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Sunday, 17 November, 2024
होममत-विमतआर्थिक विकास तो महत्वपूर्ण है, लेकिन भारत को बेरोजगारी, गरीबी, स्वास्थ्य, पर्यावरण पर भी ध्यान देना जरूरी है

आर्थिक विकास तो महत्वपूर्ण है, लेकिन भारत को बेरोजगारी, गरीबी, स्वास्थ्य, पर्यावरण पर भी ध्यान देना जरूरी है

सरकार अगर यह सोचती है कि आर्थिक वृद्धि ही समाधान है, तो क्या बढ़ती दरों के कारण सुस्त पड़ती विश्व अर्थव्यवस्था में यह समाधान कारगर होगा, खासकर इस बात के मद्देनजर कि महामारी से पहले ही घरेलू आर्थिक वृद्धि की दर धीमी थी.

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बजट और आर्थिक सर्वेक्षण से व्यापक अर्थव्यवस्था के लिए सरकार की जो रणनीति उभरती है उसे इन शब्दों में सरलता से कहा जा सकता है—आर्थिक वृद्धि सभी समस्याओं का समाधान कर देगी. यह रणनीति दो दशक पहले कारगर होती थी जब व्यापक अर्थव्यवस्था के संकेतक आज के वित्तीय घाटे के लिहाज से हुआ करते थे, सरकारी कर्ज पर ब्याज भारी होता था, और बैंक समस्याओं से ग्रस्त होते थे. बाद के वर्षों में जब विश्व अर्थव्यवस्था को रामबाण के सहारे जिंदा रखा जा रहा था तब लगातार आर्थिक वृद्धि ने टैक्स से आमदनी बधाई, जीडीपी के मुक़ाबले घाटे कम किया, और ब्याज के बोझ को सहने की ताकत दी.

नयी सदी जब कदम रख रही थी उस समय की तुलना में आज एक फायदा यह है कि बुरे कर्ज और पूंजी की पर्याप्तता के मामले में बैंकों की स्थिति सुधार दी गई है. लेकिन उस समय यशवंत सिन्हा ने दरों में जो साहसिक कटौती की थी उससे आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने में मदद मिली थी. आज इससे उलटी स्थिति है. नीची ब्याज दरों में वृद्धि हो रही है. इसके अलावा, उस समय विश्व अर्थव्यवस्था को जो गति थी उसके मुक़ाबले वह सुस्त पड़ रही है. इसलिए, सरकार अगर यह सोचती है कि आर्थिक वृद्धि ही समाधान है, तो क्या बढ़ती दरों के कारण सुस्त पड़ती विश्व अर्थव्यवस्था में यह समाधान कारगर होगा, खासकर इस बात के भी मद्देनजर कि महामारी से पहले ही घरेलू आर्थिक वृद्धि की दर धीमी थी?

इसका जवाब यह है कि यह अगले दो-तीन साल तो कारगर हो सकता है. अगले वित्त वर्ष के लिए जिस तेज वृद्धि का अनुमान लगाया जा रहा है उसे इस दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए कि महामारी के आर्थिक प्रभावों से अभी आंशिक तौर पर ही उबरा जा सका है. अप्रैल-जून वाली तिमाही को इस बात का फायदा मिलेगा कि 2021-22 की पहली तिमाही के लिए आंकड़ों का आधार नीचा रखा गया था. वह तिमाही कोविद की दूसरी लहर से प्रभावित हुई थी. अर्थव्यवस्था अभी भी उत्पादन संबंधी अड़चनों से जूझ रही है, जो धीरे-धीरे ही दूर होंगी. इसलिए, आर्थिक वृद्धि का इस वर्ष के 9.2 प्रतिशत के ऊपर 2022-23 के लिए जो 7-8 प्रतिशत का लक्ष्य रखा गया है वह यथार्थपरक ही है.


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फिर भी, तेज ‘रिकवरी’ दूसरे साल भी जारी रहने के बावजूद, कोविड के कारण आई मंदी (जिसमें जीडीपी सिकुड़कर 6.6 फीसदी हो गई थी) का असर पूरी तरह खत्म नहीं होगा. 2020-23 के बीच तीन वर्षों में औसत आर्थिक वृद्धि निश्चित रूप से मामूली 3.4 फीसदी पर आ गई होगी. बेशक, इसके बाद भी उत्पादन में कमी रहेगी, जो क्षमता के सामान्य से कम दोहन (उपभोग में कमी की वजह से) में प्रकट होगी. इसका परिणाम यह होगा कि निजी क्षेत्र में निवेश और क्रेडिट ग्रोथ भी सामान्य से कम होगी. अगर हम यह मान लें कि 2023-24 में वे पैमाने सामान्य स्थित में लौट आते हैं, और इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश के कारण उत्पादकता में कुछ वृद्धि होती है, तो एक-दो साल तक अच्छी आर्थिक वृद्धि हो सकती है. मैनुफैक्चरिंग के लिए उत्पादकता से जुड़ी प्रोत्साहन योजनाओं के कारण जो शुरुआती परिणाम मिलेंगे वे अतिरिक्त बूस्टर का कम कर सकते हैं.

ऐसे परिदृश्य में आज व्यापक अर्थव्यवस्था के जो बोझ (बड़ा वित्तीय घाटा और सरकारी उधर, और कर्ज पर ब्याज) हैं वे जीडीपी की तुलना में कम हो सकते हैं, जैसा इस सदी के पहले दशक में हुआ था. झटकों (नीतिगत भी) को छोड़कर, जोश ठंडा पड़ने से पहले अर्थव्यवस्था व्यवसाय चक्र के अंतिम चरण में बेहतर हाल में रह सकती है.
यह आशावाद लग सकता है लेकिन वास्तव में इसे जरूरत से ज्यादा उम्मीद न लगाना ही कहा जा सकता है. 2018-25 के सात साल के दौर में आर्थिक वृद्धि औसत दर बमुश्किल 5 फीसदी के आंकड़े को छू सकी है. यह इससे पहले की एक तिहाई सदी के लंबे दौर में रहे औसत से नीचा ही है. इस फर्क के बारे में काफी हद तक (पूरी तरह नहीं) महामारी को जिम्मेदार बताया जा सकता है, जिसने उत्पादन को जो नुकसान पहुंचाया है उसकी भरपाई दुर्भाग्य से नहीं की जा सकती.

इस सवाल को भविष्य के लिए छोड़ते हैं कि 2025 के बाद क्या आर्थिक वृद्धि की गति को कायम रखा जाएगा. आज सवाल यह है कि क्या उस वृद्धि को ही सफलता की एकमात्र कसौटी माना जाएगा? बेरोजगारी, गरीबी, पर्यावरण, शिक्षा, और स्वास्थ्य के मसलों का क्या होगा? ये सब अपने आपमें स्वतंत्र मसले हैं लेकिन आपस में जुड़े हुए भी हैं और ज्यादा नहीं तो पिछले दो साल से ये और गंभीर हुए हैं और बजटों में इन्हें कम तवज्जो दी गई है. यह ‘के फैक्टर’ वाली बहस है, जिसके बारे सरकार का मानना है कि इसे निरंतर आर्थिक वृद्धि के बूते सुलझाया जा सकता है. क्या ऐसा होगा? अपने आप नहीं होगा बल्कि मध्यकालिक से लेकर दीर्घकालिक रेकॉर्ड में होगा. रणनीति में बीच-बीच में संशोधन जरूरी है और कुछ नहीं तो इसलिए कि टिकाऊ आर्थिक वृद्धि इस पर निर्भर है.

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