1992 में एक सुबह, प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के पदभार संभालने से कुछ हफ्ते पहले, इंटेलिजेंस ब्यूरो के ऑपरेटिव्स ने देश के सर्वोच्च पद को सुरक्षित करने के लिए एक इलेक्ट्रॉनिक स्वीप (किसी छिपे हुए इलेक्ट्रॉनिक गैजेट कैमरा इत्यादि की जांच) किया. कुछ समय के लिए, ऐसा लग रहा था कि कोई विदेशी ख़ुफ़िया सेवा सबसे पहले वहां पहुंची थी: एक फ़ोन के अंदर, एक रिकॉर्डिंग डिवाइस और एक छोटा सा रेडियो ट्रांसमीटर था. फिर, किसी ने डिवाइस को पहचान लिया: यह बग कई साल पहले इंटेलिजेंस ब्यूरो द्वारा ही प्रधानमंत्री वीपी सिंह के शीर्ष सहयोगियों में से एक पर नज़र रखने के लिए लगाया गया था.
इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधिकारी मलॉय धर ने अपने संस्मरणों में लिखा है, “तेजी से राजनीतिक और नौकरशाही परिवर्तनों के बीच, कोई जासूसी उपकरण को हटाना भूल गया था.” इसी तरह के एक ऑपरेशन में राष्ट्रपति ज़ैल सिंह को निशाना बनाया गया था, क्योंकि 1987 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी और राष्ट्रपति भवन के बीच तनाव चरम पर पहुंच गया था.
ताज़ा सबूत अब सामने आए हैं कि खुफिया सेवाओं यहा तक कि पुलिस द्वारा भी अवैध राजनीतिक निगरानी की गई. पिछले हफ्ते, तेलंगाना में पुलिस ने पुलिस अधिकारी दुग्याला प्रणीत कुमार को गिरफ्तार किया था, जिन पर भारत राष्ट्र समिति सरकार के दौरान विपक्षी नेताओं के खिलाफ जासूसी करने का संदेह है. कुमार ने तेलंगाना राज्य खुफिया ब्यूरो में काम किया, जो एक पुलिस संगठन है और जिसके ऊपर माओवादी विद्रोही समूहों की निगरानी की जिम्मेदारी है.
1991 के बाद से, जब सबूत राजीव गांधी सरकार द्वारा न केवल अपने विरोधियों बल्कि वरिष्ठ मंत्रियों के भी अवैध रूप से फोन टैप कराए जाने के सबूत सामने आए थे, इसके बाद इसी तरह के स्कैंडल अक्सर सामने आते रहे हैं. 2013 में गुजरात से लेकर 2019 में कर्नाटक या 2002 में महाराष्ट्र तक, हालांकि, कानून और लोकतांत्रिक संस्थानों के साथ छेड़छाड़ की कोई सजा नहीं मिली है.
औपनिवेशिक काल के अपने पूर्ववर्तियों से सीखते हुए, ख़ुफ़िया सेवाएं भारत के शासकों को भारतीयों से बचाने के लिए अस्तित्व में हैं. जॉर्ज ऑरवेल के एनिमल फार्म किताब में सुअरों की तरह, जिन राष्ट्रवादियों को साम्राज्य का निगरानी तंत्र विरासत में मिला था, उन्हें इसे अपने ही लोगों पर थोपना था.
उनके मालिकों की ख़ुफ़िया सेवाएं
1857 के महान विद्रोह के बाद, ईस्ट इंडिया कंपनी के ठगी और डकैती विभाग को – हाईवे के डाकुओं के जानलेवा गिरोहों के खिलाफ एक सफल अभियान से – राजनीतिक खुफिया जानकारी इकट्ठा करने का काम सौंपा गया था. 1872 में वॉयसराय रिचर्ड बॉर्के की हत्या ने इस खतरे को रेखांकित किया. उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती इलाकों में जिहादियों से लगातार खतरों के साथ-साथ बंगाल और पंजाब में अशांति का सामना करते हुए, साम्राज्य ने समझा कि उसे भविष्य के विद्रोहों से बचने के लिए अपने खुफिया नेटवर्क का विस्तार करने की आवश्यकता है.
इतिहासकार रिचर्ड पॉपवेल लिखते हैं कि 1876 से 1880 तक भारत के वायसराय रहे एडवर्ड बुल्वर-लिटन ने ठगी और डकैती विभाग का वर्णन “वस्तुतः हमारे गुप्त पुलिस विभाग” के रूप में किया है. हालांकि, नए नेटवर्क की वास्तविक ताकत कम थी: बंगाल में सबसे बड़ा जासूसी बल, एक उप महानिरीक्षक, चार सहायक और 32 हेड कांस्टेबल से बना था, जबकि पंजाब विशेष शाखा में एक पुलिस अधिकारी, दो क्लर्क और एक देशी इंस्पेक्टर शामिल थे.
इस अल्पविकसित खुफिया जानकारी को इकट्ठा करने की प्रणाली को नाथनियल कर्जन के अधीन शक्ति दी गई, जो 1899 में वायसराय बने. प्रांतीय पुलिस बलों द्वारा उत्पन्न जानकारी इकट्ठा करने और उसका विश्लेषण करने के लिए, भारत सरकार में आपराधिक खुफिया विभाग या डीसीआई की स्थापना की गई थी. हालांकि केंद्रीय संगठन को अपनी जांच करने का काम नहीं सौंपा गया था, फिर भी उसे जासूसों की भर्ती के लिए £733 – तब लगभग ₹11,000 रुपये – का एक छोटा सा अनुदान दिया गया था -.
बीसवीं सदी की शुरुआत में, जैसे-जैसे बंगाल और पंजाब में राष्ट्रवादी आतंकवाद बढ़ा, डीसीआई के संसाधनों का विस्तार हुआ. चार्ल्स स्टीवेन्सन मूर के नेतृत्व में, इसने एक फिंगरप्रिंट ब्यूरो, एक फोटोग्राफिक सेक्शन स्थापित किया और एक हैंडराइटिंग विश्लेषक को काम पर रखा. 1906 में, DCI ने अपना पहला भारतीय अधिकारी, सहायक उप निदेशक मुंशी अजीज-उद-दीन को भी नियुक्त किया. जैसे-जैसे आतंकवाद की गति तेज़ हुई, डीसीआई के बजट में भी नाटकीय रूप से वृद्धि हुई.
1912 में वायसराय रिचर्ड हार्डिंग की लगभग सफल हत्या के बाद, इतिहासकार और पूर्व इंटेलिजेंस ब्यूरो अधिकारी अमीय सामंता ने बताया है कि डीसीआई अभी भी कितना कमजोर था. शाही पुलिस अधिकारी डेविड पेट्री के नेतृत्व में, एक विशेष डीसीआई इकाई का मानना था कि अप्रैल, 1913 तक, “पूरे भारत में शायद ही कोई एक व्यक्ति था जिसे बम साजिश में संभावित जांच का कारक माना जा सकता था, जिसके कार्यों पर सावधानी नहीं बरती गई थी. हालांकि, कुछ मिला नहीं.
अंत में, प्रांतीय पुलिस अधिकारी गॉडग्रे डेनहम और चार्ल्स टेगार्ट ने उन राष्ट्रवादी नेटवर्क की खोज की जिन्होंने हमलों को अंजाम दिया था, और अपराधियों को गिरफ्तार कर लिया – रासबिहारी बोस को छोड़कर, जिन्हें कभी पकड़ा नहीं गया था.
इतिहासकार पैट्रिक फ्रेंच ने उल्लेख किया है कि “भारत में ब्रिटिश शासन के अंतिम तीन दशकों में, खुफिया जानकारी एकत्र करने का बड़े पैमाने पर विस्तार किया गया था क्योंकि इसे कांग्रेस पर नियंत्रण रखने रखने का एकमात्र तरीका माना गया. गुप्त रूप से प्राप्त जानकारी का नीति निर्माण और निर्णय लेने में महत्व बढ़ने लगा.”
1919 में, भारत सरकार अधिनियम ने आदेश दिया कि इंटेलिजेंस ब्यूरो “भारतीय साम्राज्य की सुरक्षा” से संबंधित सभी मामलों के बारे में शाही अधिकारियों को जानकारी देकर रखेगा. संगठन की विधायी निगरानी के लिए कोई प्रावधान नहीं थे, न ही नागरिकों के अधिकारों के लिए विधायी सुरक्षा. आज भी कुछ नहीं बदला.
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ऑरवेल पिग्स
किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि विस्तृत इंटेलिजेंस ब्यूरो का भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन और 1935 में चुनी गई नई प्रांतीय विधानसभाओं की आकांक्षाओं से टकराव हुआ. सामंता ने कहा, “असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों से संबंधित टॉप सीक्रेट फाइलें, इंटेलिजेंस ब्यूरो के सीआईओ के कार्यालय में भेजी गईं, जो वैधानिक रूप से मंत्रिस्तरीय हस्तक्षेप से सुरक्षित था. प्रांतीय सरकारें अक्सर केंद्रीय खुफिया द्वारा उन पर जासूसी करने की शिकायत करती थीं”
शाही अधिकारियों ने विदेशों में भारतीय राष्ट्रवादियों और कम्युनिस्टों के खिलाफ भी अपनी निगरानी का विस्तार किया. पंजाब पुलिस अधिकारी पीसी विकरी के नेतृत्व में, सुरक्षा सेवा MI5 के अंदर इंडियन पॉलिटिकल इंटेलिजेंस नामक एक विशेष इकाई स्थापित की गई थी. संगठन की गतिविधियों से भारतीय प्रवासियों के साथ काफी मतभेद पैदा हुआ करते थे.
भारत की आज़ादी के बाद के अधिकांश इतिहास में, इंटेलिजेंस ब्यूरो का रिकॉर्ड विवादों से भरा था. मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या की जांच करने वाले आयोग के रिकॉर्ड से यह स्पष्ट है कि शत्रुतापूर्ण राजनीतिक आंदोलन पर खुफिया जानकारी इकट्ठा करने की खुफिया ब्यूरो की क्षमताएं काफी कुछ सीमित थीं. हालांकि इंटेलिजेंस ब्यूरो को गांधीजी के जीवन के संभावित खतरों के बारे में उत्तर प्रदेश पुलिस से जानकारी मिली थी, लेकिन उसने इसे बॉम्बे पुलिस तक केवल पहुंचा भर दिया.
विशेष रूप से, संगठन 1962 के युद्ध से पहले चीन से खतरे को यह दावा करते हुए नहीं भांप नहीं पाया “भारत और चीन के बीच युद्ध होने की स्थिति में परमाणु युद्ध होने की संभावना बनेगी जो कि वैश्विक रूप ले सकती है इसलिए चीन इस तरह के युद्ध से दूर रहेगा.”
कश्मीर में, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा चुने गए इंटेलिजेंस ब्यूरो स्टेशन प्रमुख इंद्रजीत सिंह हसनवालिया को 1962 में श्रीनगर में हजरतबल दरगाह से एक पवित्र अवशेष के गायब होने से संबंधित संकट का शांतिपूर्ण निष्कर्ष निकालने का श्रेय दिया गया था. इंटेलिजेंस ब्यूरो द्वारा राजनीतिक और चुनावी हेरफेर में हस्तक्षेप करने की वजह से इसकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा. संगठन 1988 के बाद राज्य को घेरने वाले संकट के पैमाने की भविष्यवाणी करने में भी विफल रहा.
1970 के दशक से, इंटेलिजेंस ब्यूरो के लगातार बनने वाले निदेशक विरोधियों को कमजोर करने के सरकार के प्रयासों में फंसने के साथ राजनीतिक निगरानी में इंटेलिजेंस ब्यूरो की भूमिका – अक्सर संदिग्ध वैधता की – लगातार बढ़ती गई. इन कार्रवाइयों से 1975-1977 के आपातकाल के दौरान ब्यूरो को काफी बदनामी मिली.
1950 के दशक से, इंटेलिजेंस ब्यूरो ने उच्च पदों पर नियुक्त लोगों, विशेष रूप से उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की पृष्ठभूमि की जांच करने में भी विवादास्पद भूमिका निभानी शुरू कर दी.
जवाबदेही की समस्या
ग्यारह साल पहले, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार-और इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व निदेशक-अजीत डोभाल ने कहा था कि संगठन के उद्देश्यों और तौर-तरीकों की आखिरी गहन समीक्षा 1980 के दशक में उनके पूर्ववर्ती एमके नारायणन के कार्यकाल मं हुई थी. उन्होंने “नए सिद्धांतों को गढ़ने, संरचनात्मक परिवर्तन का सुझाव देने, संसाधनों के अनुकूलन का लक्ष्य रखने और खुफिया एजेंसियों के सशक्तीकरण के लिए आवश्यक प्रशासनिक और विधायी परिवर्तनों की जांच करने” के लिए एक आधिकारिक समीक्षा किए जाने का तर्क दिया.
लेकिन ऐसी कोई कवायद नहीं की गई.
खुफिया जानकारी के राजनीतिक दुरुपयोग को समाप्त करने का मतलब है कि भारत को राज्य और केंद्रीय सेवाओं को इस तरह बनाना होगा कि वे कानून के अनुसार चलें न कि राजनीतिक सनक या इच्छा से. यह आश्चर्य की बात नहीं है कि किसी भी राजनीतिक दल ने इसमें रुचि नहीं दिखाई है – भले ही विपक्ष में सभी को अवैध निगरानी और जबरदस्ती के परिणाम भुगतने पड़े हैं.
वृंदा भंडारी और करण लाहिड़ी जैसे कानून के जानकारों ने तर्क दिया है कि भारतीय खुफिया सेवाओं के लिए कानूनी ढांचे में इसके निगरानी कार्यों की न्यायिक और विधायी निगरानी शामिल होनी चाहिए, जैसा कि दुनिया भर के उदार लोकतंत्रों ने शुरू किया है. अनियमित रहने पर, ख़ुफ़िया सेवाएं अपने राष्ट्रों के मूल्यों और कानूनों की दुश्मन बन सकती हैं – जैसा कि 1975 में संयुक्त राज्य अमेरिका की सीनेट जांच में पता चला था.
यह सबक, भारत को तब से कई बार सिखाया गया है.
(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कॉन्ट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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