थिरता पैदा करता रहा है. यह सब करने की कोई ज़रूरत नहीं थी.
राष्ट्रीय सुरक्षा की व्यापकतम परिभाषा को छोड़ दें तो ईरान के सुरक्षा तंत्र को, जो सुरक्षा को पूरे क्षेत्र पर अपने वर्चस्व से परिभाषित करता है, यह सब करने की ज़रूरत नहीं थी. इस मुल्क को इज़रायल या अमेरिका से लड़ाई मोल लेने की शायद ही कोई वजह थी क्योंकि ये दोनों देश ईरान या उसकी हुकूमत के लिए भी कोई खतरा नहीं थे. इसके बावजूद ईरान ने लड़ाई मोल ली और अब वह उसकी कीमत चुका रहा है.
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घाटा
ईरान यह लड़ाई किसी तरह नहीं जीत सकता. बुद्धिमानी इसी में है कि वह गहरी सांस ले और अपने लिए उपलब्ध विकल्पों का फिर से आकलन करे. ऐसा इसने कुछ हद तक तब किया था जब 2020 में अमेरिका ने कुद्स फोर्स के कमांडर कासिम सुलेमानी को खत्म कर दिया था. अब देखना यह है कि आज जब उसके धोखे का खुलासा हो गया है तब वह बुद्धिमानी से काम लेता है या नहीं.
अगर ईरान पुनराकलन के लिए एक कदम पीछे नहीं हटता तो अमेरिका और कार्रवाई करेगा, जिसके कारण ईरान में सत्ता परिवर्तन हो सकता है. इसके लिए यह तर्क पहले ही दिया जा चुका है कि यह इस्लामी हुकूमत जब तक सत्ता में रहेगी, यह अपने परमाणु हथियार कार्यक्रम को फिर से जोड़ने की कोशिश कर सकती है. इस कार्यक्रम को खत्म करने का एक ही रास्ता है, वह यह कि जो हुकूमत इन हथियारों को चाहती है उसे ही बदल दिया जाए, लेकिन अमेरिका और खासकर डोनाल्ड ट्रंप ऐसे लक्ष्यों के के साथ जुड़े जोखिम के चलते इसके पक्ष में नहीं दिखते. अमेरिका ने चूंकि, अपना मकसद बहुत हद तक हासिल कर लिया है, वह सैन्य ऑपरेशनों को रोकने के पक्ष में दिखता है.
ईरान की प्रतिक्रिया निर्णायक होगी क्योंकि और अधिक विवेकहीनता उसका खात्मा कर सकती है. इस सभी के कारण इस क्रूर हुकूमत का खात्मा काफी अपेक्षित परिणाम हो सकता है, लेकिन बेकसूर ईरानियों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है, जिनका दम इसके राज में घुट रहा है और बेशक इस क्षेत्र के दूसरे देशों को भी इसके नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं.
ईरान पर अमेरिकी हमले के नतीजे ईरान और पश्चिम एशिया से आगे अमेरिका की घरेलू राजनीति तक को प्रभावित कर सकते हैं. वह ट्रंप के ‘मागा’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) गठबंधन में दरार भी पैदा कर सकते हैं. इस हमले से पहले ही ‘मागा’ के इज़रायल तथा यहूदी विरोधी गुटों ने इजरायल के समर्थकों की या ईरान पर अमेरिकी हमले के समर्थकों की आलोचना करने लगे थे. इस तरह के तर्कों में कभी ट्रंप पर सीधे निशाना नहीं साधा गया था. अब सवाल यह है कि यह आलोचना बंद होगी या नहीं, या क्या ‘मागा’ वैसा ही बना रहेगा जैसा ट्रंप उसे बताते हैं?
अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देखें तो यह यूक्रेन के लिए कुछ अच्छी खबर हो सकती है. ईरान रूस को यूक्रेन के नागरिकों पर हमले करने के लिए ड्रोन की सप्लाई करके उसका समर्थन करता रहा है. इस हमले से रूस को की जा रही इस ड्रोन सप्लाई पर सीधे असर नहीं पड़ सकता है क्योंकि रूस ने अपने इलाके में भी ड्रोन निर्माण के कारखाने बना लिए हैं, लेकिन इससे यूक्रेन को इस बात से सुकून मिल सकता है कि रूस के सहयोगियों को अपने किए का फल भुगतना पड़ रहा है.
ट्रंप की कार्रवाई चीन को भी संकेत दे सकती है. अमेरिकी राष्ट्रपति ने हाल में कहा है कि वह कब क्या करेंगे इसका अंदाज़ा कोई नहीं लगा सकता क्योंकि वह फैसले अंतिम क्षण में ही करते हैं. वह सही कह रहे हैं क्योंकि अक्सर उन्हें खुद पता नहीं होता कि वह करना क्या चाहते हैं और उनका बच्चों वाली शिकायतों या लेन-देन वाली मानसिकता से अलग कोई दार्शनिक दृष्टिकोण नहीं है, लेकिन इसका अर्थ यह है कि अगर चीन यह उम्मीद कर रहा हो कि उसने अगर ताइवान पर हमला किया तो ट्रंप तटस्थ रहेंगे, तो अब इस बारे में कुछ कह पाना और भी अनिश्चित हो गया है.
वैसे, एक प्रमुख अंतर यह है कि चीन ने वास्तविक क्षमता अर्जित कर ली है. दूसरे शब्दों में, वह केवल धमकी देने की रणनीति पर निर्भर नहीं करता, हालांकि यह रणनीतिक समीकरण का हिस्सा है. अगर धमकी कारगर नहीं होती तो वह सैन्य कार्रवाई भी कर सकता है. लेकिन दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेना से भीषण युद्ध अनिश्चितताओं से भरा होता है.
क्या शी जिनपिंग ऐसी जोखिम भरी रणनीति अपनाने को राजी हो सकते हैं? चीनी राष्ट्रपति कब क्या करेंगे यह अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है, खासकर इसलिए कि वे बहुत रणनीतिक सोच या विवेक के अनुसार नहीं काम नहीं करते, लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि ट्रंप की कार्रवाई उन्हें विराम देने का मौका देगी.
कुछ अमेरिकी विद्वान अमेरिकी सेना की अतिवादी या अविवेकपूर्ण कार्रवाई की निंदा करने को तत्पर रहते हैं. कभी-कभी तो वह सही भी होते हैं, लेकिन क्षेत्रीय शक्तियों समेत दूसरी ताकतों की आलोचना शायद ही की जाती है. उन्हें यह समझना चाहिए कि यह कई तरह के देशों और हुकूमतों की भी समस्या है. ईरान इसका अच्छा उदाहरण है. अगर चीन ताइवान पर हमला करता है तो यह इसी बात का एक और उदाहरण होगा कि विवेकहीनता और विस्तारवाद एक व्यापक समस्या है.
(राजेश राजगोपालन जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU), नई दिल्ली में इंटरनेशनल पॉलिटिक्स के प्रोफेसर हैं. उनका एक्स हैंडल @RRajagopalanJNU है. ये उनके निजी विचार हैं.)
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