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Thursday, 18 April, 2024
होममत-विमतसेना में ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ योजना बिना सोच की है, नवराष्ट्रवाद राजनीतिक मिलिशिया को ही जन्म देगा

सेना में ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ योजना बिना सोच की है, नवराष्ट्रवाद राजनीतिक मिलिशिया को ही जन्म देगा

कोई आकर्षक अल्पकालिक स्कीम, जिसमें सेना के प्रशिक्षण तथा कार्य मानकों और व्यक्ति की जरूरतों के बीच संतुलन बनाया गया हो, रक्षा बजट के प्रबंधन का सबसे कम खर्चीला उपाय साबित हो सकती है लेकिन असली चीज़ यह है कि मोदी सरकार इसकी क्या-क्या शर्ते तय करती है.

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सेना के एक आंतरिक अध्ययन के कुछ लीक हुए अंशों से जाहिर होता है कि सेना तीन साल की ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ योजना लागू करने की सिफ़ारिश कर रही है, जिसके तहत आम युवा तीन साल के लिए सेना में शामिल हो सकते हैं. यह एक बार फिर यही याद दिलाता है कि सेना का महकमा राजनीतिक मकसद से प्रेरित संकेत देने के लिए, और उपलब्ध ज्ञान को सिरे से नकारने वाले अपने सतही विचारों को उजागर करने के लिए मीडिया का किस तरह इस्तेमाल करता रहा है. इस तरह के विचार गहरे विश्लेषण के बाद प्रायः खारिज कर दिए जाने लायक ही साबित होते रहे हैं.

‘टूर ऑफ ड्यूटी’ योजना का मकसद सेना पर पेंशन के बोझ को कम करना और सेना में अफसरों की कमी को दूर करना है. लेकिन कुल मिलाकर यह देश में हावी दक्षिणपंथी राजनीति के ज्यादा अनुकूल लगती है क्योंकि इसमें सियासत का रंग भी मिला नज़र आता है. इस प्रस्ताव में कहा भी गया है कि ‘बेरोजगारी हमारे देश की एक वास्तविकता है, लेकिन इसके साथ राष्ट्रवाद और देशभक्ति की लहर भी फिर से उठी है.’

सुधी पाठक जानते होंगे कि ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ योजना गंभीर विचार किए बिना तैयार की गई है, जो व्यक्तिगत और संगठनात्मक जरूरतों को भी पूरा नहीं करती. इतने वर्षों में सेना के आंतरिक सर्वे से साफ हो चुका है कि युवा कोई देशभक्ति की भावना से प्रेरित होकर सेना में भर्ती नहीं होते. एक सुरक्षित एवं अच्छे वेतन वाली नौकरी का आकर्षण ही उन्हें सेना में आने को प्रेरित करता है. तीन साल की सैनिक सेवा का इजरायली मॉडल दक्षिणपंथियों को ज्यादा लुभाता है. यहां यह बता देना जरूरी है कि इसमें भी युवा देशभक्ति की खातिर नहीं बल्कि इसलिए जाते हैं क्योंकि इसे कानूनन एक अनिवार्य राष्ट्रसेवा घोषित किया जाता है. लेकिन नव-राष्ट्रवाद को एक प्रेरणा मानना अपने आप में सबसे खतरनाक चीज़ है. यह एक ताकतवर राजनीतिक सैन्य संगठन को ही जन्म देगा.

‘टूर ऑफ ड्यूटी’ योजना तो न्यूनतम पांच साल के लिए होनी चाहिए ताकि इसमें शामिल होने वाले को सरकारी नीति के तहत ग्रेच्युटी मिल सके. इसमें राष्ट्रीय पेंशन योजना भी लागू होनी चाहिए और 50 प्रतिशत भर्ती इसी पर आधारित हो. नरेंद्र मोदी सरकार अपनी वित्तीय सीमाओं के अंदर इस योजना को अधिकतम आकर्षक बनाए और इससे रिटायर होने वाले को सरकार की सभी गतिविधियों में शामिल होने में प्राथमिकता दे. सेवा शर्तें स्पष्ट होनी चाहिए, जो न्यायिक जांच में खरे उतर सकें. यह क्यों महत्वपूर्ण है यह समझ लें.


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लीक हुए अंशों का सार

रिपोर्ट के जो चार पन्ने लीक हुए हैं उनसे वास्तविक योजना का पता तो नहीं चलता मगर यह जरूर बताया गया है कि सरकार को कितनी बचत होगी और दूसरे क्या लाभ हो सकते हैं. रिपोर्ट के और ब्योरे बताते हैं कि यह योजना अभी ‘प्रारंभिक चरण’ में है, जिनका चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) और चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (सीओएएस) ने खुलासा किया है.

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प्रस्तावित ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ योजना में सेना सैनिकों और अफसरों को तीन साल के कार्यकाल के लिए भर्ती करेगी. वेतन वही होगा जो रेगुलर फौजी को मिलता है लेकिन न तो कोई पेंशन होगी और न कानूनन देय ‘बरखास्तगी (सिवरेंस) पैकेज’ होगा. वैसे, युद्ध में मारे जाने या अपंग होने पर वही सुविधाएं मिलेंगी जो रेगुलर फौजी को मिलती हैं. इस योजना का जो स्वरूप है वह सरकारी नौकरियों और कॉर्पोरेट जगत के लिए भी प्रशिक्षित, आत्मविश्वासी, मेहनती और प्रतिबद्ध वर्कफोर्स उपलब्ध कराएगी. लीक हुए दस्तावेज़ में आशा की गई है कि ऐसा ही होगा, लेकिन मोदी सरकार केंद्रीय या प्रादेशिक सरकारी नौकरियों के लिए तीन साल की ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ को अनिवार्य शर्त नहीं बनाने जा रही है. वेतन करमुक्त हो सकता है, अफसरों को 5-6 लाख का और सैनिकों को 2-3 लाख रुपये का रिटायरमेंट अनुदान दिया जा सकता है. इसके साथ शैक्षिक संस्थाओं और सार्वजनिक उपक्रमों में उन्हें नौकरी देने के मामले में प्राथमिकता देने की सिफ़ारिश भी की जा सकती है.

इससे जुड़ी एक और योजना भी है—‘इनवर्स इंडक्सन’—जो केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफ) के अफसरों और सैनिकों के लिए होगी, जिन्हें सेना में तीन साल की ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ योजना में भर्ती किया जा सकता है और इसके बाद वे वापस सीएपीएफ में जा सकेंगे.

‘टूर ऑफ ड्यूटी’ योजना का मुख्य लाभ यह है कि इसके लागू होते ही वेतन और पेंशन के मदों में खर्चे काफी कम हो जाएंगे. एक और लाभ यह होगा कि रेगुलर सैनिकों और अफसरों के केरियर में संभावनाएं बेहतर हो जाएंगी.

पिछले अनुभव

सैनिक रक्षा बजट का सबसे महंगा बंदा है. सरकारें आम तौर पर उसे फौज में भर्ती होने से लेकर उसकी मृत्यु तक सर्वोत्तम सुविधाएं देती हैं. सैनिक की पत्नी को उनकी पेंशन का 50 प्रतिशत मिलता है और दूसरी सुविधाएं भी मिलती हैं.

स्वैच्छिक या अनिवार्य शॉर्ट सर्विस स्कीमें सदियों से चल रही हैं. रक्षा बजट को कम करने का ये सबसे बढ़िया उपाय हैं. जहां भी कम आबादी के कारण (मसलन इजरायल) सेना में भर्ती होने वालों की संख्या कम होती है तब, या लंबे युद्ध की स्थिति में स्वयंसेवकों की संख्या कम पड़ने लगती है तब सरकारें एक निश्चित अवधि के लिए सैन्य सेवा अनिवार्य कर दिया करती हैं.

भारतीय सेना को ऐसी योजनाओं का खूब अनुभव रहा है. द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश भारतीय सेना की ताकत 2 लाख से बढ़कर 25 लाख सैनिकों की हो गई थी और 1948 में घटकर 3.5 लाख की हो गई थी. सेवा शर्तें सरल थीं— सरकार की जरूरत तक सेवा देनी होगी. उनमें से अधिकतर सैनिक पांच साल की सेवा के बाद मिलने वाली मामूली ग्रेच्युटी लेकर चले गए थे, उन्हें कोई पेंशन नहीं मिली.

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ‘कलर सर्विस’ (7-10 साल की) और ‘रिजर्व सर्विस’ (8-5 साल की ????) स्कीम लागू की गई. ‘रिजर्व सर्विस’ में सैनिक को वेतन नहीं, सिर्फ स्टाइपेंड मिलती थी जब वे दो महीने के वार्षिक प्रशिक्षण में भाग लेते थे. 15 साल की सेवा के बाद सैनिक को ‘रिजर्विस्ट पेंशन’ दी जाती थी, जो रेगुलर सैनिक की पेंशन के मुक़ाबले काफी कम होती थी. यह बड़ी कारगर योजना थी लेकिन हमने ‘प्रशिक्षित लोगों की सेवा लेते रहने’ और ‘जनकल्याण’ के नाम पर जो नीतियां बनाईं उनके कारण यह योजना बंद हो गई. इसके बाद पेंशन के लिए 15 साल की न्यूनतम अनिवार्य सेवा लागू की गई.

अफसरों के लिए भी 1962 में इमरजेंसी कमीशन और 1966 में शॉर्ट सर्विस कमीशन (एसएसआरसी) शुरू की गई. इमरजेंसी कमीशन के मामले में सेवा अवधि स्पष्ट की गई—जब तक सेवा की जरूरत होगी. एसएसआरसी के लिए अनिवार्य सेवा अवधि पांच साल थी.

दोनों सेवाओं में पेंशन की व्यवस्था नहीं थी. जिन्हें रेगुलर कमीशन नहीं मिली उन्हें पांच साल बाद की ग्रेच्युटी देकर विडा कर दिया गया. फिर, ‘प्रशिक्षित लोगों की सेवा लेते रहने’ और ‘जनकल्याण’ के नाम पर सरकार/सेना ने सेवा पहले पांच साल बढ़ाने और फिर इसे 10 साल की योजना, जिसे 14 साल तक बढ़ाया जा सकता था, में बदलने की नीति में कटौती कर दी.


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पुरानी बोतल में नयी शराब

आज हमारे पास सुगठित प्रादेशिक सेना है. असैनिकों को सैनिक/अफसर के रूप में प्रशिक्षित किया जाता है और जरूरत के मुताबिक भर्ती की जाती है, जबकि उनकी सिविल नौकरी बनी रहती है. प्रादेशिक सेना की यूनिटों ने युद्ध और अलगाववाद विरोधी मुहिमों में प्रशंसनीय काम किए हैं.

युवाओं को सैन्य अनुभव देने के लिए एनसीसी है, जिसमें 13 से 15 लाख युवा शामिल हैं. उसके एनुअल डे समारोहों में प्रधानमंत्री 1948 से शरीक होते रहे हैं. एनसीसी वालों को ऑपरेशनों में लगी यूनिटों के साथ भी जोड़ा जाता रहा है.
भारत में वर्कफोर्स की कोई कमी नहीं रही है, सैनिकों या अफसरों के रूप में भर्ती किए जाने वाले स्वयंसेवकों की भी कमी नहीं रही है. इसमें कोई शक नहीं कि कोई आकर्षक अल्पकालिक स्कीम, जिसमें सेना के प्रशिक्षण तथा कार्य मानकों और व्यक्ति की जरूरतों के बीच संतुलन बनाया गया हो, रक्षा बजट के प्रबंधन का सबसे कम खर्चीला उपाय साबित हो सकती है. लेकिन असली चीज़ यह है कि मोदी सरकार इसकी क्या-क्या शर्ते तय करती है.

(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिट.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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7 टिप्पणी

  1. Sir yah nirnay bhut ji achha hai ham jaise uowake liye
    Sir mera name chandan kumar hai , Father’s- Siyaram yadav
    Sir mai army me apna career banana chahta hu
    Sir mera do bar army me married nahi bana

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